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अभय कुमार दुबे का ब्लॉगः आरक्षण और आरएसएस की हिंदू एकता

By अभय कुमार दुबे | Updated: August 28, 2019 06:21 IST

मोहन भागवत जब यह कहते हैं तो आरक्षण समर्थक उन पर आरक्षण खत्म करने की साजिश करने का आरोप क्यों लगाते हैं? इसका कारण संघ के इतिहास में निहित है. जब संविधान ने अनुसूचित जातियों को आरक्षण दिया था, उस समय संघ के मुखपत्रों में इसकी आलोचना हुई थी.

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ठळक मुद्देराष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत ने एक बार फिर आरक्षण नीति पर बहस की अपील करके भाजपा और विपक्ष दोनों को 2015 की याद दिला दी है.मेरा विचार है कि आरक्षण नीति की समीक्षा करने की मोहन भागवत की इस अपील को आरक्षण विरोध या आरक्षण को समाप्त करने की साजिश कहना उस समय भी नादानी थी, और आज भी है. 

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत ने एक बार फिर आरक्षण नीति पर बहस की अपील करके भाजपा और विपक्ष दोनों को 2015 की याद दिला दी है. उस समय भी भागवत ने इस तरह की बात कह कर विवाद को निमंत्रण दिया था. मेरा विचार है कि आरक्षण नीति की समीक्षा करने की मोहन भागवत की इस अपील को आरक्षण विरोध या आरक्षण को समाप्त करने की साजिश कहना उस समय भी नादानी थी, और आज भी है. 

आरक्षण नीति की समीक्षा की उस समय भी जरूरत थी, और इस समय भी है. और तो और, यह जरूरत लगातार बढ़ती जा रही है. भागवत जैसी हस्तियां ऐसी अपील करें या न करें, आरक्षण समर्थकों को चाहिए कि वे इस नीति की सार्वजनिक जीवन में साख बचाने के लिए उसकी गहन और विस्तृत समीक्षा करने-करवाने का प्रयास करें, ताकि पिछले सत्तर साल में उसके भीतर आई विकृतियों से छुटकारा पाया जा सके. अगर ऐसा नहीं किया जाएगा तो यह नीति उत्तरोत्तर विवादास्पद होती चली जाएगी, और वह दिन दूर नहीं रह जाएगा जब इस नीति को बचाना उसके समर्थकों के लिए बेहद मुश्किल हो जाएगा. 

मोहन भागवत जब यह कहते हैं तो आरक्षण समर्थक उन पर आरक्षण खत्म करने की साजिश करने का आरोप क्यों लगाते हैं? इसका कारण संघ के इतिहास में निहित है. जब संविधान ने अनुसूचित जातियों को आरक्षण दिया था, उस समय संघ के मुखपत्रों में इसकी आलोचना हुई थी. उस समय संघ के मुखपत्र संविधान को ही उसकी संपूर्णता में स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं थे. वर्णाश्रम धर्म को कायम रखने का आग्रह संघ की कतारों में उस समय तो था ही, साठ के दशक में जब दीनदयाल उपाध्याय ने एकात्म मानववाद का सिद्धांत प्रतिपादित किया तो उसमें भी वर्णाश्रम को पश्चिमी समतामूलकता के पर्याय के रूप में पेश किया गया था. यह इतिहास स्वाभाविक रूप से शक पैदा करता है कि संघ और उसकी राजनीतिक भुजा भाजपा भले ही स्पष्ट रूप से न कहे, पर अंदर ही अंदर वह आरक्षण के विरोध में है. 

क्या हमें संघ के इस इतिहास पर जोर देते हुए उसके बाद के विचारों को अपनी समीक्षा के दायरे में नहीं लाना चाहिए? 1974 में बालासाहेब देवरस द्वारा पुणो की वसंत व्याख्यानमाला के तहत दिए भाषण के बाद संघ ने संविधान और आरक्षण का विरोध करना छोड़ दिया. उस व्याख्यानमाला में देवरस ने बिना नाम लिए दीनदयाल उपाध्याय की वर्णाश्रम संबंधी थ्योरी का भी खंडन कर दिया था. 

