विश्वनाथ सचदेव का ब्लॉग: लोकतंत्र की प्रतिष्ठा को दांव पर न लगाएं

By लोकमत समाचार ब्यूरो | Published: November 27, 2019 07:06 AM2019-11-27T07:06:11+5:302019-11-27T07:06:11+5:30

जो कुछ महाराष्ट्र में हुआ है वह सिर्फ नेताओं की प्रतिष्ठा से ही नहीं जुड़ा है, दांव पर जनतंत्न की प्रतिष्ठा लगी है;

Vishwanath Sachdev Blog: Do not put Democracy reputation at stake | विश्वनाथ सचदेव का ब्लॉग: लोकतंत्र की प्रतिष्ठा को दांव पर न लगाएं

विश्वनाथ सचदेव का ब्लॉग: लोकतंत्र की प्रतिष्ठा को दांव पर न लगाएं

नहीं, वह खबर अखबारों के पहले पन्ने पर नहीं छपी थी. पहला पन्ना तो महाराष्ट्र में चल रहे राजनीतिक सर्कस से भरा हुआ था. पर इस सारे ‘शर्मनाक तमाशे’ के बीच अखबार के भीतरी पन्नों में महाराष्ट्र के ठाणो जिले के एक मतदाता द्वारा उच्च न्यायालय में दायर किए गए मामले का समाचार भी था. 

इस मतदाता ने न्यायालय से मांग की है कि राज्य के मतदाताओं के साथ न्याय किया जाए. याचिका दायर करने वाले नागरिक की चिंता यह है कि कुर्सी के किस्से में मतदाता के साथ धोखा किया जा रहा है और उसने मांग की है कि मतदाता के साथ धोखा करने वाले राजनीतिक दलों के खिलाफ कार्रवाई होनी चाहिए. 

महाराष्ट्र में चल रहे विवाद का परिणाम कुछ भी निकले, इस समूचे प्रकरण में महाराष्ट्र का मतदाता ठगा गया है. उसने चुनाव-पूर्व हुए दो दलों के राजनीतिक समझौते के अनुसार बने गठबंधन के पक्ष में वोट दिया था. निर्णायक बहुमत मिला था इस गठबंधन को. फिर सरकार क्यों नहीं बनी इन दो दलों की? और यह पूछने का भी मतदाता को अधिकार है कि रात के अंधेरे में ‘जनतांत्रिक सरकार’ बनाने की क्या विवशता थी? 

कुर्सी का यह किस्सा सिर्फ महाराष्ट्र का ही नहीं है. पिछले पचास-साठ वर्षो में देश के अलग-अलग राज्यों में इस तरह के राजनीतिक तमाशे (पढ़िए अपराध) होते रहे हैं. सत्ता की इस लड़ाई में नीतियां, सिद्धांत, विचारधाराएं, दिखावे के उजले पहनावे तक ही सीमित रहती हैं. फिर जो कुछ होता है वह सिर्फ राजनीतिक नफे-नुकसान की काली कहानी भर है. सरकारें तो बन जाती हैं, पर उनकी नींव में नैतिक अधिकार जैसा कोई सीमेंट नहीं होता. त्नासदी तो यह है कि हमारी समूची राजनीति में नैतिकता के लिए जैसे कोई जगह ही नहीं बची. सत्ता की भूख तक सिमटी इस राजनीति का खेल सिर्फ नफे-नुकसान का है. 

आए दिन सुनाई देने वाले दल-बदल के किस्से राजनीतिक गणित और सत्ता के समीकरणों की ही कहानी सुनाते हैं. सच तो यह है कि अनैतिक समीकरण हमारी राजनीति का स्थायी भाव बनते जा रहे हैं. मान लिया गया है कि राजनीति ऐसी ही होती है, ऐसे ही की जाती है. जनता के हितों की रक्षा के नाम पर सत्ता पाने और भोगने का खेल खुलेआम खेला जाता है. नारा सब ‘सत्यमेव जयते’ का लगाते हैं, पर जीत हमेशा झूठ की ही होती दिखती है.
 
