नेताओं में पैठती राजशाही की मानसिकता 

By विश्वनाथ सचदेव | Updated: August 8, 2025 07:14 IST2025-08-08T07:13:32+5:302025-08-08T07:14:21+5:30

मन करता है कि हमारे राजनेता राजशाही की मानसिकता वाले न हों. सत्ता कुछ नेताओं या परिवारों की नहीं है. देश के मतदाता की है.

Monarchical mentality permeating among leaders | नेताओं में पैठती राजशाही की मानसिकता 

नेताओं में पैठती राजशाही की मानसिकता 

बात पुरानी है, पर है पते की. देश के पूर्व प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह चुनाव लड़ रहे थे.  उनके समर्थक नारा लगाते थे उन दिनों- ‘राजा नहीं फकीर है, देश की तकदीर है’.  बहुत लोकप्रिय हुआ था यह नारा. निश्चित रूप से वी.पी. सिंह को चुनाव में इसका लाभ भी मिला होगा. जनतांत्रिक भारत में यह लाभ नहीं मिलता तो कुछ अस्वाभाविक ही होता. अब फिर राजा वाली यह बात कहीं से उठी है. कांग्रेस पार्टी के नेता और लोकसभा में नेता विपक्ष राहुल गांधी ने राजधानी दिल्ली में सांविधानिक चुनौतियों के संदर्भ में आयोजित एक कार्यक्रम में कहा है कि वे राजा नहीं बनना चाहते, राजशाही की अवधारणा के ही विरुद्ध हैं.

असल में हुआ यूं कि विज्ञान भवन में आयोजित इस कार्यक्रम में जब राहुल गांधी बोलने के लिए खड़े हुए तो उनके कुछ प्रशंसकों ने नारा लगाया, ‘देश का राजा कैसा हो, राहुल गांधी जैसा हो’. राहुल ने तत्काल टोका, ‘नहीं बाॅस, मैं राजा नहीं हूं,  राजा बनना भी नहीं चाहता. मैं राजा के विरुद्ध हूं, इस अवधारणा के ही विरुद्ध हूं’.

राहुल गांधी के इस कथन से किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए. आश्चर्य तो तब होता जब राजा वाले इस नारे को सुनकर वे चुप रह जाते. जनतांत्रिक भारत में देश का हर नागरिक राजा है. उसी के वोट से कोई सत्ता में बैठता है, और तब तक ही सत्ता में रह सकता है जब तक देश के नागरिक का (मतदाता का) विश्वास उसमें है.  

लेकिन हमारे देश की एक हकीकत यह भी है कि हमारे निर्वाचित नेता ‘राजा’ वाली मानसिकता से आज भी पूरी तरह नहीं उबर पाए हैं. शायद सत्ता का चरित्र ही ऐसा होता है. सत्ता पाकर स्वयं को दूसरों से भिन्न, कुछ बेहतर समझने की मानसिकता अलोकतांत्रिक भले ही हो, आज भी लोगों पर हावी होती दिख जाती है. होना तो यह चाहिए था कि लोकप्रियता और सत्ता निर्वाचित नेता को विनम्र बनाती, पर दुर्भाग्य से हो इसका उल्टा रहा है.

जब नेता वोट मांगने के लिए आता है, तब तो वह विनम्र होने का नाटक करता है, पर एक बार सत्ता मिल जाने के बाद उससे ईमानदार विनम्रता की आशा करना अपने आप को ही छलावा देना है. कहा भले ही कुछ भी जा रहा हो, पर हकीकत यह है कि देश का राजनीतिक नेतृत्व कुल मिलाकर ‘प्रभुता पाइ काहि मद नाहीं’ की उक्ति को ही प्रमाणित करता है. चुनाव जीतते ही नेताजी की चाल बदल जाती है.

कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक और गुजरात से लेकर असम तक हमारी राजनीति पर राजशाही की मानसिकता हावी है. इसलिए, जब कोई राहुल राजा न होने और राजशाही के विरोध में होने की बात करता है तो उस पर विश्वास करने का मन करता है. मन करता है कि हमारे राजनेता राजशाही की मानसिकता वाले न हों. सत्ता कुछ नेताओं या परिवारों की नहीं है. देश के मतदाता की है. वोट देकर उसने राजनेताओं को राजकाज चलाने का अवसर दिया है. इस वोट की पवित्रता और शक्ति का तकाजा है कि हमारे निर्वाचित प्रतिनिधि स्वयं को देश का राजा नहीं, देश का सेवक मानकर देश चलाने का काम करें.  

नेता सत्तापक्ष का हो या विपक्ष का, कुल मिलाकर वह देश की जनता का सेवक है, राजा नहीं.  जनतंत्र में निर्वाचित प्रतिनिधि राज करता नहीं, राजकाज चलाता है. राजशाही में ऐसा नहीं होता था. वहां वोट से नहीं, तथाकथित दैवीय अधिकार से सिंहासन मिलता था. तब नागरिक राजा की प्रजा होता था. जनतंत्र में जनता ही राजा होती है.

Web Title: Monarchical mentality permeating among leaders

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