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विजय दर्डा का ब्लॉग: न वो शिकारा मिला...न वो भाईजान मिले!

By विजय दर्डा | Updated: February 21, 2022 14:48 IST

जम्मू-कश्मीर: हसीन वादियों में विश्वास और प्रेम का पैगाम पहुंचाना होगा, तभी कश्मीर फिर से स्वर्ग बन सकेगा। आज शिकारे उदास हैं, वातावरण में मायूसी भरी है, कैसे कहूं कि ये धरती का स्वर्ग है?

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पिछले सप्ताह मैंने कश्मीर की खूबसूरत वादियों में जैसे ही कदम रखा, पुरानी यादों का झोंका जेहन को तरबतर कर गया! मैं नया दौर देखने पहुंचा था और पुराना दौर मुझे कुरेदने लगा. चलिए, पहले वो पुरानी बातें...और फिर नए दौर की नई कहानी...! वो 2016 का फरवरी महीना था. मैं श्रीनगर एयरपोर्ट पर उतरा था. मुझे गुलमर्ग जाना था. रास्ते भर मैंने जो नजारा देखा, वो बड़ा भयावह था. 

पुलिस बल और सरकारी गाड़ियों पर पत्थर फेंके जा रहे थे. सोपोर और बारामुला के पास मैंने बड़े-बड़े होर्डिंग देखे जिन पर बनी गधे की तस्वीर पर अमेरिकी राष्ट्रपति का मुंह चिपका था. नकेल कसी थी और लोग उसे पीट रहे थे. वो यात्रा बहुत खौफनाक थी.

गुलमर्ग में हम शानदार खैबर होटल में रुके थे. बर्फ गिर रही थी और टीवी पर हम भारत-पाक क्रिकेट मैच का आनंद ले रहे थे. भारत जैसे ही जीता, मैंने जनरल मैनेजर से कहा कि सबको मिठाई खिलाइए. उसने आहिस्ते से मुझे समझाया कि ज्यादा जश्न मत मनाइए. पाकिस्तान की हार पर लोग उदास बैठे हैं. खाना तक नहीं खाया है. मैं बहुत अचरज में था...! 

कश्मीर की इसी धरती पर क्रिकेट के सबसे ज्यादा बल्ले बनते हैं. क्योंकि अखरोट और चीर के पेड़ यहां बहुत हैं. इन बल्लों से हमारे देश के खिलाड़ी रनों की बौछार करते हैं. इसी से गावस्कर भी खेले होंगे और सचिन भी लेकिन उस दौर में मैंने देखा कि कश्मीर के युवा बल्लों पर पाकिस्तानी खिलाड़ियों के फोटो चिपकाते थे. 

कश्मीर से मेरा याराना बड़ा पुराना है. मैं जब दसवीं क्लास में था तब पहली बार कश्मीर गया था. कच्चेपन की उस उम्र में ही कश्मीर को दिल दे बैठा. जब शादी हुई तो हनीमून मनाने के लिए हम और ज्योत्सना कश्मीर की उन्हीं वादियों में पहुंचे थे. कुछ साल पहले हमने दिवाली विशेषांक के लिए ‘हाईवे-7’ पर एक टूर के तहत साथियों को जायजा लेने के लिए भेजा था. 

उस वक्त हमारी टीम पर पत्थर भी फेंके गए थे लेकिन हमने बुरा नहीं माना क्योंकि बीच के 24 साल का जो वक्त बीता वह बहुत खराब था. जो बच्चा उस दौर में पैदा हुआ, उसने न स्कूल देखा, न खेल का मैदान देखा, न फुटबॉल खेला, न क्रिकेट का बल्ला पकड़ा...! न फोन देखा. सिर्फ कर्फ्यू देखा...चीखें और चिल्लाहट देखी...बंदूकों की गोलियों की आवाजें सुनीं. उस वक्त को मैं दोहराऊंगा नहीं कि वह कितना खौफनाक मंजर था. और रुबैया सईद को बचाने के लिए कितनी बड़ी कीमत दी थी हमने और आज उनकी बहन महबूबा मुफ्ती क्या कर रही हैं वहां पर...!

तो मैंने सोचा कि हिंदुस्तान में सल्तनत भी बदली है. 370 भी चला गया है. तो क्यों न एक बार फिर से कश्मीर चला जाए! पिछले सप्ताह मेरी चाहत मुझे कश्मीर खींच कर ले गई. श्रीनगर एयरपोर्ट पर सुरक्षा की तीन परते हैं. सीआईएसएफ और सीआरपीएफ की नजरों से कोई चूक संभव ही नहीं है.

इस बार मैं उन सभी जगहों पर जाना चाहता था जहां मैंने जिंदगी के सबसे हसीन पल बिताए थे. डल झील में मैं ढूंढ रहा था वो शिकारा जिसमें मैं पचास साल पहले ज्योत्सना के साथ बैठा था. मैं ढूंढ रहा था शिकारे वाले भाईजान को जिनके अल्फाज मैं आज भी नहीं भूल पाया- ‘जनाब पहले क्यों नहीं बताया? हम शिकारे को दुल्हन की तरह सजा देते और उसमें आपकी दुल्हन बैठती.’ न वो भाईजान मिले न वो शिकारा मिला! ... किनारे पर टूटा हुआ एक शिकारा पड़ा था... मैं सोच रहा था...कहीं वो शिकारा हमारा ही तो नहीं..! किससे पूछता?

