विजय दर्डा का ब्लॉग: राजनीति ने दल-बदल कानून में सुराख कर दिया

By विजय दर्डा | Updated: March 16, 2020 07:16 IST2020-03-16T07:16:13+5:302020-03-16T07:16:13+5:30

अब आम आदमी के मन में यह सवाल पैदा होना स्वाभाविक है कि ऐसी स्थिति में दल-बदल विरोधी कानून की भूमिका क्या है? सच कहें तो मौजूदा स्थिति में इस कानून की कोई भूमिका नहीं है.

Vijay Darda's blog: Politics has blossomed into anti defection law | विजय दर्डा का ब्लॉग: राजनीति ने दल-बदल कानून में सुराख कर दिया

दल-बदल कानून (फाइल फोटो)

प सबको मालूम है कि मध्य प्रदेश में क्या राजनीतिक उठापटक चल रही है. कांग्रेस के बड़े नेता ज्योतिरादित्य सिंधिया कांग्रेस छोड़ कर भारतीय जनता पार्टी का दामन थाम चुके हैं. उनके 22 समर्थक विधायकों ने इस्तीफा दे दिया है. जब सरकार बनी थी तो कांग्रेस के पास खुद के 114 विधायक थे. इसके अलावा 4 निर्दलीय, बसपा के 2 तथा सपा के 1 विधायक ने भी समर्थन दिया था. केवल 107 विधायक होने के कारण भाजपा सरकार नहीं बना पाई थी लेकिन अब सिंधिया समर्थक 22 विधायकों के इस्तीफे के बाद कांग्रेस के पास खुद के केवल 92 विधायक ही बचे हैं. यानी आज नहीं तो कल सरकार का गिरना निश्चित लग रहा है.

अब आम आदमी के मन में यह सवाल पैदा होना स्वाभाविक है कि ऐसी स्थिति में दल-बदल विरोधी कानून की भूमिका क्या है? सच कहें तो मौजूदा स्थिति में इस कानून की कोई भूमिका नहीं है. राजनीति ने बड़ी चालाकी से दल-बदल विरोधी कानून को अप्रासंगिक बना दिया है. नियम यह है कि यदि दो-तिहाई से कम सदस्य विद्रोह करते हैं तो सदन से उनकी सदस्यता समाप्त हो जाती है. यहां तो 22 विधायकों ने खुद ही इस्तीफा दे दिया है इसलिए दल-बदल विरोधी कानून का कोई लफड़ा बचा ही नहीं है.

पिछले साल कर्नाटक में भी इसी तरह की राजनीति हुई थी. वहां 17 विधायकों ने इस्तीफा दे दिया था और कांग्रेस-जेडीएस की सरकार संकट में आ गई थी. तब कर्नाटक विधानसभा अध्यक्ष ने 14 विधायकों को अयोग्य ठहरा दिया था. तीन को पहले ही अयोग्य ठहराया जा चुका था.

इस तरह कर्नाटक विधानसभा में सदस्यों की संख्या 225 से घटकर 208 हो गई थी और बहुमत का आंकड़ा 105 हो गया था. मामला सुप्रीम कोर्ट में गया जहां विधायकों का कहना था कि उन्होंने इस्तीफा दिया है तो उन्हें अयोग्य कैसे ठहराया जा सकता है? लेकिन कोर्ट ने कहा कि इस्तीफे का मतलब यह नहीं है कि आपको अयोग्य नहीं ठहराया जा सकता. लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने ये भी कहा कि स्पीकर को ये अधिकार नहीं है कि वो सदन की बची हुई अवधि तक बागी विधायकों की सदस्यता निरस्त कर दे.

इसका मतलब यह है कि बागी विधायकों को विधानसभा के बचे हुए कार्यकाल तक चुनाव लड़ने से नहीं रोका जा सकता. बाद में जब चुनाव हुए तो बागी विधायकों में से कई भाजपा के टिकट पर चुने गए. मध्यप्रदेश में भी ऐसा ही होना लगभग तय लग रहा है.

जाहिर सी बात है कि 1985 में बना दल-बदल विरोधी कानून आज के दौर में किसी काम का नहीं रह गया है. पहले गोवा, मणिपुर, झारखंड जैसे राज्यों में विधायकों की कम संख्या के कारण सीधे तौर पर दल-बदल कानून की धज्जियां उड़ रही थीं और अब बड़े राज्यों में दूसरे तरीके से धज्जियां उड़ाई जा रही हैं.

