ब्लॉग: उत्तर प्रदेश के आर्थिक विकास की हकीकत

By अभय कुमार दुबे | Updated: February 1, 2022 10:49 IST2022-02-01T10:47:49+5:302022-02-01T10:49:29+5:30

एक तरफ तो यह सरकार दिखा रही है कि उसके कार्यकाल में प्रदेश ने अभूतपूर्व तरक्की की है, और दूसरी तरफ चुनावी मुहिम में पहले दिन से अब तक मुख्यमंत्री आदित्यनाथ और गृह मंत्री अमित शाह ‘अखिलेश के अब्बाजान’, ‘अस्सी बनाम बीस’, ‘मुगलों से संघर्ष की विरासत’ जैसे जुमले उछाल रहे हैं. 

uttart pradesh economic developement budget election yogi adityanath | ब्लॉग: उत्तर प्रदेश के आर्थिक विकास की हकीकत

ब्लॉग: उत्तर प्रदेश के आर्थिक विकास की हकीकत

Highlightsयूपी सरकार ने सैकड़ों करोड़ रुपये के विज्ञापन देकर प्रदेश के आर्थिक विकास के बहुत से दावे किए हैं. कुल घरेलू उत्पाद का आकलन किया जाए तो उत्तर प्रदेश से नीचे केवल गोवा आता है.प्रति व्यक्ति आमदनी के आईने में देखने पर भी उत्तर प्रदेश की स्थिति नीचे से तीसरी है.

क्या आर्थिक प्रगति के सकारात्मक या नकारात्मक आंकड़ों का चुनाव के परिणामों पर असर पड़ता है? उत्तर प्रदेश की सरकार ने पिछले कई महीनों से अखबारों और टीवी पर सैकड़ों करोड़ रुपये के विज्ञापन देकर प्रदेश के आर्थिक विकास के बहुत से दावे किए हैं. 

एक तरफ तो यह सरकार दिखा रही है कि उसके कार्यकाल में प्रदेश ने अभूतपूर्व तरक्की की है, और दूसरी तरफ चुनावी मुहिम में पहले दिन से अब तक मुख्यमंत्री आदित्यनाथ और गृह मंत्री अमित शाह ‘अखिलेश के अब्बाजान’, ‘अस्सी बनाम बीस’, ‘मुगलों से संघर्ष की विरासत’ जैसे जुमले उछाल रहे हैं. 

इसलिए अर्थनीति और राजनीति के बीच समीकरण के इस विशेषज्ञ से यह भी पता लग सकता है कि अगर वास्तव में सरकार ने प्रदेश को विकास की राह पर चलाया है तो उसके नेताओं को सांप्रदायिक भाषा बोलने की जरूरत क्यों पड़ रही है.

एक आर्थिक विशेषज्ञ के मुताबिक (रिजर्व बैंक की सांख्यकीय हैंड बुक पर आधारित) देश के 33 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में 2016-17 से 2019-20 के बीच आर्थिक विकास के संदर्भ में उत्तर प्रदेश की स्थिति नीचे से दूसरी यानी 32वीं रही. 

अगर राज्य के कुल घरेलू उत्पाद का आकलन किया जाए तो उत्तर प्रदेश से नीचे केवल गोवा आता है. बाकी सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों ने उत्तरप्रदेश से अच्छा प्रदर्शन किया है. प्रति व्यक्ति आमदनी के आईने में देखने पर भी उत्तर प्रदेश की स्थिति नीचे से तीसरी है. केवल गोवा और मेघालय ही उससे नीचे हैं. 

अगर 21 राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों के कुल घरेलू उत्पादन पर गौर किया जाए तो पहले चार साल में उत्तरप्रदेश तीसरे सबसे बुरा प्रदर्शन करने वाले राज्य के रूप में चिन्हित होता है. आदित्यनाथ सरकार ने अपने विज्ञापनों में दावा किया है कि पहले चार साल में उत्तर प्रदेश ने अपनी अर्थव्यवस्था का आकार दोगुना बढ़ा लिया है. 

