उपराष्ट्रपति चुनाव के बाद मोदी मंत्रिमंडल में फेरबदल की सुगबुगाहट?, इस दल के सांसद होंगे शामिल!

By हरीश गुप्ता | Updated: August 20, 2025 05:28 IST2025-08-20T05:28:17+5:302025-08-20T05:28:17+5:30

अजित पवार के नेतृत्व वाली एनसीपी और एकनाथ शिंदे के नेतृत्व वाली शिवसेना, मोदी सरकार में पूर्ण कैबिनेट पद चाहते हैं.

Modi cabinet reshuffle after Vice Presidential election Ajit Pawar-led NCP and Eknath Shinde-led Shiv Sena full cabinet posts Modi government blog harish gupta | उपराष्ट्रपति चुनाव के बाद मोदी मंत्रिमंडल में फेरबदल की सुगबुगाहट?, इस दल के सांसद होंगे शामिल!

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Highlights उपेंद्र कुशवाहा को केंद्रीय मंत्रिमंडल में शामिल किए जाने की भी संभावना है. प्रधानमंत्री कुछ प्रमुख मंत्रालयों में फेरबदल भी कर सकते हैं और नए चेहरे ला सकते हैं.एनडीए उम्मीदवार सीपी राधाकृष्णन की जीत सुनिश्चित होने के साथ, यह फेरबदल निश्चित रूप लेता दिख रहा है.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अगले कुछ हफ्तों में अपने मंत्रिमंडल में फेरबदल पर विचार कर रहे हैं. संसद सत्र समाप्त होने और उपराष्ट्रपति पद के लिए एनडीए उम्मीदवार सीपी राधाकृष्णन की जीत सुनिश्चित होने के साथ, यह फेरबदल निश्चित रूप लेता दिख रहा है. यह भी स्पष्ट होता जा रहा है कि भाजपा को जल्द ही जेपी नड्डा की जगह एक नया पार्टी अध्यक्ष मिलेगा और इस वजह से भी फेरबदल अपरिहार्य हो सकता है. कुछ सहयोगी दल, खासकर अजित पवार के नेतृत्व वाली एनसीपी और एकनाथ शिंदे के नेतृत्व वाली शिवसेना, मोदी सरकार में पूर्ण कैबिनेट पद चाहते हैं.

बिहार चुनाव नजदीक होने के कारण, किसी भी कैबिनेट फेरबदल में उपेंद्र कुशवाहा जैसे बिहार के सहयोगियों को केंद्रीय मंत्रिमंडल में शामिल किए जाने की भी संभावना है. अंदरूनी सूत्रों का कहना है कि प्रधानमंत्री कुछ प्रमुख मंत्रालयों में फेरबदल भी कर सकते हैं और नए चेहरे ला सकते हैं.

आमतौर पर, मोदी शपथ ग्रहण समारोह के कुछ साल बाद ही कोई बड़ा कदम उठाते हैं. लेकिन वह वैश्विक चुनौतियों के मद्देनजर नई पहल करने के लिए लीक से हटकर सोचने वाली नई प्रतिभाओं को चाहते हैं. कुछ आश्चर्यजनक बदलाव भी देखने को मिल सकते हैं.

रूडी की अप्रत्याशित सफलता

दिल्ली के कॉन्स्टिट्यूशन क्लब चुनाव ने बिहार और उत्तर प्रदेश में हलचल मचा दी है और भाजपा के राजपूत वोट बैंक को हिलाकर रख दिया है. पूर्व सांसद और पूर्व केंद्रीय मंत्री संजीव बालियान पर राजीव प्रताप रूडी की जबरदस्त जीत एक क्लब मुकाबले से कहीं बढ़कर थी - इसे ‘पुरानी भाजपा’ द्वारा ‘नई व्यवस्था’ को मात देने के रूप में देखा गया.

बिहार में, इसका असर और भी तीखा है.  एनडीए द्वारा 31 लोकसभा सीटों पर जीत हासिल करने के बावजूद, बिहार - या पड़ोसी राज्य झारखंड - से एक भी राजपूत सांसद को केंद्रीय मंत्री नहीं बनाया गया है. रूडी की जीत ने उन्हें एक सामुदायिक प्रतीक बना दिया है, फिर भी अंदरूनी सूत्रों का कहना है कि इसने उनकी अपनी मंत्रिमंडल में शामिल होने की संभावनाओं को धूमिल कर दिया है.

निकट भविष्य में केंद्रीय मंत्रिमंडल के विस्तार में ऐसे नामों की चर्चा, जिसमें राधा मोहन सिंह, रूडी और जनार्दन सिंह सिग्रीवाल प्रमुखता से शामिल थे, अब ठंडी पड़ गई है. उपेक्षा का आभास पाकर, कई राजपूत महागठबंधन की ओर झुक रहे हैं. कहा जा रहा है कि भाजपा आलाकमान गुस्से को शांत करने के लिए एक ‘बड़े प्रस्ताव’ पर विचार कर रहा है.

