अभिलाष खांडेकर का ब्लॉग: चुनावी राजनीति पर बाघों की जीत
By लोकमत न्यूज़ डेस्क | Updated: December 20, 2024 15:37 IST2024-12-20T15:37:16+5:302024-12-20T15:37:16+5:30
भोपाल के पास स्थित रातापानी टाइगर रिजर्व का निर्माण कई सालों से संरक्षणवादियों की मांग के बावजूद लटका हुआ था. हाल ही में अपने एक वर्ष के कार्यकाल के पूर्ण होने पर, एक आश्चर्यजनक निर्णय के तहत मुख्यमंत्री डॉ. मोहन यादव, जो विशेष तौर पर अपने वन्यजीव प्रेम के लिए नहीं जाने जाते, ने इसका भव्य उद्घाटन किया.

अभिलाष खांडेकर का ब्लॉग: चुनावी राजनीति पर बाघों की जीत
नये साल 2025 की पूर्व संध्या पर देश के बाघ प्रेमियों, खासकर मध्य भारत के बाघ प्रेमियों को एक खुशखबरी मिली है. मध्य प्रदेश सरकार ने भारत के 57 वें टाइगर रिजर्व की घोषणा की है और उसका उद्घाटन भी कर दिया है. भोपाल के पास स्थित रातापानी टाइगर रिजर्व का निर्माण कई सालों से संरक्षणवादियों की मांग के बावजूद लटका हुआ था. हाल ही में अपने एक वर्ष के कार्यकाल के पूर्ण होने पर, एक आश्चर्यजनक निर्णय के तहत मुख्यमंत्री डॉ. मोहन यादव, जो विशेष तौर पर अपने वन्यजीव प्रेम के लिए नहीं जाने जाते, ने इसका भव्य उद्घाटन किया.
यह एक सर्वविदित तथ्य है कि अधिकांश राजनेता पेड़ों और वन क्षेत्रों की रक्षा करने के इच्छुक नहीं होते. वे जैव विविधता के संरक्षण के लिए खड़े नहीं होते, न ही शहरों में भूजल स्तर में वृद्धि के लिए खुली जगहें व मैदान छोड़ने और तापमान में वृद्धि को नियंत्रित करने के प्रयासों का साथ देते हैं, जंगलों की रक्षा करने की तो बात ही छोड़िए, जो हमारे हरित फेफड़ों के रूप में काम करते हैं.
ऐसा शायद इसलिए क्योंकि विकास परियोजनाएं - जो प्राकृतिक संसाधनों की दुश्मन हैं जैसे लंबी-लंबी सड़कें, मेट्रो ट्रेन, राजमार्ग, हवाई अड्डे और अन्य मेगा इंफ्रास्ट्रक्चर निर्माण- राजनेताओं को पैसा और वोट दोनों सुनिश्चित करती हैं. मूक बाघों और असहाय पेड़ों को भारत में मतदान का अधिकार नहीं है, इसलिए उन्हें हमेशा नजरअंदाज किया जा सकता है.
यह दशकों से हो रहा है लेकिन दुनिया में एक प्रमुख आर्थिक शक्ति बनने की कोशिश कर रहे देश में इसकी गति अब तेज होती दिख रही है. हालांकि भारत सरकार के एक हालिया दस्तावेज में माना गया है कि जैव विविधता का नुकसान हर जगह चिंताजनक रूप ले रहा है.
रातापानी के जंगलों के मामले में ठीक यही हो रहा था.
इसके आस-पास के पेड़ों को अवैध रूप से काटा जा रहा था, वन्यजीव खतरे में थे और बाघ अपने असुरक्षित लेकिन प्राकृतिक गलियारों से शहर की सीमा में प्रवेश कर रहे थे. फिर भी, रिजर्व का निर्माण कुछ जिलों के मतदाताओं के विरोध के कारण लटका हुआ था, जिन्हें राजनेता खुश करना चाहते थे.
