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विजय दर्डा का ब्लॉग: धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र में आखिर ये क्या हो रहा है?

By विजय दर्डा | Updated: June 24, 2019 13:15 IST

मैं अठारह वर्षों तक संसदीय राजनीति का हिस्सा रहा हूं. संसद की कार्यवाहियों में सक्रियता से हिस्सा लिया है. इन वर्षों में मैंने देखा है कि यदि कोई सदस्य कुछ गलत बोल भी जाए तो वरिष्ठ सदस्य उसे टोक देते थे. मैं आपको एक उदाहरण देता हूं...

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ठळक मुद्दे17वीं लोकसभा में सांसदों के शपथ ग्रहण समारोह में जिस तरह से धार्मिक नारे लगे वह पूरे देश के लिए गंभीर चिंता का विषय है.सभी ने संसद की गरिमा को गंभीर रूप से ठेस पहुंचाई. क्या हमें संसद में अब ऐसे ही दृश्य देखने को मिलेंगे?यह संभव है क्योंकि 17वीं लोकसभा के लिए निर्वाचन पूरी तरह से हिंदू और मुस्लिम पर आधारित हो गया था. 

संसदीय लोकतंत्र की अपनी गरिमा होती है और किसी को भी इस गरिमा के साथ छेड़छाड़ या उसे ठेस पहुंचाने की इजाजत नहीं दी जा सकती है. राजनीति की दिशा कुछ भी हो, संसद की गरिमा को बनाए रखना राजनीतिक दलों और सांसदों का सामूहिक दायित्व बनता है. जाहिर सी बात है, 17वीं लोकसभा में सांसदों के शपथ ग्रहण समारोह में जिस तरह से धार्मिक नारे लगे वह पूरे देश के लिए गंभीर चिंता का विषय है. 

संसद को राजनीतिक अखाड़ा तो बना ही दिया है, अब क्या धार्मिक अखाड़ा भी बना देंगे?  सवाल है कि एआईएमआईएम के सांसद असदुद्दीन ओवैसी और तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) के निर्वाचित सांसद जब शपथ लेने गए तो भाजपा के कुछ सांसदों ने ‘जय श्रीराम’ का नारा क्यों लगाया? क्या यह सोची-समझी चाल थी? चलिए यह मान लेते हैं कि चाल नहीं भी थी तो इतना तो स्पष्ट है कि ऐसा ममता बनर्जी के प्रतिनिधियों और ओवैसी को चिढ़ाने के लिए किया गया!

ममता इस बात से चिढ़ती हैं कि एक धार्मिक नारे का राजनीतिक इस्तेमाल किया जा रहा है. उनके प्रतिनिधियों ने जय काली मां के नारे लगाए और ओवैसी ने अल्लाह हू अकबर का नारा लगाया! कहा जा सकता है कि उन्होंने जवाबी हमला किया. लेकिन मेरा मानना है कि सभी ने ही गलत किया. सभी ने संसद की गरिमा को गंभीर रूप से ठेस पहुंचाई. क्या हमें संसद में अब ऐसे ही दृश्य देखने को मिलेंगे? यह संभव है क्योंकि 17वीं लोकसभा के लिए निर्वाचन पूरी तरह से हिंदू और मुस्लिम पर आधारित हो गया था. 

ध्रुवीकरण की आंधी इतनी तेज थी कि उसने जातिगत राजनीति को भी उड़ा दिया! जब निर्वाचन का आधार ही धार्मिक बन गया हो तो ऐसे लोग संसद में क्यों न धार्मिक इजहार करें. दरअसल संसद में जो कुछ भी दिखा है वह देश का आइना है. 

मैं अठारह वर्षों तक संसदीय राजनीति का हिस्सा रहा हूं. संसद की कार्यवाहियों में सक्रियता से हिस्सा लिया है. इन वर्षों में मैंने देखा है कि यदि कोई सदस्य कुछ गलत बोल भी जाए तो वरिष्ठ सदस्य उसे टोक देते थे. मैं आपको एक उदाहरण देता हूं. 

