राजेश बादल का ब्लॉग: विपक्ष का बिखरना लोकतंत्र के लिए ठीक नहीं
By राजेश बादल | Updated: July 15, 2020 06:23 IST2020-07-15T06:23:14+5:302020-07-15T06:23:14+5:30
मध्यकाल में हमने देखा है कि जब कोई बादशाह या महाराजा लंबी आयु तक राज करता था और उसका उत्तराधिकारी बूढ़ा होने लगता था तो वह संयम खो बैठता था. वह पिता को सिंहासन से हटा देता था, उसे कैद में डाल देता था और खुद सल्तनत का सुल्तान होने का ऐलान कर देता था

कांग्रेस में नए खून को मौका मिलना ही चाहिए. पार्टी के शिखर पदों पर भी यही सिद्धांत होना चाहिए.
मध्यप्रदेश के बाद अब राजस्थान से कांग्रेस के लिए अशुभ संकेत. दोनों ही पड़ोसी राज्यों में करीब-करीब एक जैसे राजनीतिक हालात बने. पुरानी पीढ़ी नई नस्ल को उसका वाजिब हक देने को तैयार नहीं थी. यह द्वंद्व इन प्रदेशों में पार्टी के नए सिरे से बिखरने के बीज बो गया. लोकसभा चुनाव के बाद छिन्न-भिन्न संगठन को मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान और पंजाब जैसे प्रदेशों ने किसी तरह जीवित रखा है.
दल की दोनों पीढ़ियों के कंधे से कंधा मिलाकर साथ चलने से यह संभव हो पाया. लेकिन सत्ता मिलते ही साथ चलने की भावना कपूर की तरह उड़ गई और पार्टी के नए-पुराने नेता सड़कों पर एक-दूसरे के खिलाफ उतर आए. जब देश के सबसे पुराने दल का यह हाल हो जाए तो स्वाभाविक सवाल है कि क्या दुनिया के इस सबसे बड़े लोकतंत्र की आंतरिक सेहत ठीक है?
मध्यकाल में हमने देखा है कि जब कोई बादशाह या महाराजा लंबी आयु तक राज करता था और उसका उत्तराधिकारी बूढ़ा होने लगता था तो वह संयम खो बैठता था. वह पिता को सिंहासन से हटा देता था, उसे कैद में डाल देता था और खुद सल्तनत का सुल्तान होने का ऐलान कर देता था. भारत का अतीत इन कथाओं से भरा पड़ा है. कुछ उदाहरण एक भाई के दूसरे को बेदखल करने के भी हैं. अर्थात सियासत के लिए संघर्ष अधिक था, सेवा के लिए कम. प्रजा उस सत्ता-संघर्ष के दो पाटों में सदियों से पिस रही है.
उसके दु:ख-सुख और खुशहाली की चिंता कुर्सी पर विराजे शिखर पुरुष नहीं करते थे. आज भी यही हो रहा है. आजादी के बाद नेहरू-युग को छोड़ दें तो भारतीय राजनीति इसी इतिहास को दोहराती रही है. आज राजशाही नहीं है, लेकिन सत्ता में बने रहने की प्रवृत्तियां बरकरार हैं. कहने में संकोच नहीं कि हम इन दिनों लोकतंत्र का विकृत संस्करण देख रहे हैं.
किसी भी गणतंत्र की स्थापित परंपरा कहती है कि पक्ष और प्रतिपक्ष मुल्क की गाड़ी के दो पहिए हैं. इन पहियों का आकार और रफ्तार एक जैसी होनी चाहिए. एक पहिया ट्रैक्टर के बड़े चक्के की तरह हो और दूसरा स्कूटर की तरह तो जम्हूरियत की गाड़ी फर्राटे से नहीं भाग सकती.
