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ब्लॉग: सुप्रीम कोर्ट के उम्मीद जगाते फैसले

By अश्वनी कुमार | Updated: September 5, 2024 10:19 IST

महत्वपूर्ण बात यह है कि धन शोधन निवारण अधिनियम, 2002 (पीएमएलए) की धारा 45 की व्याख्या करते समय, न्यायालय ने प्रेम प्रकाश मामले में कहा कि उसमें ‘विश्वास करने के उचित आधार’ शब्दों के लिए, न्यायालय को यह देखने की आवश्यकता है कि ‘क्या आरोपी के खिलाफ कोई वास्तविक मामला है।’

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ठळक मुद्देसंविधान और कानून के शासन के पक्ष में झुकना, जिसकी स्वतंत्रता एक अंतर्निहित मार्ग हैजमानत नियम है और जेल अपवादसंविधान के अनुच्छेद 21 के तहत जीवन के अधिकार में निष्पक्ष और त्वरित सुनवाई का अधिकार

हमारी आपराधिक न्याय प्रणाली की दमनकारी प्रक्रियाओं के कारण उपजी भय और बेचैनी की भावना के बीच देश की वर्तमान व्यस्तता को देखते हुए, सख्त दंड विधानों के तहत लाए गए मामलों में जमानत देने के संबंध में सुप्रीम कोर्ट के हालिया फैसले स्वागत योग्य हैं और बड़ी राहत लेकर आए हैं. अभियुक्तों द्वारा लंबी कैद गुजारने के बाद आए फैसलों ने विचाराधीन कैदियों में अपनी स्वतंत्रता, प्रतिष्ठा और निजता की अमानवीय वंचना के खिलाफ उम्मीद जगाई है. फैसलों को स्पष्टीकरण की जरूरत नहीं है.

मनीष कुमार सिसोदिया बनाम प्रवर्तन निदेशालय (9 अगस्त, 2024) में न्यायालय ने अपने अधिदेश की व्याख्या की ‘संविधान और कानून के शासन के पक्ष में झुकना, जिसकी स्वतंत्रता एक अंतर्निहित मार्ग है।’ इसमें आगे लिखा गया है कि ‘जमानत नियम है और जेल अपवाद’, जिसमें संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत जीवन के अधिकार में निष्पक्ष और त्वरित सुनवाई का अधिकार निहित है। 

सिसोदिया प्रकरण में संवैधानिक स्थिति की अपनी सुस्पष्ट व्याख्या के बाद, न्यायालय ने कविता बनाम प्रवर्तन निदेशालय (27 अगस्त, 2024) मामले में न्यायमूर्ति बीआर गवई के माध्यम से दोहराया कि ‘अनुच्छेद 21 के तहत प्रदान की गई स्वतंत्रता का मौलिक अधिकार वैधानिक प्रतिबंधों से श्रेष्ठ है’ और यह कि ‘किसी अपराध का दोषी ठहराए जाने से पहले लंबे समय तक कारावास को बिना मुकदमे के सजा नहीं बनने दिया जाना चाहिए’। 

पुनः, प्रेम प्रकाश बनाम यूनियन ऑफ इंडिया (28 अगस्त, 2024) में, न्यायालय ने न्यायमूर्ति के.वी. विश्वनाथन के माध्यम से कहा, ‘व्यक्ति की स्वतंत्रता हमेशा एक नियम है और वंचना अपवाद है...’ न्यायालय ने निर्णय दिया कि ‘मुकदमे के शीघ्र पूरा होने की आशा में किसी व्यक्ति को असीमित समय के लिए सलाखों के पीछे रखना अनुच्छेद 21 के तहत व्यक्तियों के मौलिक अधिकार से वंचित करना होगा...’ न्यायमूर्ति हृषिकेश रॉय और न्यायमूर्ति एसवीएन भट्टी की पीठ ने विजय नायर बनाम प्रवर्तन निदेशालय (2 सितंबर, 2024) में न्यायालय ने पहले के निर्णयों को निरस्त कर दिया और लंबे समय तक हिरासत में रहने और शीघ्र सुनवाई के आरोपी के अधिकार के आधार पर जमानत दे दी। 

