वेदप्रताप वैदिक का ब्लॉगः न्याय सस्ता और सुलभ कैसे हो?
By वेद प्रताप वैदिक | Published: December 7, 2021 12:26 PM2021-12-07T12:26:53+5:302021-12-07T12:29:35+5:30
वर्तमान सरकार ने इन पदों को भरने में थोड़ी मुस्तैदी इधर जरूर दिखाई है लेकिन जरूरी यह है कि वह पत्तों पर पानी छिड़कने की बजाय जड़ों में लगे कीड़ों का इलाज करे। विधि आयोग का कहना है कि भारत में अभी लगभग 20 हजार जज हैं।
प्रसिद्ध ब्रिटिश विचारक जॉन स्टुअर्ट मिल ने लिखा था कि देर से किया गया न्याय तो अन्याय ही है। हमारे देश में आज भी अंग्रेजों की चलाई हुई न्याय-पद्धति ही चल रही है। आजादी के 75 वर्ष पूरे होने जा रहे हैं लेकिन भारत में एक भी शासक ऐसा नहीं हुआ, जो इसे बदलने की कोशिश करता। इसका परिणाम है कि आज भारत की अदालतों में लगभग पांच करोड़ मुकदमे लंबित पड़े हुए हैं।
जो न्याय कुछ ही दिनों में मिल जाना चाहिए, उसे मिलने में तीस-तीस और चालीस-चालीस साल लग जाते हैं। कई मामलों में तो जज, वकील और मुकदमेबाज- सभी का निधन भी हो जाता है। कई लोग बरसों-बरस जेल में सड़ते रहते हैं और जब उनका फैसला आता है तो मालूम पड़ता है कि वे निर्दोष थे। ऐसा क्यों होता है? ऐसा इसलिए भी होता है कि बेचारे जज क्या करें? एक ही दिन में वे कितने मुकदमे सुनें? देश की अदालतों में अभी साढ़े पांच हजार पद खाली पड़े हैं। 400 से ज्यादा पद तो उच्च और सर्वोच्च न्यायालयों में ही खाली हैं।
वर्तमान सरकार ने इन पदों को भरने में थोड़ी मुस्तैदी इधर जरूर दिखाई है लेकिन जरूरी यह है कि वह पत्तों पर पानी छिड़कने की बजाय जड़ों में लगे कीड़ों का इलाज करे। विधि आयोग का कहना है कि भारत में अभी लगभग 20 हजार जज हैं। उनकी संख्या दो लाख होनी चाहिए। इतने जजों की जरूरत ही नहीं होगी, यदि विधि आयोग की समझ ठीक हो जाए तो। यदि भारत की अदालतें भारतीय भाषाओं में बहस और फैसले करने लगें तो फैसले भी जल्दी-जल्दी होंगे और 20-30 हजार जज ही भारत के लिए काफी होंगे। भारत में 18 लाख वकील हैं। वे कम नहीं पड़ेंगे।
यदि अदालतों में भारतीय भाषाएं चलेंगी तो मुवक्किलों को बहस और फैसले समझना भी आसान होगा। लेकिन यह क्रांतिकारी परिवर्तन करने की हिम्मत कौन कर सकता है? वही नेता कर सकता है, जिसके पास भारत को महाशक्ति बनाने की दृष्टि हो। लेकिन हमारे ज्यादातर नेता तो नौकरशाहों के इशारे पर चलते हैं। यह गुलामी गुप्त और अदृश्य होती है। जनता को यह आसानी से पता नहीं चलती। नेताओं को भी यह स्वाभाविक ही लगती है। यदि उन्हें भी इसकी समझ हो जाती तो क्या भारत की संसद अब भी अपने मूल कानून अंग्रेजी में बनाती रहती? जो देश अंग्रेजों के गुलाम नहीं रहे, यदि आप उन पर नजर डालें तो आप पाएंगे कि वे अपने कानून अपनी भाषा में ही बनाते हैं। इसीलिए उनकी जनता को मिलनेवाला न्याय सस्ता, सुलभ और त्वरित होता है। पता नहीं, भारत में वह दिन कब आएगा?