सवाल उठता है कि राजनीति के इन बनते-बिगड़ते समीकरणों में वह मतदाता कहां है जिसके नाम पर सेवा का ढोंग रचा जाता है. महाराष्ट्र का किस्सा सबसे ताजा है इसलिए इसी को उदाहरण मानकर बात शुरू की जा सकती है. इस चुनाव से पहले हुए राजनीतिक समझौते में दो स्पष्ट पक्ष बने थे- एक भाजपा और शिवसेना का गठबंधन और दूसरा कांग्रेस और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी का. बाकी छोटे-मोटे दल इन दो गठबंधनों का हिस्सा बने, या उन्होंने पृथक चुनाव लड़ा. 

अक्सर ऐसे गठबंधनों में सिद्धांतों या नीतियों का आधार नहीं होता, पर संयोग से ही कहना चाहिए, महाराष्ट्र में इन दो प्रमुख गठबंधनों में एक सीमा तक विचार-साम्य भी देखा जा सकता है. मतदाता ने भी जब वोट दिया होगा तो उसके पीछे इस ‘साम्य’ का हाथ हो सकता है. भाजपा-शिवसेना को क्रमश: 105 और 56 सीटें मिलीं. यानी स्पष्ट बहुमत मिला. कहना चाहिए मतदाता ने स्पष्ट बहुमत दिया. 

पर सरकार बनाने के लिए समझौता हुआ भाजपा और अजित पवार के बीच. अजित पवार राकांपा के नेता थे. आधार क्या था इस समझौते का? सिर्फ सत्ता का स्वार्थ. यह आश्चर्य की बात होनी चाहिए, पर वस्तुत: यह शर्म की बात है. ऐसी ही कुछ शर्म शिवसेना और कांग्रेस को भी आनी चाहिए. शिवसेना संविधान की शपथ तो लेती है, पर संविधान में वर्णित पंथ निरपेक्षता उसे स्वीकार नहीं. 

पर पंथ निरपेक्षता का अपना आधार बनाने वाली कांग्रेस उसे स्वीकार है. राकांपा के बनने का तो कोई सैद्धांतिक आधार था ही नहीं, तो फिर शिवसेना ने इन दोनों दलों का दामन क्यों थामा? उत्तर वही है जो भाजपा से जुड़े सवाल का है- सत्ता की भूख. कांग्रेस भाजपा को सत्ता से दूर रखने की दुहाई देती है और शिवसेना के नेता ने अपने पिता को शिवसेना का मुख्यमंत्नी बनाने का वचन दिया था. सवाल उठता है, इस सारी प्रक्रि या में मतदाता कहां है? 

यही सवाल उस मतदाता ने अदालत से पूछा है. वह खुद को ठगा महसूस कर रहा है. राजनेताओं ने, और राजनीतिक दलों ने मतदाता का अधिकार सिर्फ वोट देने का ही माना है. मान लिया गया है कि समय पर चुनाव होना और मतदाता का वोट देना मात्न ही जनतंत्न की सफलता का प्रमाण है. महत्व है चुनाव होने और मतदान करने का, पर वह नागरिक कहीं अधिक महत्वपूर्ण है जो जनतंत्न का आधार भी है, और जिसके लिए जनतंत्न जरूरी बताया जाता है. 

महाराष्ट्र जैसी स्थितियां देश के कई अन्य राज्यों में बनती-बिगड़ती रही हैं. कुछ ही अर्सा पहले हमने पड़ोसी राज्य गोवा और कर्नाटक में, और राजधानी के निकट के हरियाणा में राजनीति का ऐसा ही घटिया खेल देखा है. सिद्धांतहीन और सिर्फ सत्ता-सुख के लिए की जाने वाली राजनीति जनतंत्न का अपमान ही नहीं है, जनतंत्न की हत्या है यह. यह अपराध रुकना चाहिए. 

अंतत: मतदाता की जागरूकता ही जनतंत्न की रक्षा कर सकती है. जो कुछ महाराष्ट्र में हुआ है वह सिर्फ नेताओं की प्रतिष्ठा से ही नहीं जुड़ा है, दांव पर जनतंत्न की प्रतिष्ठा लगी है; जनतंत्न के आधार पर मतदाता की प्रतिष्ठा दांव पर है उसे ही जागरूक होना होगा- जनतंत्न -विरोधी नीतियों और नेताओं को नकारना होगा.

Web Title: Vishwanath Sachdev Blog: Do not put Democracy reputation at stake

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