इस कारण पक्ष और विपक्ष की शक्ति और स्वर में आनुपातिक संतुलन आवश्यक है. मौजूदा राजनीतिक माहौल ऐसा नहीं है. सरकार चला रही भाजपा चक्रवर्ती सम्राट की भूमिका में है. उसके सहयोगी दल दरबारी से अधिक नहीं हैं तो विपक्ष में बैठी कांग्रेस अपने सबसे दुर्बल-निर्बल, कांतिहीन और आभारहित रूप में है. ऐसे में लोकतांत्रिक जिम्मेदारी कहीं खो जाती है. पक्ष अपने बलशाली रूप पर गर्व करते इठलाता घूमता है और प्रतिपक्ष गरीब की जोरू की तरह बेबस और असहाय.
कोई भी अपना ले और कोई भी छोड़ दे. आदर्श तो कहता है कि इन स्थितियों में प्रतिपक्ष को सबल बनाने का अवसर सत्तापक्ष को ही देना चाहिए. क्योंकि विपक्षविहीन देश पर तानाशाही सवार होने में देर नहीं लगती. नेहरू-युग में अनेक उदाहरण मिलते हैं, जब कांग्रेस ने प्रतिपक्ष के बांझ खेत में बीज बोकर उसे खाद-पानी देने का काम किया था. मगर आज आदर्श और नैतिकता को कौन पूछता है. सब कुछ बदल चुका है. सहमत और असहमत एक-दूसरे के समूचे विनाश पर उतारू हैं. इससे किसका नुकसान हो रहा है, कोई विचार करना नहीं चाहता.
लाख माथापच्ची के बाद निष्कर्ष यही है कि कांग्रेस को अपना घर ठीक करने की जरूरत है. ऐसा क्या हुआ कि नए ऊर्जावान और उत्साही नेताओं-कार्यकर्ताओं की फसल इन दिनों पार्टी में नहीं उगती. जिस दल में दशकों तक नौजवान खामोशी से पुराने नेताओं की जगह लेते रहे और पुराने राजनेता उन पर कभी गर्व तो कभी गुस्सा करते रहे, वे ही आपस में मरने-मारने पर उतारू हैं. क्या अशोक गहलोत, कमलनाथ और दिग्विजय सिंह को याद है कि जब उन्हें इंदिरा गांधी ने बड़े अवसर दिए, तब उनकी उमर क्या थी. तीस से पैंतीस बरस के बीच.
दिग्विजय सिंह और अशोक गहलोत चालीस-पैंतालीस साल की उमर में मुख्यमंत्री बनना पसंद कर सकते थे लेकिन उसी आयु के सचिन पायलट और ज्योतिरादित्य सिंधिया को मुख्यमंत्री बनते फूटी आंखों नहीं देखना चाहते. जिंदगी के जिस पड़ाव पर जो अवसर उन्हें पार्टी ने दिया था, वह अवसर वे अपने पुत्रों को तो दे रहे हैं, लेकिन पार्टी के प्रतिभाशाली नेताओं को नहीं. यह उमर चुनावी और पद राजनीति से ऊपर उठकर संगठन को मजबूत करने की है न कि बेटों के बराबर नौजवान नेताओं से टकराने की. सोचिए यदि 34 साल की आयु में प्रणब मुखर्जी को कांग्रेस मौका नहीं देती तो मुल्क एक बेहतरीन राजनेता से वंचित होता.
यह भी याद रखना होगा कि आज की पीढ़ी वह नहीं है, जो अनंत काल तक अवसर के इंतजार में बैठी रहेगी. सचिन और सिंधिया को अगर पैंतालीस-पचास साल का होने के बाद भी योग्यता दिखाने के लिए सीना चीरकर दिखाना पड़े कि दिलों में कांग्रेस बसती है तो निवेदन है कि वह समय बीत चुका. अब कोई ऐसा नहीं करेगा. उनके सामने विकल्प हैं, जिनका चुनाव वे कर रहे हैं. इसकी शिकायत नहीं बनती.
कांग्रेस में नए खून को मौका मिलना ही चाहिए. पार्टी के शिखर पदों पर भी यही सिद्धांत होना चाहिए. ध्यान दें कि इंदिरा गांधी ने भी इसी आयु में पार्टी से निकलकर नई कांग्रेस को जन्म दिया था. दस बरस बाद उन्होंने वर्तमान कांग्रेस को पैदा किया. अगर नया खून ऐसा करे तो एतराज क्यों करना चाहिए.