वेदप्रताप वैदिक का ब्लॉग: तालिबान समझौता, हम क्या करें?
By वेद प्रताप वैदिक | Published: March 2, 2020 06:33 AM2020-03-02T06:33:23+5:302020-03-02T06:33:23+5:30
डोनाल्ड ट्रम्प ने राष्ट्रपति बनते वक्त वादा किया था कि वे अमेरिकी फौजों को अफगानिस्तान से हर हाल में वापस बुला लेंगे. यह समझौता सफल हो जाए, तभी उसको सफल मानना चाहिए.
कतर की राजधानी दोहा में अमेरिका और तालिबान के बीच जो समझौता हुआ है, यदि वह लागू हो सका तो दक्षिण एशिया में शांति के नए युग की शुरुआत होगी. अफगानिस्तान में 1973 में जाहिरशाह के तख्ता-पलट के बाद से आज तक इतनी अस्थिरता बनी रही है कि उसके कारण पाकिस्तान, भारत और ईरान तो परेशान रहे ही हैं, आतंकवाद ने अमेरिका को भी दहला दिया था. अफगानिस्तान से तालिबान की सत्ता खत्म की 2002 में अमेरिकी और नाटो फौजों ने लेकिन पिछले 18 साल में वे अफगानिस्तान पर काबू नहीं कर पाए. अमेरिका ने वहां अपने 3500 सिपाही खो दिए और अरबों-खरबों डॉलर भी गंवा दिए.
डोनाल्ड ट्रम्प ने राष्ट्रपति बनते वक्त वादा किया था कि वे अमेरिकी फौजों को अफगानिस्तान से हर हाल में वापस बुला लेंगे. यह समझौता सफल हो जाए, तभी उसको सफल मानना चाहिए. पहली बात तो यह कि अभी काबुल सरकार और तालिबान के बीच समझौता होना बाकी है. यदि दोनों के बीच टकराव जारी रहता है तो अमेरिका के साथ हुआ समझौता बेकार हो जाएगा. अभी तो यही नहीं पता कि काबुल में किसकी सरकार है- अशरफ गनी की या डॉ. अब्दुल्ला की? दोनों के बीच तलवारें खिंची हुई हैं.
मान लें कि अमेरिकी दबाव में ये दोनों नेता अपना झगड़ा सुलझा लें तो भी क्या गारंटी कि वे तालिबान से समझौता कर लेंगे? आधे अफगानिस्तान पर पहले से तालिबान का कब्जा है. क्या गनी और अब्दुल्ला उन्हें आधी सत्ता सौंप देंगे? वे आधी सत्ता स्वीकार क्यों करेंगे? उन्हें पाकिस्तान और अमेरिका का समर्थन पहले से ही प्राप्त है. इसके अलावा तालिबान के पास अफीम की आमदनी इतनी ज्यादा है कि वे अपनी स्वतंत्न सरकार खुद चला सकते हैं. अफगान फौज में भी पठानों की संख्या सबसे ज्यादा है. तालिबान मूलत: गिलजई पठानों का संगठन है. यह अच्छा हुआ कि भारत के विदेश सचिव इस मौके पर काबुल गए. इस समय जरूरी है कि भारत काबुल सरकार और तालिबान के साथ भी संपर्क बनाए रखे.