शरद जोशी का ब्लॉग: गुलाबी संस्कृति का खत्म होता दौर

By शरद जोशी | Published: November 9, 2019 06:35 AM2019-11-09T06:35:01+5:302019-11-09T06:35:01+5:30

लड़कियों, तुम चाहे जितनी सजो, संवरो और नगर में घूमो, पर वह अच्छा अतीत गया जब कोई कालिदास तुम्हें काव्य की नायिका बना देता. अब तुम्हारे सौंदर्य पर  समर्पण करने के लिए कोई व्यक्ति सॉनेट लिखकर भेंट नहीं करता. अब.. अब तुम्हारी नजरों का भार उठाने शायरियां नहीं आतीं.

Sharad Joshi Blog: The end of pink culture | शरद जोशी का ब्लॉग: गुलाबी संस्कृति का खत्म होता दौर

तस्वीर का इस्तेमाल केवल प्रतीकात्मक तौर पर किया गया है। (Image Source: Pixabay)

अब गुल और बुलबुल के खानदान में झगड़े शुरू हो गए हैं. एक फूल को रंगीन कर देने के लिए अब बुलबुल कांटों की सूली पर अपने प्राण नहीं देती. अब भ्रमर अपनी रातें गुजारने किसी कमल पर नहीं जाते. जाते भी हों तो पता नहीं. अब कालिदास और गालिब का वक्त गया. वह नजर मर गई जो कभी फूल और जवान लड़की को देखकर छंदों की सृष्टि करती थी.

लड़कियों, तुम चाहे जितनी सजो, संवरो और नगर में घूमो, पर वह अच्छा अतीत गया जब कोई कालिदास तुम्हें काव्य की नायिका बना देता. अब तुम्हारे सौंदर्य पर  समर्पण करने के लिए कोई व्यक्ति सॉनेट लिखकर भेंट नहीं करता. अब.. अब तुम्हारी नजरों का भार उठाने शायरियां नहीं आतीं.

और इसी प्रकार बसंत आ जाता है. मास्टरनी की आज्ञा से लड़कियां पीली साड़ी पहन लेती हैं. धीरे-धीरे बहार चली जाती है. ऋतु श्रृंगार  कोई नहीं लिखता, क्योंकि आज का मनुष्य सर्राफे का मनुष्य है-बगीचों, बहारों और कविताओं का मनुष्य नहीं. और ऐसे मनुष्य के लिए फूल, फलों की प्रदर्शनी आयोजित की जाती है. अभी देहली में यही हुआ था. कई बगीचों के फूलों को पुरस्कार मिला. देहली के लोगों ने अपनी आंखें ठंडी की होंगी, क्योंकि उन्हें फूल छूने को नहीं मिलते.

फूल अब कपड़ों पर छपते हैं और प्यासे व्यक्ति उसका बुशर्ट पहनते हैं.

ये कवि लोग जो रजनीगंधा और मालती की बात करते हैं, उनके पिता जायदाद में इनके लिए कोई बगीचा नहीं छोड़ गए. ये आम के बौर नहीं छूते और बसंत पर प्रयोग लिखते हैं.

यानी गुलाबी संस्कृति अब खत्म हो रही है. टेबलों पर कागज के फूल और अखबार रह गए हैं, गुलदस्ते मुरझा गए हैं. आज की नारियां फूल जमाने की कला में निपुण नहीं होतीं. सोलहवीं-सत्रहवीं सदी में जापान में फूल सजाना और कमरे का सौंदर्य बढ़ाना अलग कला थी. चाय के कमरे फूलों से सजते थे. जापानी लड़कियों की पढ़ाई का आवश्यक विषय था फूल सजाना. फूल सजाना कविता लिखने जैसा है. अ™ोय ने कहा है: ‘छंद है यह फूल, पत्ती प्रास/ सभी कुछ में है नियम की सांस.’

यदि अध्ययन किया जाए तो यह मनोरंजक विषय है. सभ्यता के पिछले युगों में फूल कुछ विशेष प्रकार से जमाए जाते थे. समाज की उथल-पुथल और व्यक्ति की मनोवृत्ति का गुलदस्ते पर अप्रत्यक्ष प्रभाव पड़ता है. सभ्यता की प्राथमिक अवस्था में लोग गहरे रंग के फूल पसंद करते थे और विकास के युगों में हलके रंग चाहने लगे हैं. पर अब वह जमाना गया.

फूल की पंखुड़ी भगवान को चढ़ जाती है और हार सब नेता और वक्ता पहनकर उतार देते हैं. आदमी को देखने के लिए केवल यह नोटिस बचता है : ‘फल..फूलों को तोड़ने की सख्त मुमानियत है.’ 

(रचनाकाल - 1950 का दशक)

Web Title: Sharad Joshi Blog: The end of pink culture

भारत से जुड़ीहिंदी खबरोंऔर देश दुनिया खबरोंके लिए यहाँ क्लिक करे.यूट्यूब चैनल यहाँ इब करें और देखें हमारा एक्सक्लूसिव वीडियो कंटेंट. सोशल से जुड़ने के लिए हमारा Facebook Pageलाइक करे

टॅग्स :Indiaइंडिया