1990 में जब मंडल कमीशन की रपट लागू की गई और उसके विरोध में आरक्षण विरोधी आंदोलन चला तो भाजपा के नेता लालकृष्ण आडवाणी ने आरक्षण विरोधी छात्रों के बार-बार दबाव डालने के बावजूद उनकी हां में हां मिलाने से इंकार कर दिया था. अगर उस समय का भाजपा-घोषणापत्र देखा जाए तो उसमें आरक्षण का समर्थन था, और साथ में यह भी लिखा था कि भाजपा आíथक आधार पर आरक्षण के पक्ष में है. दरअसल, यहीं से आरक्षण का बिना विरोध किए हुए भाजपा ने इस नीति की समीक्षा करने या उसमें संशोधन करने के कार्यक्रम पर अमल करना शुरू किया. यह सिलसिला आज भी जारी है. उसने अंतत: ऊंची जातियों को आर्थिक आधार पर आरक्षण देकर इसे एक मुकाम तक भी पहुंचा दिया है. 

चूंकि भाजपा हर काम वोट बटोरने की मंशा से करती है, इसलिए उसके आरक्षण संबंधी उद्यम के केंद्र में आरक्षण की यादव और जाटव केंद्रित व्यावहारिक संरचना को तोड़ने की युक्तियां हैं. वह चाहती है कि अनुसूचित जातियों और अन्य पिछड़े वर्गो के बीच आरक्षण का सहारा लेकर उभरी इन दो प्रभुत्वशाली जातियों को राजनीति के हाशिये पर डालते हुए किसी तरह गैर-यादव और गैर-जाटव जातियों को अपने पाले में खींचा जाए. 

चाहे जस्टिस रोहिणी के नेतृत्व में बनाई गई कमेटी हो या ऐसी ही और पहलकदमियां हों, भाजपा की कोशिश है कि समाजवादी आंदोलन और आंबेडकरवादी आंदोलन के प्रभाव में आई कमजोर जातियों को छोड़ कर बाकी सभी कमजोर जातियां संघ की हिंदू एकता के छाते तले आ जाएं और पचपन से साठ फीसदी के बीच की हिंदू एकता कायम हो जाए. एक पार्टी के तौर पर भाजपा का मोदी के नेतृत्व में तेजी से ओबीसीकरण हुआ है. अगर वह और संघ परिवार आरक्षण के विरोधी होते तो ऐसा कभी न हो पाता. आज तो हालत यह है कि भाजपा को देश में सबसे ज्यादा ओबीसी और दलित वोट मिलते हैं. भाजपा के इस नए संस्करण के कारण उसके भीतर सक्रिय ऊंची जातियों के प्रतिनिधि अक्सर असहजता महसूस करने लगते हैं.

संघ आरक्षण का विरोधी न होने के बावजूद आरक्षण विरोधी क्यों लगता है? ऐसा इसलिए है कि संघ को ब्राrाणवाद विरोध और जाति-संघर्ष की भाषा पसंद नहीं है. इसीलिए आरक्षण विरोधी आंदोलन में सक्रिय ऊंची जातियों के छात्रों और युवकों के साथ हमदर्दी रखते हुए भी उसने खुल कर उनका साथ देने से परहेज किया. दरअसल, वह जातियों के साथ छेड़छाड़ नहीं करना चाहता, और इस प्रत्यय में फंसे बिना हिंदू समाज पर ऊपर से राजनीतिक एकता की ग्रिड डालने के उद्यम में लगा हुआ है. भाजपा के विरोधियों को मोहन भागवत की अपील इसी परिप्रेक्ष्य में समझनी चाहिए. संघ परिवार जानता है कि वह ब्राrाण-बनिया-ठाकुर-कायस्थ-भूमिहार संगठन बन हिंदू एकता कायम नहीं कर सकता. ओबीसी जातियों और दलित समुदायों की नई पीढ़ी उसके प्रति आकृष्ट होगी, तभी वह 21वीं सदी पर राजनीतिक-सामाजिक वर्चस्व कायम कर पाएगा.

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