मुफ्त सुविधाओं के वादों की झड़ी?, लोक-लुभावन राजनीति का नहीं घट रहा चलन
By हरीश गुप्ता | Updated: October 1, 2025 05:24 IST2025-10-01T05:24:08+5:302025-10-01T05:24:08+5:30
भाजपा महिलाओं, युवाओं और अन्य लक्षित मतदाताओं के खातों में सीधे नकद हस्तांतरण के दम पर एक के बाद एक चुनाव जीत रही है.

सांकेतिक फोटो
केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने सार्वजनिक रूप से कहा है कि केंद्र सरकार उन राज्यों की मदद नहीं कर सकती जो अवास्तविक चुनावी वादे करके अपना खजाना खाली कर देते हैं. वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने पिछले महीने एक टीवी कार्यक्रम में चुनावों से पहले राजनीतिक दलों द्वारा मुफ्त सुविधाओं के वादों की झड़ी लगाने की निंदा की और कहा कि सार्वजनिक वित्त से निपटने में इस तरह की लापरवाही को हतोत्साहित किया जाना चाहिए. हालांकि भाजपा महिलाओं, युवाओं और अन्य लक्षित मतदाताओं के खातों में सीधे नकद हस्तांतरण के दम पर एक के बाद एक चुनाव जीत रही है.
उसने हरियाणा, महाराष्ट्र और दिल्ली विधानसभा चुनावों में इसी नकद हस्तांतरण के बल पर जीत हासिल की. बिहार में चुनाव नजदीक आते ही मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने कल्याणकारी योजनाओं के द्वार खोल दिए हैं, और वोटों के लिए महिलाओं व युवाओं को लक्षित कर योजनाएं बना रहे हैं. नीतीश की इस योजना पर सालाना 40,000 करोड़ रुपए से ज्यादा खर्च होंगे, जो राज्य के संसाधनों का 66 प्रतिशत है.
पिछले दिनों, प्रधानमंत्री ने स्वयंसहायता योजना के तहत 75 लाख महिलाओं के खातों में दस-दस हजार रुपए, यानी कुल 7,500 करोड़ रु. सीधे हस्तांतरित किए. इसकी शुरुआत 80 के दशक में ‘कृषि बेल्ट’ राज्यों में पारंपरिक कृषि ऋण माफी योजनाओं या दिवंगत प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी द्वारा सार्वजनिक वितरण प्रणाली के तहत मुफ्त राशन के वादे से हुई थी.
हाल के वर्षों में, भारत में चुनावों के पूर्व नकदी बांटने, बेरोजगारी भत्ता देने, मासिक पैसा देने जैसे वादे आम हो गए हैं. वर्ष 2014 से, नौ राज्यों ने लगभग 2.53 लाख करोड़ रुपए की कृषि ऋण माफी की घोषणा की, लेकिन मार्च 2022 तक 3.7 करोड़ पात्र किसानों में से केवल 50 प्रतिशत ही वास्तव में लाभान्वित हुए थे.
दिल्ली में 1.5 करोड़ मतदाताओं में से लगभग 71 लाख महिला मतदाताओं के लिए भाजपा ने 2,500 रुपए प्रति माह के साथ ही अन्य भत्ते देने का वादा किया था. मुफ्त के ये उपहार सरकारी खजाने को बहुत महंगे पड़ते हैं. एक अध्ययन के अनुसार 21 राज्य सरकारों ने राज्य चुनावों से ठीक पहले छूट की घोषणा की, जिनमें से केवल चार में हार मिली. अधिकांश राज्य सरकारों ने चुनावी वादों की फसल काटी.
राहुल की नागरिकता पर सवाल ?
कांग्रेस नेता राहुल गांधी की नागरिकता पर बहस फिर से शुरू हो गई है, इस बार प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) के इसमें शामिल होने के साथ. यह विवाद नया नहीं है. वर्षों पहले, सोनिया गांधी का नाम मतदाता सूची में शामिल किए जाने के खिलाफ एक याचिका दायर की गई थी, जिसमें आरोप लगाया गया था कि उस समय वह भारतीय नागरिक नहीं थीं.
उस याचिका को अदालत ने खारिज कर दिया था. हालांकि राहुल गांधी का मामला इलाहाबाद उच्च न्यायालय में लंबित है. भाजपा कार्यकर्ता एस. विग्नेश शिशिर ने आरोप लगाया है कि राहुल के पास ब्रिटिश नागरिकता है और उन्होंने मांग की है कि उनकी भारतीय नागरिकता रद्द की जाए. मामले ने अप्रत्याशित मोड़ तब ले लिया जब ईडी ने 9 सितंबर को शिशिर को तलब किया.
इससे लोगों में हड़कंप मच गया और इस बात को लेकर अटकलें लगाई जाने लगीं कि क्या एजेंसी अब राहुल की नागरिकता के मामले में सबूत जुटा रही है. आधिकारिक तौर पर, ईडी ने कहा है कि उसकी जांच विदेशी मुद्रा प्रबंधन अधिनियम (फेमा) के संभावित उल्लंघन से संबंधित है. शिशिर के अनुसार, राहुल ने विदेश में व्यावसायिक गतिविधियों को बढ़ावा देने के लिए ब्रिटिश नागरिकता प्राप्त की.
