ब्लॉग: अनूठा था नेताजी सुभाषचंद्र बोस का स्वाधीनता का मंत्र
By कृष्ण प्रताप सिंह | Published: January 23, 2023 10:20 AM2023-01-23T10:20:56+5:302023-01-23T10:30:32+5:30
देशवासियों ने नेताजी सुभाषचंद्र बोस के 18 अगस्त, 1945 को ताइपेह में हुई विमान दुर्घटना में निधन की खबर को खारिज कर उन्हें अपनी स्मृतियों में जिंदा रखा। इस उम्मीद के साथ कि वे एक बार फिर अपना महानायकत्व प्रमाणित करते हुए लौट आएंगे।
नई दिल्ली: ब्रिटिश साम्राज्यवाद के शिकंजे से देश की मुक्ति के नेताजी सुभाषचंद्र बोस के बहुविध प्रयत्नों को मोटे तौर पर दो हिस्सों में बांटा जा सकता है। 16 जनवरी, 1941 से पहले के प्रयत्नों को पहले तथा उसके बाद के प्रयत्नों को दूसरे हिस्से में रखा जा सकता है। दरअसल, 16 जनवरी ही वह तारीख है, जब अपनी नजरबंदी के दौरान वेश बदलकर गोरी सत्ता को छकाते हुए वे देश की सीमा के पार गए और सशस्त्र मुक्ति संघर्ष के लिए दिन-रात एक करके आजाद हिंद सेना गठित की। आजाद हिंद सेना के सर्वोच्च कमांडर की हैसियत से 21 अक्तूबर, 1943 को उन्होंने स्वतंत्र भारत की अस्थायी सरकार बनाई, तो दुनिया ने उसे चमत्कृत होकर देखा था।
'जय हिंद', 'दिल्ली चलो' और 'तुम मुझे खून दो मैं तुम्हें आजादी दूंगा' जैसे जोशीले नारों के साथ आजाद हिंद सेना कई भारतीय क्षेत्रों को मुक्त कराते हुए अप्रैल, 1944 में कोहिमा आई तो विकट मुकाबले में न उसकी एक चल पाई, न उसकी सहयोगी जापानी सेना की। नेताजी ने फिर भी हौसला नहीं खोया और मुक्ति युद्ध के नए प्रयत्नों में लग गए। छह जुलाई, 1944 को रंगून रेडियो से एक प्रसारण में उन्होंने निर्णायक युद्ध में विजय के लिए महात्मा गांधी की शुभकामनाएं व आशीर्वाद भी मांगे। यह और बात है कि नियति ने उनकी किसी भी जुगत को मंजिल तक नहीं पहुंचने दिया।
फिर भी देशवासियों ने उनके शौर्य को लेकर न सिर्फ नाना प्रकार के मिथ रचे, बल्कि 18 अगस्त, 1945 को ताइपेह में हुई विमान दुर्घटना में उनके निधन की खबर को खारिज कर अपनी स्मृतियों में जिंदा रखा। इस उम्मीद के साथ कि वे एक बार फिर अपना महानायकत्व प्रमाणित करते हुए लौट आएंगे। लेकिन उनके यों मिथ बन जाने का एक बड़ा नुकसान हुआ कि 16 जनवरी, 1941 से पहले के उनके ज्यादातर संघर्ष अचर्चित रह गए। मिसाल के तौर पर 1939 में 29 अप्रैल को कांग्रेस का अध्यक्ष पद छोड़कर तीन मई को फारवर्ड ब्लॉक (जो पहले कांग्रेस के अंदर ही था, लेकिन बाद में अलग पार्टी बन गया) का गठन, उसके बैनर पर मुक्ति संघर्ष तेज करने का ऐलान, सुभाष यूथ ब्रिगेड द्वारा कलकत्ता (अभी कोलकाता) स्थित गुलामी के प्रतीक हालवेट स्तंभ को रातोंरात ढहाकर उस ऐलान पर अमल, फिर ब्रिटिश साम्राज्य की ईंट से ईंट बजा देने का खुला संकल्प, उसके कारण गिरफ्तारी और जेल में अनशन के बाद घर पर नजरबंदी।
इससे दशकों पहले 1921 में 23 अप्रैल को वे आईसीएस जैसी प्रतिष्ठित सेवा का लोभ ठुकराकर देशबंधु चितरंजनदास के शिष्यत्व में कांग्रेस से जुड़े तो भी जल्दी ही छात्रों एवं युवकों के चहेते बन गए थे। वे छात्रों से ऐसी समाज रचना का आवाहन करते थे, जिससे सबको शिक्षा और आत्मविकास का समान अवसर मिले।