वेदप्रताप वैदिक का ब्लॉग: टीवी चैनलों का आम लोगों पर कितना प्रभाव?

By वेद प्रताप वैदिक | Published: November 22, 2022 11:38 AM2022-11-22T11:38:45+5:302022-11-22T11:50:41+5:30

आप जेब से मोबाइल फोन निकालें और जो चाहें सो देख लें। दूरदर्शन या टीवी ने सबसे ज्यादा नुकसान पहुंचाया है, अखबारों को! हमारे देश में अभी भी अखबार 5-7 रुपए में मिल जाता है लेकिन पड़ोसी देशों में उसकी कीमत 20-30 रुपए तक होती है और अमेरिका व यूरोप में उसकी कीमत कई गुना ज्यादा होती है। 

What is the impact of TV channels on common people? | वेदप्रताप वैदिक का ब्लॉग: टीवी चैनलों का आम लोगों पर कितना प्रभाव?

वेदप्रताप वैदिक का ब्लॉग: टीवी चैनलों का आम लोगों पर कितना प्रभाव?

Highlightsहमारे अखबार ज्यादा से ज्यादा 20-25 पृष्ठ के होते हैं लेकिन 'न्यूयॉर्क टाइम्स' जैसे अखबार इतवार के दिन 100-150 पेज के भी निकलते रहे हैं।जब से टीवी चैनल लोकप्रिय हुए हैं दुनिया के महत्वपूर्ण अखबारों की प्रसार-संख्या भी घटी है, उनकी विज्ञापन आय कम होने लगी है।अखबारों के मुकाबले इस बुनियादी काम में वे बहुत पिछड़े हुए हैं।

सोमवार को सारी दुनिया में 'विश्व टेलीविजन दिवस' मनाया गया क्योंकि 26 साल पहले संयुक्त राष्ट्र ने इस दिवस की घोषणा की थी। उस समय तक अमेरिका, यूरोप, जापान आदि देशों में लगभग हर घर में टेलीविजन पहुंच चुका था। भारत में इसे दूरदर्शन कहते हैं लेकिन सारी दुनिया में निकट-दर्शन का आज भी यही उत्तम साधन माना जाता है। हालांकि इंटरनेट का प्रचलन अब दूरदर्शन से भी ज्यादा लोकप्रिय होता जा रहा है। 

यह दूरदर्शन है तो वह निकट-दर्शन बन गया है। आप जेब से मोबाइल फोन निकालें और जो चाहें सो देख लें। दूरदर्शन या टीवी ने सबसे ज्यादा नुकसान पहुंचाया है, अखबारों को! हमारे देश में अभी भी अखबार 5-7 रुपए में मिल जाता है लेकिन पड़ोसी देशों में उसकी कीमत 20-30 रुपए तक होती है और अमेरिका व यूरोप में उसकी कीमत कई गुना ज्यादा होती है। 

हमारे अखबार ज्यादा से ज्यादा 20-25 पृष्ठ के होते हैं लेकिन 'न्यूयॉर्क टाइम्स' जैसे अखबार इतवार के दिन 100-150 पेज के भी निकलते रहे हैं। जब से टीवी चैनल लोकप्रिय हुए हैं दुनिया के महत्वपूर्ण अखबारों की प्रसार-संख्या भी घटी है, उनकी विज्ञापन आय कम होने लगी है। लेकिन असली प्रश्न यह है कि ये टीवी चैनल आम लोगों को कितना जागरूक करते हैं और उन्हें आपस में कितना जोड़ते हैं? 

अखबारों के मुकाबले इस बुनियादी काम में वे बहुत पिछड़े हुए हैं। उनमें गली-मोहल्ले, गांव, शहर, प्रांत और जीवन के अनेक छोटे-मोटे दुखद या रोचक प्रसंगों का कोई जिक्र ही नहीं होता। उनमें अखबारों की तरह गंभीर संपादकीय और लेख भी नहीं होते। पाठकों की प्रतिक्रिया भी नहीं होती। उनकी मजबूरी है। न तो उनके पास पर्याप्त समय होता है, न ही इन मामलों में कोई उत्तेजनात्मक तत्व होता है, जो कि उनकी प्राणवायु है।

Web Title: What is the impact of TV channels on common people?

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