वेदप्रताप वैदिक का ब्लॉग: अंग्रेजी की गुलामी से मिले मुक्ति
By वेद प्रताप वैदिक | Published: March 9, 2021 12:08 PM2021-03-09T12:08:10+5:302021-03-09T12:08:10+5:30
भारत की न्याय-प्रणाली में कई बदलाव की जरूरत है। राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने भी ये बात दोहराई है। कोर्ट की कार्रवाई आम लोगों को भी आसानी से समझ में आ सके। इस बारे में पहल करने की जरूरत है।
राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने भारत की न्याय-प्रणाली के बारे में ऐसी बातें कह दी हैं, जो आज तक किसी राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री ने नहीं कही. वे जबलपुर में न्यायाधीशों के एक समारोह को संबोधित कर रहे थे. उन्होंने कानून, न्याय और अदालतों के बारे में इतने पते की बातें यों ही नहीं कह दी हैं.
वे स्वयं लगभग 50 साल पहले जब कानपुर से दिल्ली आए तो उन्होंने कानून की शिक्षा ली थी. राजनीति में आने के पहले वे खुद वकालत करते थे. उन्हें अदालतों के अंदरूनी कार्यों की जितनी जानकारी है, प्राय: कम ही नेताओं को होती है.
उन्होंने सबसे पहली बात यह कही कि राज्यों के उच्च न्यायालय अपने फैसलों का अनुवाद प्रांतीय भाषाओं में करवाएं. उन्हीं के आग्रह पर सर्वोच्च न्यायालय ने अपने फैसलों का अनुवाद हिंदी तथा कुछ अन्य भारतीय भाषाओं में करवाना शुरू कर दिया है.
मैं तो कहता हूं कि सारी अदालतों के मूल फैसले ही हिंदी और उनकी अपनी भाषाओं में होने चाहिए और उनका अनुवाद, जरूरी हो तो, अंग्रेजी में होना चाहिए. यह तभी होगा जबकि हमारी संसद और विधानसभाएं अपने कानून अपनी भाषा में बनाएं यानी अपने आप को अंग्रेजी की गुलामी से मुक्त करें.
भारत जैसे 60-70 पुराने गुलाम देशों के अलावा सभी देशों में सारे कानून और फैसले उनकी अपनी भाषा में ही होते हैं. कोई भी महाशक्ति राष्ट्र अपने कानून और न्याय को विदेशी भाषा में संचालित नहीं करता है. भारत की न्याय व्यवस्था में वादी और प्रतिवादी को समझ ही नहीं पड़ता है कि अदालत की बहस और फैसले में क्या-क्या कहा जा रहा है.
दूसरी बात, जिस पर राष्ट्रपति ने जोर दिया है, वह है, न्याय मिलने में देरी. देर से मिलनेवाला न्याय तो अन्याय ही है. आज देश में 40-40 साल पुराने मुकदमे चल रहे हैं और लटके हुए मुकदमों की संख्या करोड़ों में है. अदालतों में अभी पर्याप्त जज भी नहीं हैं.
यदि हमारी न्याय-पद्धति सहज, सरल और स्वभाषा में हो तो जजों की कमी के बावजूद मुकदमे जल्दी-जल्दी निपटेंगे. राष्ट्रपतिजी ने एक और बुनियादी बात कह दी है. उन्होंने कहा है कि जजों और वकीलों को कानून की समझ तो होनी चाहिए लेकिन वह काफी नहीं है. उन्हें यह भी पता होना चाहिए कि न्याय क्या होता है.
हमारी अदालतें अंग्रेज के बनाए हुए कानून का रट्टा तो लगाए रखती हैं लेकिन कई बार उनकी बहस और फैसलों में न्याय होता हुआ दिखाई नहीं पड़ता है.
न्यायपालिका के सुधार में राष्ट्रपति के इन सुझावों का स्थान अत्यंत महत्वपूर्ण रहेगा. बस, देखना यही है कि हमारी कार्यपालिका (सरकार) और विधानपालिकाएं इन सुधारों पर कितना ध्यान देती हैं.