महत्वपूर्ण बात यह है कि धन शोधन निवारण अधिनियम, 2002 (पीएमएलए) की धारा 45 की व्याख्या करते समय, न्यायालय ने प्रेम प्रकाश मामले में कहा कि उसमें ‘विश्वास करने के उचित आधार’ शब्दों के लिए, न्यायालय को यह देखने की आवश्यकता है कि ‘क्या आरोपी के खिलाफ कोई वास्तविक मामला है।’ ‘जांच के दौरान एकत्र की गई उचित सामग्री के आधार पर’ पीएमएलए के तहत हिरासत में आरोपी के बयान के संबंध में, न्यायालय ने दोहराया कि हिरासत में लिया गया व्यक्ति ‘ऐसा व्यक्ति नहीं है जिसे स्वतंत्र दिमाग से काम करने वाला माना जा सके’ और यह कि ‘इस तरह के बयानों को स्वीकार्य बनाना बेहद असुरक्षित होगा, क्योंकि इस तरह की कार्रवाई निष्पक्षता और न्याय के सभी सिद्धांतों के विपरीत होगी।’ 

इस संदर्भ में, न्यायालय के फैसले से सरकार को बिना जमानत के आरोपी की हिरासत की उचित अधिकतम अवधि को अनिवार्यत: सुनिश्चित करने के लिए कानून और न्यायिक प्रक्रियाओं पर फिर से विचार करने को राजी होना चाहिए।

इन महत्वपूर्ण फैसलों का महत्व न केवल उनकी असंदिग्ध संवैधानिक गुणवत्ता में निहित है बल्कि उसे विद्वान जजों की बौद्धिक निष्ठा में भी देखा जा सकता है. ये वो न्यायाधीश हैं जिन्होंने कानून को हमेशा न्याय के साथ जोड़ा है और स्वतंत्रता की आवाज पर संवैधानिक मुहर लगाई है। ये फैसले समाज को स्थिर करनेवाली ताकतों के हित में कानून के प्रति आस्था को फिर से मजबूत बनाएंगी।

इन सभी फैसलों का सार यही है कि अन्याय के खिलाफ हर आवाज को सुना जाएगा और अनुचित ढंग से लागू किए गए कानून के आगे न्याय को झुकाया नहीं जा सकेगा। देश की सर्वोच्च न्यायायिक संस्था द्वारा सुनाए गए फैसले यह दर्शाते हैं कि न्याय ही सर्वोच्च है और गैरजवाबदेह सत्ता और आजादी के बीच तनाव का फैसला अंतत: स्वतंत्रता के हक में ही होगा। सुप्रीम कोर्ट ने न्याय की सर्वोच्चता को सबसे महत्वपूर्ण माना है। उसने इस सिद्धांत की पुष्टि की है कि ‘भले ही आसमान गिर पड़े लेकिन न्याय होना चाहिए।’ 

सुप्रीम कोर्ट ने कर्तव्य और सत्ता के बीच अपनी सर्वोपरिता की पुष्टि की है. जमानत के मामलों में सर्वोच्च न्यायालय के फैसले एडमंड वर्क जैसे दार्शनिकों के इस मत की पुष्टि करते हैं ‘समाज में आजादी ही सर्वोच्च है और वह सभी शारीरिक व नैतिक प्रकृतियों को उनके बीच निर्धारित स्थान पर स्थापित करती है.’ (एडमंड वर्क-रिफ्लेक्शन्स ऑन द रेजोल्यूशन इन फ्रांस-1866)संविधान के लक्ष्य को तभी हासिल किया जा सकता है जब संवैधानिक अदालतें सभी के लिए स्वतंत्र एवं गरिमापूर्ण जीवन के कानूनी प्रावधानों को सक्रियता के साथ लागू करवाएं. अदालत की देश के नैतिक मध्यस्थ की सत्ता इस बात पर निर्भर करती है कि वह संविधान की अवहेलना करनेवालों को आईना दिखाने की तैयारी रखे और देश को भरोसा दिलाए कि महज आरोप लगने से कोई निंदनीय नहीं हो जाएगा. उम्मीद करें कि सुप्रीम कोर्ट ने स्वतंत्रता के अधिकार के दर्शन पर जो स्पष्ट रुख अपनाया है, उस पर राजनीतिक दल मंथन करेंगे और संवैधानिक प्रावधानों के हिसाब से अपनी राजनीति को नया रूप देंगे. अंत में हम यह न भूलें कि मानवीय अधिकारों की रक्षा लोगों की और उनके द्वारा स्थापित संस्थाओं की सामूहिक जिम्मेदारी है. 

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