उन्होंने दावा किया है कि उनके पास लंदन, वियतनाम और उज्बेकिस्तान के दस्तावेज हैं जो कथित तौर पर उनके दावे का समर्थन करते हैं. बताया जा रहा है कि ईडी राहुल के विदेशी व्यवसायों, आय के स्रोतों और बैंक खातों के बारे में जानकारी इकट्ठा कर रही है. शिशिर ने एजेंसी को वास्तव में क्या बताया,
इसका खुलासा नहीं किया गया है. लेकिन ईडी के हस्तक्षेप ने वर्षों से चले आ रहे एक विवाद को और हवा दे दी है. देखना यह है कि यह जांच सिर्फ वित्तीय जांच ही रहेगी या राहुल गांधी की राजनीतिक पहचान के इर्द-गिर्द किसी बड़े मामले में बदल जाएगी.
तेजस्वी ने ‘परिवार-विहीन’ राह चुनी!
राजद के प्रथम परिवार के भीतर एक खामोश लेकिन कड़वा झगड़ा चल रहा है. बड़े बेटे तेजप्रताप यादव को पार्टी और घर, दोनों से दरकिनार किए जाने के बाद, अब लालू प्रसाद यादव की बड़ी बहू ऐश्वर्या राय नाखुश दिख रही हैं. दोनों घटनाओं के केंद्र में एक ही शख्स है- तेजस्वी के मुख्य रणनीतिकार संजय यादव. हरियाणा के मूल निवासी संजय, तेजस्वी के लिए अपरिहार्य हो गए हैं.
अंदरूनी सूत्रों का कहना है कि उन्होंने पार्टी का ऐसा ढांचा तैयार किया है जहां लालू का दबदबा भी कम होता जा रहा है. राजद के सुनहरे दिनों में, कार्यकर्ता ‘पंच देवता’ - लालू, राबड़ी, तेजस्वी, तेजप्रताप और मीसा भारती - के आगे नतमस्तक रहते थे. रोहिणी आचार्य इस खेल में नई खिलाड़ी हैं. आज, पार्टी एक नए एकेश्वरवाद के तहत काम करती है,
जहां तेजस्वी की इच्छा को अमलीजामा पहनाने वाले संजय के वचन ही सब कुछ हैं. रणनीति स्पष्ट है. यादव परिवार का सिर्फ एक सदस्य चुनाव लड़ेगा- खुद तेजस्वी. राघोपुर विधानसभा सीट उनका गढ़ बनी हुई है. जब तेज प्रताप ने विरोध किया तो उन्हें अपने छोटे भाई से मिलने तक नहीं दिया गया और बाहर का रास्ता दिखा दिया गया.
ऐश्वर्या, जो 2019 का लोकसभा चुनाव सारण से मामूली अंतर से हार गई थीं, पर लालू फिर से विचार कर रहे थे. लेकिन संजय ने यह तर्क देते हुए इसे नकार दिया कि परिवार के बहुत सारे उम्मीदवार वंशवाद के आरोपों को मजबूत करेंगे. इसके पीछे छिपा हुआ दांव है किसी भी भाई-बहन या रिश्तेदार को संभावित चुनौती के रूप में उभरने से रोकना.
एक आकस्मिक पहलू भी है. तेजस्वी भ्रष्टाचार के मामलों का सामना कर रहे हैं. अगर दोषी ठहराए जाते हैं, और अगर उनके भाई-बहन विधायक पद पर आसीन होते हैं, तो उनमें से कोई एक स्वतः ही नेतृत्व की कुर्सी पर आ सकता है. सभी भाई-बहनों को बाहर रखकर, तेजस्वी यह सुनिश्चित कर रहे हैं कि कोई भी प्रतिद्वंद्वी सत्ता केंद्र विकसित न हो.
पहली बार, तेजस्वी पार्टी में अपनी राह खुद तय करने की कोशिश कर रहे हैं- अपने पिता के संरक्षण और परिवार के दबावों से अलग. वे चाहते हैं कि राजद उनके पीछे ही एकजुट हो, न कि पूरे कुनबे के इर्द-गिर्द. ऐसा करने से, वह अपने भाई-बहनों को अलग-थलग करने का जोखिम उठा रहे हैं, लेकिन पार्टी के भविष्य पर निर्विवाद नियंत्रण भी सुनिश्चित कर रहे हैं.
और अंत में
बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने मुख्यमंत्री महिला रोजगार योजना की घोषणा की थी. लेकिन जब इसकी शुरुआत हुई तो प्रधानमंत्री मोदी ने 75 लाख महिलाओं के खातों में 7500 करोड़ रुपए जमा किए. यह शायद पहली बार है जब किसी मुख्यमंत्री के नाम पर किसी कल्याणकारी योजना का शुभारंभ प्रधानमंत्री ने अपनी मौजूदगी में किया हो. बिहार चुनाव महिला, मंदिर और मोदी के नाम पर लड़ा जाएगा - भाजपा ने नीतीश कुमार का कोई जिक्र नहीं किया. क्या चुनाव से पहले ही कोई नई पटकथा लिखी जा रही है?