यह कहने में कोई संकोच नहीं होना चाहिए कि राजनीतिक दलों ने दल-बदल कानून की पेंदी में इतना बड़ा छेद कर दिया है कि उसकी मरम्मत भी संभव नहीं है. इसका सीधा असर भारतीय निर्वाचन व्यवस्था पर पड़ रहा है. जनता अपनी चाहत के अनुसार सरकार बनाने के लिए वोट करती है और चुनाव के बाद पता चलता है कि सरकार किसी और की बन गई.

इसका ताजा उदाहरण हमने महाराष्ट्र में देखा है. जनता ने भाजपा और शिवसेना के गठबंधन को चुना लेकिन शिवसेना ने सरकार बनाई राकांपा और कांग्रेस के साथ. यह स्थिति ठीक नहीं है. इससे राजनीति की विश्वसनीयता समाप्त हो रही है.

यहां इस बात पर विचार भी जरूरी है कि ऐसा होता क्यों है. दरअसल दुनिया भर में सत्ता के जितने इज्म (वाद) हैं उनमें लोकतंत्र सबसे बेहतर है, लेकिन इसमें भी खामियों के रास्ते तो हैं ही. स्वार्थ साधने वाले जुगत निकाल ही लेते हैं. जिस नेता को जो अपने सुकून के लायक लगता है वह उसी राह चल देता है और इसे नाम देता है लोकतंत्र का. यह हमेशा होता रहा है और अभी भी हो रहा है.

ज्योतिरादित्य सिंधिया तो राहुल गांधी के कंधे से कंधा मिलाकर चलने का दावा करते थे, लेकिन अब उठकर भाजपा में चले गए. कांग्रेस ने जिन्हें बड़े-बड़े ओहदे दिए वो भाजपा में गए और कई भाजपाई कांग्रेस में चले गए. जाहिर सी बात है कि यह सब नीतियों के कारण नहीं हुआ, उन लोगों ने वही किया जो उन्हें अपने अनुकूल लगा.

अब इनमें कौन सही है और कौन गलत है यह कहना मुश्किल है. मुङो तो लगता है जगा हुआ व्यक्ति अगर सोने का ढोंग कर रहा हो तो उसे ‘जगाना’ मुश्किल होता है. राजनीति में हालात इन दिनों ऐसे ही हैं.

प्रसंगवश मैं आपको बताना चाहता हूूं कि भारतीय राजनीति में 1967 से 1985 के बीच दल-बदल को लेकर ‘आया राम गया राम’ की कहावत बहुत मशहूर थी. 1967 में गया लाल नाम के एक सज्जन हरियाणा के हसनपुर विधानसभा क्षेत्र से कांग्रेस के विधायक चुने गए. बाद में एक ही दिन में उन्होंने तीन बार पार्टी बदली.

कांग्रेस छोड़कर जनता पार्टी का दामन थाम लिया. फिर थोड़ी देर में कांग्रेस में वापस आ गए. 9 घंटे बाद फिर जनता पार्टी में चले गए. बाद में वे फिर कांग्रेस में आ गए थे. उसके बाद राजनीति में दल-बदल का प्रचलन बढ़ता
चला गया.

1985 में राजीव गांधी जब पूर्ण बहुमत के साथ सत्ता में आए तो उन्होंने भारतीय राजनीति की इस कालिख को साफ करने के लिए दल-बदल विरोधी कानून बनाया. संविधान में 10वीं अनुसूची जोड़ी गई. ये संविधान में 52वां संशोधन था. उम्मीद थी कि दल-बदल समाप्त हो जाएगा लेकिन राजनीति ने इस कानून को बेअसर करने के लिए भी रास्ता ढूंढ़ लिया.

अब सवाल पैदा होता है कि इससे कैसे निपटा जाए. मुङो लगता है कि नए सिरे से एक कानून बनाने की जरूरत है. यह व्यवस्था की जानी चाहिए कि जो भी व्यक्ति दल-बदल करे या किसी राजनीतिक हरकत के तहत इस्तीफा दे, उसे पांच साल के लिए चुनाव लड़ने से वंचित कर देना चाहिए. जब तक हम इस तरह की कोई ठोस व्यवस्था नहीं करेंगे तब तक राजनीतिक पैंतरेबाजी और सत्ता हथियाने के खेल को नहीं रोका जा सकता है. राजनीतिक दलों को ऐसी पैंतरेबाजी रोकनी ही होगी.

Web Title: Vijay Darda's blog: Politics has blossomed into anti defection law

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