विजय कुमार जैन का ब्लॉग: अक्षय तृतीया से ही हुई थी दान देने की परंपरा की शुरुआत
By लोकमत समाचार ब्यूरो | Published: April 26, 2020 07:36 AM2020-04-26T07:36:04+5:302020-04-26T07:36:04+5:30
अक्षय तृतीया का प्राचीन इतिहास हस्तिनापुर तीर्थ से ही प्रारंभ हुआ है. वैशाख सुदी तीज को अक्षय तृतीय के नाम से जाना जाता है. अक्षय का अर्थ है जिस वस्तु का कभी क्षय न हो अर्थात वस्तु समाप्त न हो. वह महीना वैशाख का था और तिथि तृतीया थी. इसलिए इसका नाम अक्षय तृतीया पड़ा.
जैन धर्म के प्रथम र्तीथकर भगवान ऋषभदेव से जुड़ा है अक्षय तृतीया पर्व का इतिहास. भगवान ऋषभदेव ने अयोध्या में जन्म लिया एवं प्रयाग (इलाहाबाद) की धरती पर जैनेश्वरी दीक्षा धारण की, जो इस युग की प्रथम दीक्षा थी, क्योंकि भगवान ऋषभदेव वर्तमान चौबीसी के प्रथम र्तीथकर हैं.
दीक्षा धारण करते ही वे ध्यान लगाकर बैठ गए. राजा ऋषभदेव के साथ में चार हजार राजाओं ने भी दीक्षा ग्रहण की थी. छह माह के निरंतर तपश्चरण के बाद मुनिराज ऋषभदेव ने आहारचर्या के लिए नगर की ओर प्रस्थान किया. लेकिन जैन साधुओं को किस प्रकार आहार कराया जाता है लोगों को इस विधि का ज्ञान ही नहीं था.
महायोगी ऋषभदेव जिस ओर कदम रखते थे वहीं के लोग प्रसन्न होकर बड़े आदर के साथ उन्हें प्रणाम करते थे और कहते थे कि भगवान प्रसन्न हो जाइए, कहिए क्या काम है. कितने ही लोग भगवान के पीछे-पीछे चलने लगते थे, अन्य कितने ही लोग बहुमूल्य रत्न लाकर भगवान के सामने रखकर कहते थे कि हे देव इन रत्नों को ग्रहण कर लीजिए और हमें कृतार्थ कीजिए. लेकिन जिसे आत्मज्ञान का चिंतामणि मिल गया हो उसके लिए संसार की प्रत्येक वस्तु तुच्छ और धूल के समान है.
मुनि भगवंत इसे अपनी चर्या में विघ्न मानकर आगे बढ़ जाते थे. लोग निराश होकर प्रभु की ओर देखते रह जाते थे और सोचते थे कि किस प्रकार भगवान को उनकी महचाही वस्तु देकर हम कृतार्थ हो सकें. इस प्रकार से भगवान को छह माह व्यतीत हो गए. कुल मिलाकर एक वर्ष पूर्ण हो गया और महामुनि हस्तिनापुर नगर के समीप पहुंचे.
अक्षय तृतीया का प्राचीन इतिहास हस्तिनापुर तीर्थ से ही प्रारंभ हुआ है. वैशाख सुदी तीज को अक्षय तृतीय के नाम से जाना जाता है. अक्षय का अर्थ है जिस वस्तु का कभी क्षय न हो अर्थात वस्तु समाप्त न हो. वह महीना वैशाख का था और तिथि तृतीया थी. इसलिए इसका नाम अक्षय तृतीया पड़ा.
हस्तिनापुर नगरी के शासक राजा सोमप्रभ और उनके भाई श्रेयांस कुमार थे. उन्होंने सुना कि र्तीथकर ऋषभदेव हस्तिनापुर में प्रवेश कर चुके हैं और चारों ओर भारी जन समुदाय एकत्न होकर भगवान के दर्शन कर रहा है. राजा सोमप्रभ और श्रेयांस महल के बाहर आ गए और प्रभु के चरणों में नम्रता पूर्वक नमस्कार किया.
इतने में ही राजकुमार श्रेयांस को पूर्वभव का जाति स्मरण हो गया और आहार दान की सारी विधि स्मरण में आ गई. राजा श्रेयांस ने प्रथम आहार दान दिया क्योंकि इस युग के प्रथम र्तीथकर भगवान ऋषभदेव थे. इससे पूर्व दान देने की प्रथा इस धरती पर नहीं थी इसका शुभांरभ राजा श्रेयांस के द्वारा ही हुआ. तो यह दानवीर भूमि भी कहलाई.