जब किसी बाघ अभयारण्य की घोषणा की जाती है, तो राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण (एनटीसीए) द्वारा कई प्रतिबंध लगाए जाते हैं. यह हमारे देश में वन्यजीवों की देखरेख करने वाला एकछत्र सरकारी संगठन है. स्वाभाविक रूप से, स्थानीय लोग (किसान, बेरोजगार आदिवासी, ग्रामीण) जो चारे और अन्य जरूरतों के लिए इन पर निर्भर हैं, ऐसे संरक्षित क्षेत्रों का विरोध करते हैं. वहां वन्यजीवों - वनस्पति और जीव दोनों - के जीवित रहने और स्वतंत्र रूप से विकसित होने के कारण मानव प्रवेश प्रतिबंधित रहता है.
रातापानी जैसी कहानी सिर्फ मध्य प्रदेश तक ही सीमित नहीं है; यह किसी न किसी रूप में अधिकांश राज्यों में मौजूद है, जहां प्राकृतिक धरोहरों - जंगल, झील, पहाड़, नदियों, तटीय क्षेत्र और जीव-जंतुओं को ‘विकास’ के नाम पर व्यवस्थित तरीके से खत्म किया जा रहा है.
माना कि बढ़ती मानव आबादी की जरूरतों का ध्यान रखना सरकारों की मुख्य चिंता है, लेकिन जीवित रहने के लिए मनुष्य को अनिवार्य रूप से ताजी हवा और पानी की भी तो आवश्यकता होती है. उस तरफ कौन देखेगा? शहरीकरण की तीव्र दर हमारे हरित आवरण को भयावह गति से खत्म कर रही है.
शहरी जैव विविधता गंभीर खतरे में है. भारत में, हम सरकारी और निजी क्षेत्रों में इस समय निर्माण कार्यों में भारी उछाल देख रहे हैं. ऐसे समय में ही सरकारों -राज्य और संघ दोनों- से पर्यावरण संरक्षण और मानवीय आवश्यकताओं (और लालच) के बीच संतुलन बनाने की अपेक्षा की जाती है.
रातापानी के करीब 1270 वर्ग किलोमीटर में फैले हरे-भरे जंगल को कई साल पहले ही टाइगर रिजर्व घोषित किया जा सकता था, लेकिन एक ताकतवर राजनेता ने ऐसा नहीं किया. मप्र राज्य वन्यप्राणी बोर्ड और दूसरी सरकारी एजेंसियां लंबे समय से इसकी मांग कर रही थीं. मप्र वन विभाग ने भी कई बार प्रस्ताव पेश किए और दिल्ली स्थित एनटीसीए ने भी इसे मंजूरी दे दी. लेकिन तत्कालीन मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान जाहिर तौर पर इस मामले में उदासीन थे, क्योंकि उनका निर्वाचन क्षेत्र उस क्षेत्र में आता था और उन्हें डर था कि मतदाता नाराज हो जाएंगे. बाघों और मतदाताओं के बीच राजनीति आ गई थी.
एक चतुर राजनीतिज्ञ के रूप में जाने जाने वाले चौहान अन्य वन संरक्षण परियोजनाओं का समर्थन करते रहे हैं और पिछले कुछ वर्षों से प्रतिदिन एक पेड़ भी लगा रहे हैं. लेकिन रातापानी उनकी प्राथमिकता नहीं थी.
वन विभाग और एनटीसीए दोनों ही वनों और बाघों की रक्षा के लिए हैं; और यह जानना कोई रॉकेट विज्ञान नहीं है कि दोनों एक-दूसरे पर निर्भर हैं और इस तरह अविभाज्य हैं. इसलिए, एनटीसीए ने भी सालों पहले पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय और मध्य प्रदेश सरकार के सामने इस मामले को उठाया था. लेकिन तत्कालीन मुख्यमंत्री इसके लिए तैयार नहीं थे. हालांकि जब डॉ. यादव को पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय तथा मध्य प्रदेश सरकार के बीच का पत्राचार दिखाया गया तो उन्होंने तुरंत इस पर आगे बढ़ने का फैसला किया.
राज्य की राजनीति में यादव को वरिष्ठ नेता चौहान का पसंदीदा नहीं माना जाता है. कई राजनेताओं ने इस रिजर्व घोषणा को राजनैतिक प्रतिद्वंद्विता का नतीजा माना. लेकिन बाघ प्रेमी खुश हैं. उन्हें लगता है कि एक बार ही सही, बाघों ने चुनावी राजनीति पर जीत हासिल कर ली है.
लेखक: अभिलाष खांडेकर