Pahalgam attack: पहलगाम हमले की जवाबी कार्रवाई के लिए बनी राजनीतिक सहमति पर लगते सवालिया निशान चिंताजनक हैं. ‘ऑपरेशन सिंदूर’ की बाबत पाकिस्तान को सूचित करने से लेकर नापाक पाक का सच तथा आतंकवाद पर भारत की ‘जीरो टॉलरेंस’ नीति दुनिया को बताने के लिए सात सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल के चयन तक सत्तापक्ष और विपक्ष के बीच आरोप-प्रत्यारोपों से ये सवालिया निशान लग रहे हैं. पहलगाम हमले के बाद भी केंद्र सरकार ने सर्वदलीय बैठक बुलाई और ऑपरेशन सिंदूर के बाद भी. विपक्ष ने दोनों बैठकों में प्रधानमंत्री की अनुपस्थिति पर सवाल उठाए,
लेकिन सेना के शौर्य की प्रशंसा करते हुए सरकार के साथ एकजुटता दोहराई. सवाल अनुत्तरित है कि विदेश मंत्री जयशंकर द्वारा ऑपरेशन सिंदूर की बाबत पाकिस्तान को सूचित करने के बारे में तब क्यों नहीं बताया गया? भारत विरोधी आतंकवाद का पालन-पोषण करनेवाले देश को ही आतंकियों के विरुद्ध कार्रवाई की सूचना का औचित्य भी समझ से परे है.
अंतरराष्ट्रीय महत्व के मामलों में सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल पहले भी भेजे जाते रहे हैं. 1994 में कश्मीर पर भारत का पक्ष रखने के लिए पी.वी. नरसिंह राव सरकार ने विपक्ष के नेता अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में प्रतिनिधिमंडल संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार आयोग भेजा था. 26 नवंबर, 2008 को मुंबई पर आतंकी हमले के बाद भी मनमोहन सिंह सरकार ने बहुदलीय प्रतिनिधिमंडल विदेश भेजे थे,
जिन्होंने दुनिया को पाकिस्तानी आतंकवाद का सच बताया था. विदेश नीति और राष्ट्रीय सुरक्षा पर भारत में राजनीतिक सहमति की परंपरा रही है, जिसके अब खंडित होने के संकेत चिंताजनक हैं. भाजपा विपक्ष के सवालों को देश हित के प्रतिकूल बता रही है तो विपक्ष उसकी तिरंगा यात्रा को सेना के शौर्य का राजनीतिक लाभ उठाने की कोशिश मानता है.
अचानक संघर्ष विराम और अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प द्वारा उसका श्रेय लेने की कोशिशों तथा संसद का विशेष सत्र बुलाने की मांग पर भी सत्तापक्ष और विपक्ष में तल्खी साफ दिखी. फिर भी सात सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल विदेश भेज नापाक पड़ोसी देश के आतंकी चरित्र को बेनकाब कर उस पर वैश्विक कूटनीतिक दबाव बनाना बेहतर रणनीति है.
हर प्रतिनिधिमंडल कई देशों में जाएगा और पाक प्रायोजित आतंक से पीड़ित भारत का पक्ष बताएगा, लेकिन उनमें चीन, तुर्किये और अजरबैजान का नाम न होना चौंकाता है. हाल में ये देश पाकिस्तान के पैरोकार बनते दिखे. श्रीलंका, नेपाल, भूटान जैसे पड़ोसी देश भी सूची में नहीं हैं. चार प्रतिनिधिमंडल का नेतृत्व सत्तारूढ़ राजग, जबकि तीन का नेतृत्व विपक्षी गठबंधन ‘इंडिया’ के सदस्य करेंगे.
प्रतिनिधिमंडलों में गैर सांसद राजनेता भी हैं और विषय की बेहतर जानकारी रखनेवाले राजनयिक भी. इसीलिए इन्हें संसदीय के बजाय सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल कहा जाएगा. ‘एक देश-एक संदेश’ मुखर करने की इस कूटनीतिक रणनीति पर राजनीतिक रार के मूल में हैं शानदार राजनयिक पृष्ठभूमिवाले पूर्व विदेश राज्य मंत्री शशि थरूर.
सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडलों के लिए संसदीय कार्य मंत्री किरण रिजिजू द्वारा चार नाम मांगने पर कांग्रेस ने पार्टी में अंतरराष्ट्रीय मामलों के संभवत: सबसे बेहतर जानकार थरूर का नाम नहीं भेजा, पर सरकार ने खुद उन्हें चुनते हुए एक प्रतिनिधिमंडल का नेता बना दिया. विवादों के बीच भी अच्छी बात है कि कांग्रेस ने कहा है कि प्रतिनिधिमंडलों में चुने गए सदस्य ‘देश के लिए अपने कर्तव्य का निर्वाह’ करेंगे, लेकिन हर मामले में राजनीति भविष्य के लिए शुभ संकेत नहीं.