सदन में तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी बोल रहे थे. इस दौरान उन्होंने कुछ गलत रेफरेंस दे दिया. तत्काल प्रणब मुखर्जी ने उन्हें रोका और कहा कि यह रेफरेंस गलत है. अटलजी ने कहा कि मैं इस विषय पर अब कल बोलूंगा. कांग्रेस के सदस्यों ने सोनिया गांधी से शिकायत की कि प्रधानमंत्री को जलील करने का यह अच्छा अवसर था उन्हें बोलने देना चाहिए था. मगर सोनियाजी ने प्रणब दा की तारीफ की और कहा कि प्रधानमंत्री देश का होता है, वह कुछ गलत संदर्भ दे दे तो दुनिया में देश की बदनामी होगी! तो संसद में पहले इस तरह का वातावरण होता था! ऐसा ही होना भी चाहिए. 

अभी सांसद जब नारा लगा रहे थे तो संसदीय कार्यमंत्री को उन्हें समझाना चाहिए था. आपको याद होगा कि मौजूदा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जब पहली बार संसद पहुंचे थे तो उन्होंने संसद की देहरी को चूमा था, शीश नवाया था. संसद की गरिमा के प्रति वह सजग राजनेता हैं. मुझे विश्वास है कि उन्होंने समझाया जरूर होगा! 

गंभीर चिंता की बात यह है कि इस घटना के बाद भी किसी ने माफी नहीं मांगी. न ‘जय श्रीराम’ का नारा लगाने वालों ने और न ही ‘अल्लाह हू अकबर’ कहने वालों ने! ..तो क्या माना जाए कि भारतीय लोकतंत्र को धर्मनिरपेक्ष बनाए रखने की चाहत दोनों में ही नहीं है? यदि ऐसा है तो फिर भारतीय लोकतंत्र खतरनाक दिशा में बढ़ता जाएगा! धर्म आधारित देशों की बुरी हालत हम देख रहे हैं. देश धर्म से नहीं बल्कि सकारात्मक राजनीति, वैज्ञानिक सोच और समर्पण से आगे बढ़ता है. 

सबको यह ध्यान रखना चाहिए कि संसद इस देश के आम आदमी की उम्मीदों का सबसे बड़ा ठिकाना है. उसे उम्मीद रहती है कि उसके चुने हुए प्रतिनिधि संसद में जाकर उसकी जिंदगी को खुशहाल बनाने के लिए काम करेंगे. संसद विभिन्न विषयों पर बहस के लिए है, सत्ता पक्ष की नीतियों का पोस्टमार्टम करने के लिए है ताकि सत्ता पक्ष निरंकुश न हो जाए. संसद वास्तव में देश को दिशा देने के लिए है.

मगर दुर्भाग्य देखिए कि वक्त के साथ संसद की गरिमा को लगातार ठेस पहुंच रही है. हत्या और बलात्कार के आरोपी तो संसद में पहुंच ही रहे हैं, 17वीं लोकसभा में तो प्रज्ञा के रूप में भाजपा ने एक ऐसा सदस्य संसद में पहुंचा दिया, जिस पर आतंकवाद का आरोप है और जिसने गांधीजी के बारे में आपत्तिजनक बातें कीं. उस पर भी संसद को विचार करना चाहिए!  

यह कहने में कोई हर्ज नहीं है कि हालात ठीक नहीं हैं. सभी दलों को सोचना होगा कि संसद की गरिमा को कैसे बहाल किया जाए. कैसे अपने लोकतंत्र को धर्मनिरपेक्ष रखा जाए. धर्मनिरपेक्षता हमारी सबसे बड़ी ताकत है. धार्मिक टूटन देश को बर्बाद कर देगी. यह संभलने का वक्त है! 

और अंत में.

जो देश चांद पर जाने की और अपना स्पेस सेंटर बनाने की बात कर रहा है, उसी देश के शहर मुजफ्फरपुर के सरकारी अस्पताल में चमकी यानी इंसेफेलाइटिस नाम की बीमारी से केवल दो सप्ताह के भीतर अच्छी चिकित्सा के अभाव में डेढ़ सौ बच्चों की मौत हो चुकी है. हिंदुस्तान के माथे पर कलंक हैं ये मौतें.

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