गिरमिटिया मजदूरों का वह अविस्मरणीय मुक्ति संघर्ष !
By कृष्ण प्रताप सिंह | Updated: May 1, 2025 07:11 IST2025-05-01T07:09:24+5:302025-05-01T07:11:26+5:30
उन्होंने अपने ‘गिरमिट’ की अवधि खत्म होने के बाद कुछ दिनों तक फिजी में एक छोटे किसान और पुजारी का जीवन भी जिया था, जो बाद में उनके उक्त संकल्प की पूर्ति में बहुत काम आया.

गिरमिटिया मजदूरों का वह अविस्मरणीय मुक्ति संघर्ष !
1886 में एक मई को (यानी आज के ही दिन) अपने काम के घंटे कम करने को लेकर आंदोलित मजदूरों पर शिकागो में पुलिस द्वारा की गई बर्बर गोलीबारी की स्मृति में अब एक मई को दुनिया भर में अंतरराष्ट्रीय मजदूर दिवस मनाया जाता है. लेकिन उससे शताब्दियों पहले से ब्रिटिश साम्राज्य ने भारत समेत अपने ज्यादातर उपनिवेशों में मजदूरों पर गिरमिटिया मजदूरी की जो अत्यंत दारुण प्रथा थोप रखी थी, उस पर अब कम ही बात होती है.
हालांकि इस प्रथा के खात्मे के लिए जो लंबा और बड़ा आंदोलन चला, आज के मजदूर आंदोलनों के लिए उसमें कई ऐसे सबक हैं, जिन्हें सीखकर वे अपनी आगे की राह हमवार कर सकते हैं.
दरअसल, मजदूरों को भारत से दूसरे उपनिवेशों में भेजने से पहले उनकी सहमति के नाम पर उनके साथ जो एग्रीमेंट (करार) किया जाता था, अनपढ़ भारतीय उसके दस्तावेज को गिरमिट कहा करते थे इसलिए उस करार के आधार पर ‘परदेस’ जाने वाले मजदूरों को गिरमिटिया कहा जाता था.
गिरमिटिया मजदूरों की एक विडंबना यह भी थी कि 1833 में दूसरे ब्रिटिश उपनिवेशों में मनुष्य की खरीद-बिक्री की कुख्यात दास प्रथा का खात्मा हुआ (भारत में इसे दस साल बाद 1843 में भारतीय दासता कानून बनाकर खत्म किया गया) तो अप्रत्याशित रूप से वहां इन मजदूरों की मांग और बढ़ गई. साथ ही दुर्दशा भी. गिरमिटिया मजदूरों की त्रासदी जानें कब तक बाहरी दुनिया की नजरों से ओझल रहता, अगर हिंदी के उन दिनों के नवोदित साहित्यकार बनारसीदास चतुर्वेदी गिरमिटिया मजदूर तोताराम सनाढ्य से मिलकर इसके लिए जमीन-आसमान एक न कर देते.
तोताराम 1893 में भले ही गिरमिटिया मजदूर के रूप में फिजी गए थे, 21 साल बाद स्वदेश लौटे तो उन्होंने उस नर्क के प्रति वितृष्णा से भरकर सारे गिरमिटिया मजदूरों के उद्धार और गिरमिटिया प्रथा के उन्मूलन का संकल्प ले लिया था. उन्होंने अपने ‘गिरमिट’ की अवधि खत्म होने के बाद कुछ दिनों तक फिजी में एक छोटे किसान और पुजारी का जीवन भी जिया था, जो बाद में उनके उक्त संकल्प की पूर्ति में बहुत काम आया.
15 जून, 1914 को सनाढ्य फिरोजाबाद के ‘भारती भवन’ नामक पुस्तकालय व प्रकाशन संस्थान के मैनेजर लाला चिरंजीलाल के साथ बनारसीदास चतुर्वेदी से मिले, तो चतुर्वेदी जी ने छूटते ही पूछा कि वे गिरमिटिया मजदूरों संबंधी अपने अनुभव लिख क्यों नहीं डालते? सनाढ्य का उत्तर था, ‘मैं कोई लेखक तो हूं नहीं, अलबत्ता, कोई लिखने वाला मिल जाए तो मैं अपनी अनुभूतियां उसे सुना सकता हूं.’
इस पर चतुर्वेदी जी ने सनाढ्य को अपने घर ले जाकर पंद्रह दिनों तक उनके अनुभव सुने और पाया कि उनके अनुभव भारतीय गिरमिटिया मजदूरों की त्रासदियों व संघर्षों के दस्तावेजों जैसे हैं तो उनको ‘फिजी द्वीप में मेरे 21 वर्ष’ का नाम दिया और भारती भवन से प्रकाशित करा दिया.
उसके प्रकाशित होते ही गिरमिटिया मजदूरों के पक्ष में घनघोर आंदोलन उठ खड़ा हुआ तो उत्साहित चतुर्वेदी जी ने सनाढ्य के साथ 1914 से 1936 तक के अपने जीवन के बाइस वर्ष गिरमिटिया मजदूरों की सेवा को समर्पित कर दिए. फिर भी अंग्रेजों ने इस प्रथा के खात्मे में छह वर्ष लगा दिए और वह पूरी तरह एक जनवरी, 1920 को समाप्त हो पाई.