वाकई तब डल लेक में इश्क की हवाएं चलती थीं. नए नवेले जोड़े सजेधजे शिकारे में मोहब्बत के गीत गाते थे....

काश्मीर की कली हूं मैं...मुझसे न रूठो बाबू जी.../ एक था गुल और एक थी बुलबुल...दोनों चमन में रहते थे...!

उस वक्त का जनजीवन खुशियों से भरा हुआ था...आसमां साफ था...तारे टिमटिमाते थे... हवाओं में केशर की खुशबू घुली थी. हवाओं के साथ झेलम हिलोरे भरती थीं. बिल्कुल लाल चौक पर जाकर खाना खाता था. कृष्णा के ढाबे पर राजमा चावल की वो लज्जत अभी भी भूला नहीं हूं. लेकिन पड़ोसी मुल्क ने जो आग लगाई, उसने पूरे जनजीवन को तहस-नहस कर दिया.

इस बार जब मैं डल लेक में घूम रहा तो वातावरण मायूसी से भरा हुआ महसूस हो रहा था. 22 वर्ग किमी की झील सिकुड़ी हुई लग रही थी. डल का मतलब होता है गहराई और करीब 6 मीटर की गहराई वाली डल लेक उदास लग रही थी. किनारे पर हर सौ गज बाद पुलिस नजर आ रही थी. हर ओर हथियारों के साथ सीआरपीएफ के जवान नजर आ रहे थे. बख्तरबंद गाड़ियां...नेताओं के पीछे जैमर लगी गाड़ियां. 

झील के बगल में बसा सेंटूर होटल भी दम तोड़ता नजर आया. चार चिनार मेरी पसंदीदा जगह रही है लेकिन मेरा दिल रो रहा था. चिनार के तीन पेड़ सूख चुके हैं. एक बचा है... कैसे कहूं चार चिनार...? शिकारा मायूस था. लग रहा था जैसे कि कश्मीर के दिल की तरह शिकारा भी टूट गया है.

अपनी इस यात्रा के दौरान मैं जिससे भी बात कर रहा था चाहे श्रीनगर में, चाहे पहलगाम में, टैक्सी वाले से, शिकारे वाले से...दुकान वालों से या फिर होटल के बंदों से...एक ही आवाज थी कि हम हिंदुस्तान के हैं, टूरिज्म जितना बढ़ेगा उसी से हमारी रोजी-रोटी बढ़ेगी. मैं उन्हें समझा रहा था कि एक देश, एक झंडा और एक कानून की आवश्यकता थी. इससे घुसपैठियों पर भी अंकुश लगेगा. आपका जनजीवन बदलेगा. कश्मीर फिर से स्वर्ग बनेगा....लेकिन वे तड़पकर कहते थे कि इसके लिए धारा 370 हटाने की क्या जरूरत थी? मैं वहां के लोगों की भावनाएं यहां इसलिए लिख रहा हूं क्योंकि जनभावना की भी अहम भूमिका होती है.

इस यात्रा के दौरान मैंने अपने मित्र और कश्मीर के बेहद सुलझे हुए राज्यपाल मनोज सिन्हा और हरदिल अजीज फारूख अब्दुल्ला साहब से भी बात की. मेरी यात्रा का ये महीना ऐसा था कि ट्यूलिप गार्डन में फूल नहीं खिले थे. सेब के बाग बिना फल और पत्ते के थे. केसर के बाग में रौनक नहीं थी. लेकिन पास में केसर की दुकानें थीं और केशर की खुशबू जेहन मे भर गई. मैंने कहवे का लुत्फ भी उठाया. मुझे जहांगीर की बातें याद हो आई

...गर फिरदौस बर रूये जमी अस्त/हमी अस्तो हमी अस्तो हमी अस्त’. (धरती पर अगर कहीं स्वर्ग है, तो यहीं है, यहीं है, यही हैं..)

लेकिन ये आज का सच नहीं है. कश्मीर को फिर से स्वर्ग बनाना है तो स्विट्जरलैंड की तरह संवारना होगा, युवाओं को काम देना होगा, चिनार के पेड़ों को नई जिंदगी देनी होगी, शिकारों का दिल संवारना होगा. लाल चौक पर बेझिझक जाकर तिरंगे को सलाम करते आना होगा...! और सबसे बड़ी बात कि कश्मीर की हसीन वादियों में हमें विश्वास और प्यार का पैगाम पहुंचाना होगा तभी कश्मीर फिर से बनेगा स्वर्ग! फिर हम कह सकेंगे...

धरती पर अगर कहीं स्वर्ग है, तो यहीं है, यहीं है, यही हैं...

टॅग्स :जम्मू कश्मीरसीआरपीएफमनोज सिन्हाफारूक अब्दुल्ला
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