राजेश बादल का ब्लॉग: कोरोना काल में अवसाद बढ़ाते असंगत फैसले
By राजेश बादल | Updated: April 22, 2020 11:15 IST2020-04-22T11:15:51+5:302020-04-22T11:15:51+5:30
भारत में सैकड़ों लोगों ने लॉकडाउन के कारण शादियां स्थगित कर दीं, जन्मदिन पार्टियां रद्द कर दीं, तमाम बड़े-बड़े आयोजन नहीं हुए. लेकिन एक पूर्व प्रधानमंत्नी और पूर्व मुख्यमंत्नी रहे देवेगौड़ा परिवार ने कोरोना के दिशा-निर्देशों की धज्जियां उड़ा दीं. उनके परिवार में धूमधड़ाके से शादी हुई. करीब चार सौ गाड़ियां वहां पहुंचीं. यानी डेढ़ से दो हजार लोगों का जमावड़ा. इसका क्या संदेश जाता है?

हाल में लॉकडाउन के दौरान कर्नाटक के पूर्व सीएम एचडी कुमारस्वामी के बेटे का शादी हुई। (फोटो- सोशल मीडिया)
प्रधानमंत्नी ठीक कहते हैं. कोरोना वायरस कोई भेदभाव नहीं करता. लेकिन राज्य सरकारों का क्या किया जाए. वे ऐसा नहीं मानतीं. उनका मानना है कि वीआईपी लोगों पर कोरोना का असर नहीं होता. इसका असर आम आदमी पर ही होता है. इसीलिए बिहार के एक भाजपा विधायक अपने बेटे को राजस्थान के कोटा से लाने के लिए सरकारी फरमान लेकर आते हैं और उन्हें अपनी गाड़ी में लेकर चले जाते हैं. उनके बच्चे वहां कोचिंग के लिए रह रहे थे.
इससे पहले मुख्यमंत्नी नीतीश कुमार साफ कह चुके थे कि दूसरे राज्यों में फंसे बिहारी लोगों के लिए कोई प्रयास नहीं किए जाएंगे. उनका कहना था कि इससे लॉकडाउन की मर्यादा-भंग होती है. इसी वजह से उन्होंने अन्य राज्यों में फंसे बिहार के लोगों को लाने के कोई प्रयास नहीं किए और न ही प्रधानमंत्नी के साथ चर्चा में अपने प्रदेश के नागरिकों के लिए मुंह खोला.
कोटा देश का बड़ा कोचिंग केंद्र है. वहां बिहार के सैकड़ों छात्न कोचिंग में पढ़ाई करते हैं. यहां तक कि महाराष्ट्र सरकार ने अफरातफरी के माहौल में केंद्र के समक्ष यह मसला उठाया कि दो दिन के लिए उत्तर प्रदेश और बिहार के लिए रेल यातायात बहाल किया जाए, जिससे लोग अपने स्थायी बसेरों की ओर लौट सकें तो भी नीतीश कुमार ने समर्थन नहीं किया. मगर भाजपा विधायक के पितृत्व का मान रखने के लिए उन्होंने सारे नियम-कायदे ताक पर रख दिए.
समाजवादी नीतीश कुमार कभी इसके लिए खेद प्रकट करेंगे? आपको याद होगा कि उत्तर प्रदेश सरकार ने ढाई सौ बसें कोटा भेजी थीं. इनमें उत्तर प्रदेश के छात्नों को वहां से लाया गया था. जब दिल्ली से बड़ी संख्या में पलायन हुआ तो नोएडा-दिल्ली सीमा पर भी इसी राज्य सरकार ने बसों की कतार लगा दी थी. तो माना जाए कि योगी सरकार लॉकडाउन की मर्यादा भंग कर रही है.
सवाल यह नहीं है कि उन्होंने अपनी सरकार की सहयोगी गठबंधन पार्टी के दबाव में ऐसा किया. असल सवाल तो यह है कि जनता इन दिनों पहले ही कोरोना के कोहराम में जी रही है. लंबी घरबंदी के चलते करोड़ों लोग एक तरह से अवसाद में जी रहे हैं.
