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गिरीश्वर मिश्र का ब्लॉग: सूचना के जंगल में सच की तलाश

By गिरीश्वर मिश्र | Updated: September 20, 2019 05:55 IST

दस साल के प्रकाशन को देखने के बाद इंडियन ओपीनियन के बारे में गांधीजी कहते हैं ‘इसमें मैंने एक भी शब्द बिना विचारे, बिना तौले लिखा हो, किसी को खुश करने के लिए लिखा हो अथवा जानबूझ कर अतिशयोक्ति की हो, ऐसा मुझे याद नहीं पड़ता’.

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ठळक मुद्देआज की डिजिटल होती दुनिया में जिस तरह सूचना-जंगल बढ़ रहा है.उसके बीच सही और प्रामाणिक को ढूंढ़ना बेहद उलझाऊ काम होता जा रहा है.

आजकल प्रतिदिन सच, झूठ, पूर्वाग्रह और ईमानदारी के आरोप और प्रत्यारोप राजनीति और अखबारों की दुनिया के महत्वपूर्ण हिस्से बनते जा रहे हैं. धीरे-धीरे आम आदमी की जिंदगी में भी यह एक बड़ा मुद्दा बनता जा रहा है. जब हम पाते हैं कि कोई नेता गलतबयानी कर रहा है तो बड़ा गुस्सा आता है. ऐसे ही जब खबरों की रपट में किसी तरह का पक्षपात और पूर्वाग्रह नजर आता है तो चिंता पैदा होती है कि जनता क्या सोचेगी. 

आज की डिजिटल होती दुनिया में जिस तरह सूचना-जंगल बढ़ रहा है, उसके बीच सही और प्रामाणिक को ढूंढ़ना बेहद उलझाऊ काम होता जा रहा है. एक तरह से देखें तो यह स्थिति आदमी के भरोसे पर आक्रमण होने जैसी है. अगर हम सच को झूठ से, पूर्वाग्रह को तटस्थता से, नकली (फेक) को असली से अलग न कर सकें तो तर्कसम्मत फैसले कैसे लेंगे? ऐसे हालात में तो सिर्फ शंका और संदेह ही फैलेगा और खबर, खबर न होकर मजाक बन जाएगी.  

सच और झूठ पर इस बहस  के दौरान महात्मा गांधी बरबस याद आ जाते हैं. वे आजीवन सत्य की तलाश में लगे रहे और देश-विदेश में अच्छी खासी पत्नकारिता भी की थी. वे असत्य को बड़ा खतरनाक मानते थे. उनके विचार आज भी प्रासंगिक हैं. वे पत्रकारिता को लोक-सेवा से जोड़ते हुए पत्रकारों को आत्मनियंत्रण की सीख देते हैं. उनकी चिंता यह थी कि स्वस्थ्य लोक दृष्टि कैसे पैदा हो? वे अखबार के लिए लोक शिक्षा को  ही सबसे महत्वपूर्ण कार्य मानते थे.  

दस साल के प्रकाशन को देखने के बाद इंडियन ओपीनियन के बारे में गांधीजी कहते हैं ‘इसमें मैंने एक भी शब्द बिना विचारे, बिना तौले लिखा हो, किसी को खुश करने के लिए लिखा हो अथवा जानबूझ कर अतिशयोक्ति की हो, ऐसा मुझे याद नहीं पड़ता’. एक जगह गांधीजी कहते हैं ‘ प्रेस को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहा जाता है. उसके शक्तिशाली होने में कोई संदेह नहीं, लेकिन उस शक्ति का दुरुपयोग करना अपराध है. मैं स्वयं पत्रकार हूं और अपने साथी पत्रकारों से अपील करता हूं कि वे अपने उत्तरदायित्व को समझें और अपना काम करते समय केवल इस विचार को प्रश्रय दें कि सच्चाई को सामने लाना है और उसी का पक्ष लेना है.’ सच यही है कि कृत्रिमता, एक पक्षीयता और पूर्वाग्रह से मुक्त होकर ही पत्रकारिता लोकतंत्र का हित कर सकेगी.

टॅग्स :सोशल मीडियामहात्मा गाँधी
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