विश्वनाथ सचदेव का ब्लॉग: जागरूक नागरिक ही बचा सकते हैं जनतंत्र को

By विश्वनाथ सचदेव | Updated: March 6, 2020 05:51 IST2020-03-06T05:51:40+5:302020-03-06T05:51:40+5:30

दिल्ली की जनता ने दंगा-पीड़ितों की मदद के लिए आगे आकर जो शानदार उदाहरण प्रस्तुत किया है, वह हर दृष्टि से प्रशंसनीय है. देखा जाए तो जनता का यह काम उन सबके मुंह पर तमाचा है जो राजनीतिक स्वार्थो के लिए देश की एकता को नुकसान पहुंचाते हैं, धर्म के नाम पर नागरिकों को लड़वाते हैं.

Vishwanath Sachdev blog: Only aware citizens can save democracy | विश्वनाथ सचदेव का ब्लॉग: जागरूक नागरिक ही बचा सकते हैं जनतंत्र को

तस्वीर का इस्तेमाल केवल प्रतीकात्मक तौर पर किया गया है। (फाइल फोटो)

आधी रात बीत चुकी थी. सोने की तैयारी में थे देश के गृह मंत्नी. तभी सूचना मिली कि राजधानी दिल्ली के निजामुद्दीन औलिया की दरगाह के इलाके में स्थिति गंभीर होती जा रही है. उस इलाके में रहने वाले मुसलमान असुरक्षित हैं. किसी भी क्षण कुछ भी हो सकता है. गृह मंत्नी ने चप्पल पहनी, शॉल को कंधे पर रखा और तत्काल निकल पड़े. लगभग घंटा भर रहे थे गृह मंत्नी उस तनावपूर्ण इलाके में. और इस बीच वहां तनाव कुछ कम होता लगने लगा था. गृह मंत्नी की उपस्थिति और उनके शब्दों ने जैसे घावों पर मरहम का काम किया हो. अब स्थिति नियंत्नण में लग रही थी. वहां उपस्थित पुलिस अधिकारी को चेतावनीपूर्ण आदेश देकर उन्होंने घबराए नागरिकों को सुरक्षा का आश्वासन दिया. तब वे वहां से लौटे थे. रात के लगभग दो बज रहे थे.

यह घटना सन् 2020 की नहीं है. यह तब का वाकया है जब देश आजाद हुआ था- 1947 में हुए विभाजन की त्नासदी ने सारे भारतीयों को जैसे हिंदू-मुसलमान में बांट दिया था. तब सरदार वल्लभभाई पटेल देश के गृह मंत्नी थे. शांति-व्यवस्था बनाने, बनाए रखने की जिम्मेदारी उनकी थी. पाकिस्तान से आए हिंदू शरणार्थियों के हालात देखकर देश सहमा हुआ भी था और गुस्से में भी था. हवा में सांप्रदायिकता का जहर घुला हुआ था. देश का गृह मंत्नी इस जहर का असर कम करने में लगा था.

सन् 2020 में भी कुछ वैसा ही जहर घोलने की कोशिशें हो रही हैं. कुछ देश-विरोधी ताकतें वातावरण खराब करने पर तुली हैं. चौबीस फरवरी को दिल्ली में जो कुछ हुआ, वह इन्हीं नापाक कोशिशों का परिणाम है. राजधानी दिल्ली में हुए तीन दिन के दंगों में चालीस से अधिक भारतीय मारे जा चुके हैं, दो सौ से अधिक घायल अस्पतालों में हैं. और हमारे गृह मंत्नी आरोप लगा रहे हैं कि विरोधी दलों का षड्यंत्न है यह सरकार को बदनाम करने का. गृह मंत्नी पटेल आधी रात को उठकर दंगा-पीड़ितों के पास पहुंचे थे, गृह मंत्नी शाह बैठकें ही करते रह गए.

दंगे क्यों हुए? अपराधी कौन हैं? इन सवालों का मुकम्मल जवाब तो ईमानदारी से की गई जांच और न्यायालय का निर्णय ही दे सकेगा, लेकिन पिछले एक अर्से से जिस तरह का सांप्रदायिक माहौल बनाया जा रहा है, उसकी निश्चित भूमिका से इनकार नहीं किया जा सकता. चुनाव-प्रचार के दौरान और शाहीन बाग जैसी घटनाओं के संदर्भ में जिस तरह की भाषा का इस्तेमाल किया गया है, वह कानून और नैतिकता, दोनों की दृष्टि से आपराधिक कृत्य ही माना जाना चाहिए.

