यकीनन, देश के सातवें (और अब तक के सबसे युवा) प्रधानमंत्री राजीव गांधी की जयंती पर उनकी यादें ताजा करने का सबसे अच्छा तरीका उनके बाद तीन बार प्रधानमंत्री बने अटल बिहारी वाजपेयी द्वारा 1991 में वरिष्ठ पत्रकार करण थापर के टीवी शो 'आईविटनेस' के श्रद्धांजलि कार्यक्रम में 'विपक्ष के नेता नहीं, मनुष्य के तौर पर' राजीव को दिए गए धन्यवाद को याद करने का है.
यह धन्यवाद कुछ इस तरह दिया गया था: 'जैसे ही राजीव को पता चला कि मुझको कुछ किडनी संबंधी समस्या है और इलाज की जरूरत है, उन्होंने मुझको बुलाया और भारतीय प्रतिनिधिमंडल के साथ न्यूयॉर्क में होने जा रहे संयुक्त राष्ट्र के अधिवेशन में जाने का अनुरोध किया. यह भी कहा कि मुझे उम्मीद है कि आप मेरा अनुरोध मान लेंगे और वहां अपना इलाज भी करवाएंगे. मैंने वैसा ही किया जैसा राजीव ने कहा था और संभवतः उसी से मेरी जिंदगी बची. राजीव की दुर्भाग्यपूर्ण मृत्यु के बाद मैं यह बात सार्वजनिक रूप से कहना चाहता हूं क्योंकि मेरे निकट उनको धन्यवाद देने का यही एक तरीका है.'
करण थापर ने अपनी पुस्तक 'डेविल्स एडवोकेट' के 'फोर मेमोरेबल प्राइम मिनिस्टर्स' अध्याय में दो अलग-अलग राजनीतिक धाराओं से आने वाले इन दोनों भारत रत्न प्रधानमंत्रियों की पारस्परिक सदाशयता जताने वाले इस अनुभव का तफसील से जिक्र किया है. बहरहाल, देश का जो कम्प्यूटरीकरण अब हमें खासा सुविधाजनक लगने लगा है, अपने प्रधानमंत्रीकाल में राजीव ने उसका आह्वान किया तो सारे विपक्षी दलों के निशाने पर आ गए थे. उस वक्त वे विपक्ष द्वारा अपनी नाक में किया जा रहा दम बर्दाश्त न कर कम्प्यूटरीकरण की नीति से पीछे हट जाते तो? इस लिहाज से देखें तो बहुत संभव है कि आने वाला समय हमें उनके दूसरे कदमों की बाबत भी नई सोचों तक ले जाए.
राजीव गांधी ने अत्यंत असामान्य परिस्थितियों में देश के सातवें और सबसे युवा प्रधानमंत्री का कांटों भरा ताज अपने सिर पर रखा. हां, इसके पीछे इतना जनसमर्थन था कि 1984 के लोकसभा चुनाव में उनके नेतृत्व में कांग्रेस को कुल 542 में से 411 सीटों पर अभूतपूर्व व ऐतिहासिक यानी रिकॉर्ड जीत हासिल हुई. फिर तो राजीव ने नए वैकल्पिक नजरिये के साथ देश को इक्कीसवीं सदी की चुनौतियों के लिए तैयार करना शुरू कर दिया. पंजाब व श्रीलंका में आतंकवाद के दो अलग-अलग रूपों के खात्मे के लिए उन्होंने दो अलग-अलग समझौते किए.
असम में जो एनआरसी अब प्रायः चर्चा का विषय बना रहता है, उसके समझौते पर भी राजीव के ही हस्ताक्षर हैं. हां, उन्होंने लालफीताशाही वाली पारंपरिक समाजवादी नीतियों की जगह देश को नई अर्थनीति व विदेश नीति दी, जो देश में उदारीकरण का प्रस्थान बिंदु सिद्ध हुई. 1986 में उन्होंने राष्ट्रीय शिक्षा नीति के रास्ते युवा पीढ़ी को आधुनिक व वैज्ञानिक नजरिये से संपन्न करने की शुरुआत की तो नवोदय विद्यालयों की परिकल्पना भी साकार की. अलबत्ता, इस दौरान उनसे कई ऐसी बड़ी चूकें हुईं, हत्यारों ने उनसे जिनके सुधार का मौका छीन लिया.
1984 के सिखविरोधी दंगों, भोपाल गैस त्रासदी, बोफोर्स और शाहबानो जैसे अप्रत्याशित राजनीतिक व गैर राजनीतिक घटनाक्रमों में वे चूके तो 1989 के आम चुनाव में इसकी कीमत भी चुकाई. 21 मई 1991 को लिट्टे के मानव बम द्वारा उन्हें शहीद नहीं कर दिया जाता और वे जनादेश पाकर दोबारा प्रधानमंत्री बनते तो यह मानने के कारण हैं कि शायद ही नौकरशाहों व 'मित्रों' पर पहले कार्यकाल जितने निर्भर रहते. धार्मिक कट्टरपंथियों के प्रति उनका पुराना नजरिया भी निश्चित ही बदला हुआ होता.
जैसे कई युवा कांग्रेस नेताओं को राष्ट्रीय राजनीति में भूमिका निभाने के लिए तैयार कर आगे लाए थे, राज्यों में भी युवा नेताओं का वैकल्पिक नेतृत्व उभारते. तब जो होता सो होता, मगर नहीं हुआ तो भी कौन इनकार कर सकता है कि वे अपने अवसान के दिन तक संभावनाओं से भरे हुए थे. उनका प्राणांत करने वाले मानव बम तक की मजाल नहीं हुई कि वह उनकी संभावनाओं का अंत कर सके.