हमारे यहां अक्सर कहा जाता है कि यदि भगवान एक मुंह दुनिया में भेजता है तो उसके साथ दो हाथ भी भेजता है. यह तर्क उन लोगों द्वारा दिया जाता है जो संतान को ईश्वरीय देन मानते हैं.
लेकिन दुनिया की हकीकत यह है कि लगातार बढ़ती आबादी संसाधनों की कमी का कारण बनती जा रही है और इसीलिए दुनिया भर में आबादी को कम करने, सीमित रखने की बातें हो रही हैं, कोशिशें होती रहती हैं. जहां तक हमारे भारत का संबंध है, आबादी की समस्या सचमुच गंभीर है. जब हम आजाद हुए थे तो हमारी आबादी 33 करोड़ थी, अब यह बढ़ते-बढ़ते 133 करोड़ का आंकड़ा पार कर चुकी है.
देश के पहले प्रधानमंत्नी जवाहरलाल नेहरू से 1947 में एक विदेशी पत्नकार ने देश की समस्याओं के बारे में पूछा था तो उन्होंने उत्तर दिया था कि उनके सामने 33 करोड़ समस्याएं हैं. वे कहना चाहते थे कि हर नागरिक के साथ समस्या जुड़ी होती है और हर नागरिक की समस्या का समाधान जरूरी है. स्पष्ट है कि 1947 की तुलना में आज हमारी समस्याएं कहीं ज्यादा हैं.
निस्संदेह इस बीच हमारे संसाधनों में भी वृद्धि हुई है और उसका लाभ हमारी बढ़ती आबादी को मिला है. लेकिन समस्या की विकरालता को देखते हुए आबादी को सीमित रखने की हमारी कोशिशें उतनी सफल नहीं हुईं जितनी कि आवश्यकता और अपेक्षा थी. नेहरू के सामने 33 करोड़ समस्याएं थीं, आज देश 133 करोड़ समस्याओं के समाधान की कोशिश कर रहा है.
चुनौती बहुत बड़ी है. सवाल हर मुंह को खाना देने का ही नहीं है, सवाल हर हाथ को काम देने का भी है, हर सिर के लिए छत उपलब्ध कराने का भी है. सवाल सिर्फजीने का ही नहीं है, सवाल ढंग का जीवन जीने का है. ऐसी स्थिति में जनसंख्या सीमित रखने की हर कोशिश का स्वागत ही होना चाहिए. ऐसी एक कोशिश का संकेत उत्तर प्रदेश की योगी सरकार ने दिया है.
विश्व जनसंख्या दिवस (11 जुलाई) के अवसर पर उत्तर प्रदेश सरकार ने अपनी जनसंख्या-नीति का मसौदा सार्वजनिक किया है. इसमें परिवार में बच्चों की संख्या सीमित रखने को एक कारगर उपाय की तरह से सामने लाया गया है. नीति में प्रोत्साहन भी हैं और प्रतिबंध भी. ‘हम दो, हमारे दो’ के पुराने नारे को फिर से सामने लाया गया है.
सरकार ने राज्य की जनता से इस नीति के बारे में सुझाव भी मांगे हैं. प्रदेश के मुख्यमंत्नी का कहना है कि इस नीति का उद्देश्य जनसंख्या को नियंत्रित करना और जनता के अलग-अलग वर्गो में एक संतुलन बनाना है. हालांकि इस संतुलन को परिभाषित नहीं किया गया है, पर यह बात छिपाने की कोशिश भी नहीं की गई कि उनका इशारा हिंदुओं और मुसलमानों की प्रजनन दर में एक संतुलन लाना है.
यह संतुलन वाली बात राज्य की सरकार के छिपे एजेंडे को सामने लाती है, ऐसा कुछ वर्गो का कहना है. यह कोई छिपा रहस्य नहीं है कि भाजपा, खासकर उससे जुड़े हिंदू संगठन, लगातार इस बात का प्रचार करते रहे हैं कि देश के अन्य वर्गो की तुलना में मुस्लिम जनसंख्या में वृद्धि की दर कहीं ज्यादा है.
उनका यह भी कहना है कि यदि स्थिति यही बनी रही तो वह दिन दूर नहीं, जब देश में मुसलमानों की संख्या हिंदुओं से भी अधिक हो जाएगी. इस निष्कर्ष के लिए वे कौन-सा गणित लगाते हैं, पता नहीं, पर यह बात सब जानते हैं कि इस तरह का प्रचार देश में सांप्रदायिक वैमनस्य को बढ़ावा ही देता है. जहां तक जनसंख्या को नियंत्रित करने और सीमित रखने का सवाल है, शायद ही किसी को कोई आपत्ति हो सकती है. मुंह और दो हाथ वाला तर्क हमारी आज की स्थिति में कुछ मायने नहीं रखता. हकीकत यह भी है कि अपवाद भले ही हों, पर देश का बहुमत जनसंख्या सीमित रखने के प्रयासों का समर्थक ही है.
आपत्ति तब होती है जब सवालिया निशान मंशा पर लगने लगता है. आवश्यकता देश की जनसंख्या को सीमित रखने की है, पर जब इस आवश्यकता को हिंदू और मुसलमान में या ईसाई में बांट कर देखा जाने लगे तो मंशा पर संदेह होना स्वाभाविक है. सच तो यह है कि भारतीय समाज को धर्म के आधार पर बांटना ही गलत है.
भारत की आबादी का नियंत्रित रहना मुसलमानों के लिए भी उतना ही जरूरी है जितना हिंदुओं के लिए. और देश का मुसलमान इस बात को समझ भी रहा है. दोनों ही धर्मो के अनुयायियों में आ रही प्रजनन दर की कमी इस बात का स्पष्ट संकेत देती है. और स्पष्ट संकेत इस बात के भी मिल रहे हैं कि हिंदुओं और मुसलमानों, दोनों में जैसे-जैसे सामाजिक-आर्थिक स्थिति में सुधार हो रहा है, जनसंख्या-नियंत्नण के बारे में जागरूकता भी बढ़ती जा रही है. उत्तर प्रदेश के इस जनसंख्या-नियंत्नण विधेयक के प्रारूप में प्रोत्साहन और दंड दोनों का विधान है.
जो दो बच्चों के नियम का पालन करेंगे, उन्हें सरकारी योजनाओं-नौकरियों में कई तरह के प्रोत्साहन दिए जाएंगे और जो पालन नहीं करेंगे, उन्हें कई योजनाओं-प्रावधानों से वंचित रखा जाएगा. ज्ञातव्य है कि राजस्थान, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, गुजरात, ओडिशा और असम जैसे कुछ राज्यों में पहले से प्रोत्साहन-प्रतिबंध की व्यवस्था है.
इसकी तुलना में केरल, कर्नाटक और तमिलनाडु जैसे दक्षिण भारत के राज्यों में ऐसी किसी नीति के न होने के बावजूद प्रजनन-दर में अच्छी-खासी कमी आई है. इन राज्यों ने शिक्षा और जागरूकता पर बल दिया है. इसलिए सवाल नीयत का भी है. जनसंख्या की समस्या समूचे भारतीय समाज को प्रभावित कर रही है, इसे टुकड़ों में बांट कर नहीं देखा जा सकता.