चूंकि इसमें सरकार का कोई छिपा हुआ स्वार्थ नहीं है, इसलिए वह समझती है कि देशवासियों की सलामती के लिए यह कदम जरूरी है. लेकिन जब आबादी देखती है कि सरकारी फैसले भी आम और खास में फर्क करते हैं तो वह अवसाद गहरा जाता है. विधायक का बेटा होने के नाते उसे कोटा में भी न्यूनतम जीवन सुविधाएं हासिल थीं. लेकिन क्या कोई इस तथ्य से इनकार करेगा कि करोड़ों लोग बुनियादी सुविधाओं के अभाव में दम तोड़ रहे हैं.
बात सिर्फ बिहार तक ही सीमित नहीं है. केंद्र सरकार ने स्पष्ट कर दिया था कि लॉकडाउन की अवधि में किसी की नौकरी नहीं जाएगी. चाहे वह एक मजदूर हो या कोई आला अफसर. प्रधानमंत्नी नरेंद्र मोदी ने भी बार-बार कहा कि केंद्र और राज्य सरकारों के इस निर्णय के कारण किसी को सड़क पर नहीं आना पड़ेगा. पर इस मामले में यह भेदभाव भी शर्मनाक है. लोकतंत्न का सर्वोच्च मंदिर संसद का लोकसभा सचिवालय तक इसका आदर करता है. वह लोकसभा टेलीविजन के सीईओ को हटाने का पत्न जारी करने के बाद उसे वापस लेता है कि कोरोना काल में किसी को हटाया नहीं जाएगा. नए सिरे से नौकरी बहाल करने का परिपत्न जारी करता है.
हिमाचल प्रदेश के केंद्रीय विश्वविद्यालय के कुलपति को सेवानिवृत्त होने से पहले ही एक्सटेंशन मिल जाता है, लेकिन माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्नकारिता विश्वविद्यालय के कुलपति को इस्तीफा देने का संदेश दिया जाता है. इस्तीफा मिलते ही आनन-फानन में उन्हें रविवार को कार्यमुक्त कर दिया जाता है. विश्वविद्यालय के कुलाधिसचिव से भी इस्तीफा लिया जाता है. प्रधानमंत्नी के निर्देशों का मखौल उड़ाते हुए राज्य सरकार सोचती भी नहीं. यह विरोधाभासी व्यवहार आम जनता के मन में खिन्नता और अवसाद बढ़ाता ही है.
भारत में सैकड़ों लोगों ने लॉकडाउन के कारण शादियां स्थगित कर दीं, जन्मदिन पार्टियां रद्द कर दीं, तमाम बड़े-बड़े आयोजन नहीं हुए. लेकिन एक पूर्व प्रधानमंत्नी और पूर्व मुख्यमंत्नी रहे देवेगौड़ा परिवार ने कोरोना के दिशा-निर्देशों की धज्जियां उड़ा दीं. उनके परिवार में धूमधड़ाके से शादी हुई. करीब चार सौ गाड़ियां वहां पहुंचीं. यानी डेढ़ से दो हजार लोगों का जमावड़ा. इसका क्या संदेश जाता है?
इसी तरह दिल्ली प्रदेश के जिलों में एक महीने से सारी रात पुलिस की मोटरसाइकिलें और गाड़ियां तेज आवाज में सायरन की चीख से लोगों को सोने नहीं दे रही हैं. इसके अलावा चौराहों पर चौबीस घंटे धारा 144 लागू होने का संदेश फुल वॉल्यूम में बजा रही हैं.
एकबारगी दिन में इसका प्रसारण उचित भी मान लिया जाए मगर रात ग्यारह बजे से सुबह सात बजे तक इसे क्यों बजाया जाता है? डॉक्टर्स का कहना है कि रात में नहीं सोने देने से स्वास्थ्य पर उल्टा असर पड़ता है. यह स्थिति अवसाद, खौफ या तनाव बढ़ाती है. क्या किसी के पास इस बात का उत्तर है कि सायरन की चीखों और ध्वनिविस्तारक यंत्नों का शोर मंत्नी और सांसदों के निवास के पास क्यों नहीं सुनाई देता? आम और खास में भेदभाव अच्छा नहीं है. ध्यान रखा जाना चाहिए कि कोरोना का कहर तो दो-चार महीने में समाप्त हो जाएगा, लेकिन सियासतदानों और नौकरशाहों की सामंती सोच समाप्त होना लोकतंत्न के लिए बहुत आवश्यक है.