विश्वनाथ सचदेव का ब्लॉग: लोकतंत्र में व्यक्ति-पूजा की प्रवृत्ति से बचना जरूरी
By विश्वनाथ सचदेव | Updated: March 9, 2022 12:10 IST2022-03-09T12:10:35+5:302022-03-09T12:10:35+5:30
व्यक्ति-पूजा की परंपरा हमारे देश में नई नहीं है. स्वतंत्र भारत के इतिहास में भी नेताओं के नायक बनने और बनाने के कई सारे उदाहरण मिल जाते हैं.

लोकतंत्र में व्यक्ति-पूजा की प्रवृत्ति से बचना जरूरी (फोटो- वीडियो ग्रैब)
समाचार चैनलों और सोशल मीडिया पर रूस-यूक्रेन के युद्ध के दृश्यों के बीच एक दृश्य यूक्रेन में पढ़ रहे भारत के विद्यार्थियों के स्वदेश लौटने का भी था. इन विद्यार्थियों को यूक्रेन की सीमाओं से भारत लाने में भारत सरकार की भूमिका की तारीफ भी हो रही है. विषम परिस्थिति में हमारे विद्यार्थियों का सुरक्षित लौटना निश्चित रूप से एक बड़ी राहत की बात है.
हमारी सरकार ने न केवल इन विद्यार्थियों को लाने के लिए विमान भेजे थे, बल्कि भारत पहुंचने पर केंद्रीय मंत्रिमंडल के सदस्य उनका स्वागत करने के लिए हवाई अड्डों पर उपस्थित थे. कहीं-कहीं तो यह स्वागत विमान के भीतर जाकर भी किया गया. आने वालों को गुलाब के फूल दिए गए, भाव-भीने शब्द परोसे गए. अपनी इस भूमिका से हमारे मंत्री इतने उत्साहित थे कि उन्होंने छात्रों से नारे भी लगवाए.
यहां तक तो सब ठीक-ठाक ही था, पर स्थिति वहां जाकर थोड़ी उपहासास्पद हो गई जब विद्यार्थियों को भारत माता की जय के साथ ‘माननीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जिंदाबाद’ का नारा लगाने के लिए कहा गया. छात्रों ने भारत माता की जय का नारा तो बड़े जोश से लगाया पर ‘जिंदाबाद’ बोलने में उनकी आवाज दब गई. अधिकांश छात्र चुप रह गए.
यह कहना तो पूरा सही नहीं होगा कि वे छात्र अपने प्रधानमंत्री के आभारी नहीं थे, पर इस दृश्य को देखकर यह समझना मुश्किल नहीं था कि उन भारतीय छात्रों को यह स्वागत अनावश्यक और शायद दिखावटी लग रहा था. सवाल एक अनावश्यक आयोजन का नहीं है, सवाल उस व्यक्ति-पूजा की प्रवृत्ति का है जो हमारी राजनीति की एक पहचान बनती जा रही है.
This happening in an IAF aircraft is JUST NOT ON.@IAF_MCC@DefenceMinIndia@rajnathsinghpic.twitter.com/GFOifcwJll
— Manmohan Bahadur (@BahadurManmohan) March 3, 2022
वैसे यह प्रवृत्ति किसी न किसी रूप में हर देश और हर समाज में उपस्थित है, पर लगने लगा है कि हम कुछ ज्यादा ही पुजारी बनते जा रहे हैं.
व्यक्ति-पूजा की यह परंपरा हमारे देश में नई नहीं है. स्वतंत्र भारत के इतिहास में भी नेताओं के नायक बनने और बनाने के ढेरों उदाहरण मिल जाते हैं. देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को भी इस दृष्टि से देखने वालों की कमी नहीं थी. लेकिन जनतांत्रिक मूल्यों में विश्वास करने वाले नेहरू ने आजादी से बहुत पहले ही इसके खतरे को भांप लिया था.
तब उन्होंने चाणक्य के छद्मनाम से एक लेख लिखकर देश की जनता को आगाह किया था कि वह व्यक्ति-पूजा की इस प्रवृत्ति से सावधान रहे. अति प्रशंसा नेता को गलतफहमियां दे सकती है और उसमें तानाशाह बनने की भावना जगा सकती है. यह स्थिति निश्चित रूप से जनतंत्र के लिए एक खतरे की घंटी है. खतरा सिर्फ किसी नेता के तानाशाह बन जाने का ही नहीं है, जनता में तानाशाही के एक स्वीकार भाव के पनपने का भी है.
इंदिरा गांधी के शासन-काल में भी तब यह स्थिति पैदा हो गई थी, जब एक कांग्रेस-अध्यक्ष ने ‘इंडिया इज इंदिरा’ का नारा लगाया था. किसी भी व्यक्ति की तुलना देश से करना देशद्रोह से कम नहीं माना जाना चाहिए. व्यक्ति कितना भी बड़ा हो, नेता कितना भी महान क्यों न हो, वह देश से बड़ा और देश से महान नहीं हो सकता.
शेक्सपियर ने कहा था, ‘कुछ लोग महान पैदा होते हैं, कुछ महानता अर्जित करते हैं, और कुछ पर महानता थोप दी जाती है.’ खतरा उनसे नहीं है जो महान पैदा होते हैं या महानता अर्जित करते हैं. वैसे यह कथन भी कम विवादास्पद नहीं है कि कुछ महान पैदा होते हैं.
सच तो यह है कि महानता अर्जित करना ही व्यक्ति को महान बनाता है और महानता अर्जित करने वाले महान कहलाने की चिंता नहीं करते. हां, यह चिंता उन्हें अवश्य होती है जिन पर महानता थोप दी जाती है. ऐसे कथित नायक न तो इतिहास बनाते हैं और न ही इतिहास बनते हैं. हां, जय-जयकार सुन कर ऐसे नायकों को अपनी महानता की गलतफहमी अवश्य हो सकती है.
खतरा इस गलतफहमी से भी है और ऐसी गलतफहमी पैदा करने वालों से भी. हमारे संविधान के प्रमुख शिल्पी डॉ. बाबासाहब आंबेडकर ने संविधान-सभा में दिए गए अपने आखिरी भाषण में इन खतरों को रेखांकित करते हुए कहा था कि यह व्यक्ति-पूजा जब भक्ति बन जाती है तो खतरा और बढ़ जाता है. उनके शब्द हैं, ‘भक्ति या व्यक्ति-पूजा अवनति की पक्की सड़क है जो अंतत: तानाशाही तक पहुंचाती है.’
वस्तुत: यह चेतावनी थी जो हमारे संविधान की प्रारूप समिति के अध्यक्ष ने देश के नेताओं और देश की जनता, दोनों को दी थी.
आजादी का पचहत्तरवां साल मना रहे हैं हम. इस साल को, और आने वाले पच्चीस सालों को आजादी का अमृत-काल कहा गया है. मैं नहीं जानता इस अमृत-काल का क्या मतलब है, पर इतना हम सबको जानना जरूरी है कि अमृत-मंथन के समय पहले विष ही हाथ आया था. इस विष को आत्मसात करने के लिए भगवान शिव को ‘नीलकंठ’ बनना पड़ा था. अर्थात् विष के खतरे से मुठभेड़ के बिना अमृत नहीं पाया जा सकता.
व्यक्ति-पूजा, जिसे बाबासाहब ने ‘भक्ति’ कहा था, जनतंत्र की मर्यादाओं के संदर्भ में एक विष ही है. इस विष से बचना होगा.