होना तो यह चाहिए था कि सत्तारूढ़ दल का नेतृत्व अपने नेताओं को भड़काऊ बयानों के लिए सजा देता, पुलिस द्वारा सही भूमिका न निभाने के लिए गृह मंत्नालय कोई दंडात्मक कार्रवाई करता, लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हुआ.

पंथ-निरपेक्षता भारत की एक पहचान और ताकत है, और जब-जब देश में सांप्रदायिकता का जहर फैलाने की कोशिशें हुई हैं, हमारी यह ताकत कमजोर ही हुई है. विडंबना यह है कि हम न 1984 की दिल्ली से कुछ सीखे हैं, न 2002 के गुजरात से. यही नहीं, देश में जब-जब भी कहीं सांप्रदायिकता की आग लगी है, या तो उसे राजनीतिक स्वार्थो के लिए लगाया गया है या फिर उस आंच पर राजनीति की रोटियां सेंकी गई हैं. हमारी आज की राजनीति की एक विशेषता यह भी है कि हमारे नेता, चाहे वे किसी भी रंग के हों, यह मानकर चलते हैं कि जो उनका विरोधी है, वह उनका ही नहीं, देश का भी दुश्मन है. फिर देश के उस दुश्मन  को गद्दार घोषित कर दिया जाता है, सजा देने की बात होती है. यह प्रवृत्ति इस हास्यास्पद स्थिति तक पहुंच गई है कि स्कूल में नाटक करने वाली नौ साल की बच्ची पर भी देशद्रोह का आरोप लग जाता है.

सवाल पूछा जाना चाहिए कि क्या सांप्रदायिकता की आग लगाना देशद्रोह नहीं है? धर्म और जाति के नाम पर ध्रुवीकरण की कोशिश देशद्रोह नहीं है? क्या भारत के नागरिक को हिंदू-मुसलमान में बांटकर देखने की प्रवृत्ति देशद्रोह की परिभाषा में नहीं आती?

ये सारे सवाल हमसे जवाब मांग रहे हैं. दिल्ली में जो कुछ भी हुआ उसके अपराधियों को सजा मिलनी चाहिए, जल्दी मिलनी चाहिए. पर इसके साथ ही यह सोचने का भी समय आ गया है कि हमारी संस्थाएं- हमारी पुलिस, हमारी कार्यपालिका- क्या अपना कर्तव्य निभा पा रही हैं? यदि नहीं तो इसके दोषी कौन हैं? यह सवाल भी तो पूछा जाना चाहिए कि दिल्ली उच्च न्यायालय का कोई न्यायाधीश जब पुलिस को उसकी खामी के लिए डांटता है तो रातों-रात उसका तबादला क्यों हो जाता है?

दिल्ली की जनता ने दंगा-पीड़ितों की मदद के लिए आगे आकर जो शानदार उदाहरण प्रस्तुत किया है, वह हर दृष्टि से प्रशंसनीय है. देखा जाए तो जनता का यह काम उन सबके मुंह पर तमाचा है जो राजनीतिक स्वार्थो के लिए देश की एकता को नुकसान पहुंचाते हैं, धर्म के नाम पर नागरिकों को लड़वाते हैं. लेकिन यह आशा करना कि हमारे राजनेता इससे कुछ सीखेंगे, एक निर्थक प्रयास ही होगा. फिर भी, सरदार पटेल से प्रेरणा लेने का दावा करने वालों को इतना तो कहा ही जा सकता है कि 1947 में पटेल ने जो राह दिखाई थी, हमारे आज के नेता उस राह को पहचानना भी नहीं चाहते. उस आधी रात को घर से निकलते वक्त पटेल ने कहा था, ‘इससे पहले कि वह संत (निजामुद्दीन औलिया) नाराज हो जाए, चलो उसके पास चलें.’ आज हमारी स्वाधीनता और जनतंत्न के नाराज होने का खतरा है. आओ, इन्हें बचा लें.

स्वाधीनता और जनतंत्न पर मंडराते खतरे का ही तकाजा है कि हम यह समङों कि आज जो हो रहा है, वह हिंदू मुसलमान का दंगा नहीं है. यह एक घिनौनी कोशिश है भारतीय समाज को बांटने की. इस बंटवारे को रोकना ही होगा. नेता नहीं करेंगे यह काम- उनका गणित अलग है. यह काम जनता को यानी मुङो और आपको करना होगा. जागरूक, विवेकशील नागरिक ही जनतंत्न को और देश को बचा सकता है.

Web Title: Vishwanath Sachdev blog: Only aware citizens can save democracy

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