यह आंकड़ा सफेद झूठ है. यह उपलब्धि केवल तभी हो सकती थी जब उत्तर प्रदेश 2020-21 में 36 फीसदी की वृद्धि दर दिखाता. ध्यान रहे कि महामारी से पीड़ित यह वर्ष भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए बुरे सपने की तरह साबित हुआ है. 

इस साल फैलने के बजाय राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था 7.3 प्रतिशत सिकुड़ी है. अगर महामारी के दो सालों को समायोजित कर लिया जाए तो भी अखिलेश यादव के शासनकाल में उत्तर प्रदेश ने सात फीसदी की औसत वृद्धि दर दिखाई और आदित्यनाथ के नेतृत्व में उत्तरप्रदेश केवल पांच फीसदी आगे बढ़ता हुआ दिखता है. 

जिस समय आदित्यनाथ ने शपथ ली थी, उस समय प्रति व्यक्ति आमदनी के लिहाज से उत्तर प्रदेश नीचे से दूसरे नंबर पर था, यानी केवल बिहार से ऊपर. इस मामले में राष्ट्रीय औसत से उत्तर प्रदेश की प्रति व्यक्ति आमदनी आधी थी. पांच साल के भाजपा शासन के बाद भी यह आंकड़ा जैसा का तैसा ही है.

अब सवाल उठता है कि क्या खराब आर्थिक प्रदर्शन करने के कारण सरकार के पक्ष में सोच रहे मतदाता अपनी वोटिंग प्राथमिकताओं पर पुनर्विचार करने की मानसिकता में पहुंच सकते हैं? 

2017 का उदाहरण बताता है कि अच्छा आर्थिक प्रदर्शन चुनाव जीतने के लिए काफी नहीं होता है. अखिलेश की सरकार ने अपने आखिरी दो वर्षो में दस फीसदी की जबरदस्त वृद्धि दर दिखाई थी. लेकिन, वे बुरी तरह से चुनाव हार गए. 

आदित्यनाथ की सरकार ने तो अच्छा प्रदर्शन भी नहीं किया है. इस स्थिति में उनके लिए जरूरी है कि एक तरफ वे बढ़े-चढ़े दावे करें जिनकी पुष्टि न की जा सके और दूसरी ओर सांप्रदायिक मुहावरेबाजी करके अपने पक्ष में हिंदुत्ववादी गोलबंदी करने की कोशिश करें. अच्छी आर्थिक प्रगति के बावजूद अखिलेश यादव की पराजय बताती है कि उत्तरप्रदेश ही नहीं किसी भी राज्य में गवर्नेस का प्रश्न कितना महत्वपूर्ण होता है. 

कानून-व्यवस्था का सवाल वैसे भी उत्तरप्रदेश में काफी नाजुक रहा है. मायावती को 2017 में चुनाव जिताने के पीछे यह धारणा थी कि बहिनजी की सरकार कानून-व्यवस्था के मामले में सख्ती से पेश आती है. 

अपराधियों के एनकाउंटर (फर्जी मुठभेड़ें) और ऑपरेशन लंगड़ा (अपराधियों के पैरों में गोली मारना) के जरिये आदित्यनाथ की सरकार ने इस अपने शुरुआती कार्यकाल में एक विशेष किस्म की छवि बनाई थी जिसका लाभ उठाने की कोशिश उनके द्वारा की जा रही है. 

लेकिन, यह भी एक सच्चाई है कि पुलिस को खुली छूट देने का संचित दुष्परिणाम उन्होंने अपने कार्यकाल के आखिरी वर्ष में झेला है. यह अवधि पुलिस द्वारा निदरेषों की बेवजह हत्या के लिए जानी जाती है. इस एक साल में हुई पुलिस ज्यादतियों के कारण आदित्यनाथ की सरकार उन हमदर्दियों से काफी-कुछ वंचित हो गई जो कानून-व्यवस्था के मुद्दे पर उसे हासिल हुई थीं.

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