जातिगत समीकरण पहले से ही नाजुक हैं और राजपूत-कुशवाहा तनाव सुलग रहा है, अगर असंतोष गहराता है तो एनडीए के बिहार के लगभग एक-तिहाई हिस्से में अपनी जमीन खोने का खतरा है.  पड़ोसी राज्य उत्तर प्रदेश में भी राजनीतिक भूचाल कम नहीं है. मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को ‘गद्दी से उतारने’ की कोशिशों की अटकलों ने ठाकुरों के बीच बेचैनी बढ़ा दी है.

हाल ही में, 40 राजपूत विधायकों और विधान पार्षदों - जिनमें भाजपा के लोग, सपा से आए और निर्दलीय शामिल हैं - ने एक नया मंच, ‘कुटुंब’ परिवार बनाने के लिए मुलाकात की. हालांकि इसे सामाजिक रूप में प्रस्तुत किया गया, लेकिन इसके राजनीतिक निहितार्थ स्पष्ट थे.  योगी ने खुद इसको और हवा दी है.

उन्होंने उत्तर प्रदेश के अपने जाट चेहरे बालियान की बजाय बिहार के राजपूत रूडी का खुलकर समर्थन किया. कुछ दिनों बाद, उन्होंने 31 महीने बाद बृजभूषण शरण सिंह से मुलाकात की, जो एक प्रतीकात्मक लेकिन राजनीतिक रूप से महत्वपूर्ण संकेत था. संदेश साफ है:  रूडी की दिल्ली में मामूली जीत ने बिहार और उत्तर प्रदेश में बड़े जातीय समीकरणों को जन्म दे दिया है. भाजपा के लिए बेचैन राजपूतों को खुश करना जरूरी और अपरिहार्य दोनों हो गया है.

विरोध से ज्यादा अनुपस्थिति की गूंज

स्वतंत्रता दिवस पर कांग्रेस के दो सबसे बड़े नेता राहुल गांधी और मल्लिकार्जुन खड़गे लाल किले के समारोह से नदारद रहे. इसके बजाय, उन्होंने पार्टी मुख्यालय में तिरंगा फहराया, और राहुल की बारिश में भीगी तस्वीरें वायरल हो गईं. लेकिन राष्ट्रीय मंच से उनकी अनुपस्थिति भाजपा को एक राजनीतिक लाभ दे गई. चर्चा है कि राहुल जानबूझकर बैठक से दूर रहे.

पिछले साल, विपक्ष के नेता के तौर पर, उन्हें आखिरी से दूसरी पंक्ति में स्थान दिया गया था- जिसे कांग्रेसी हलकों में ‘अपमान’ के तौर पर देखा गया था. इस बार, उन्होंने इस दोहराव से बचने का फैसला किया. लेकिन ऐसा करके, राहुल और खड़गे ने सरकार को घेरने का मौका गंवा दिया.

अगर वे बैठक में शामिल होते और फिर से दरकिनार कर दिए जाते तो कांग्रेस इसे ‘दोहरे अपमान’ की कहानी में बदल सकती थी. इसके बजाय, अब संदेश यह जा रहा है कि वे आगे की पंक्ति से कम किसी चीज पर समझौता नहीं करेंगे. राजनीति में, चूके हुए पल अपमान से ज्यादा दुख देते हैं.  और कांग्रेस ने ऐसा ही एक पल गंवा दिया.

श्रृंगला का मनोनयन भविष्य की तैयारी!

भारत के सौम्य पूर्व विदेश सचिव हर्षवर्धन श्रृंगला ने राज्यसभा के लिए मनोनयन के साथ ही कूटनीति को राजनीति में बदल दिया है- जिसे व्यापक रूप से भाजपा द्वारा उन्हें एक बड़ी भूमिका के लिए तैयार करने की दिशा में पहला कदम माना जा रहा है. दार्जिलिंग के इस सपूत, श्रृंगला के 2024 का लोकसभा चुनाव लड़ने की चर्चा थी, लेकिन मौजूदा सांसद राजू बिष्ट बाजी मार ले गए.

लेकिन टिकट नहीं पाने वाले अधिकांश नौकरशाहों की तरह वे गायब नहीं हुए. इसके बजाय, उन्होंने अपने स्थानीय संपर्कों को जीवित रखा- युवा कार्यक्रमों की शुरुआत की, चाय बागानों की आजीविका के मुद्दों को संबोधित किया, और जीटीए के साथ एक यूपीएससी कोचिंग केंद्र की स्थापना की.

दिल्ली में, उनके मनोनयन को भाजपा की 2029 के लिए एक ऐसे उम्मीदवार को आकार देने की योजना के रूप में देखा जा रहा है- जो बिस्टा पर भारी पड़ रहे ‘गोरखालैंड के बोझ’ से मुक्त हो. पहाड़ी इलाकों में, इसने उम्मीद जगा दी है कि लंबे समय से लंबित वादों- 11 गोरखा समूहों को आदिवासी का दर्जा और एक ‘स्थायी राजनीतिक समाधान’- पर आखिरकार ध्यान दिया जा सकता है.

प्रधानमंत्री मोदी ने उन्हें एक ‘रणनीतिक विचारक’ बताया है.  फिलहाल, श्रृंगला एक मनोनीत सांसद के रूप में संसद में प्रवेश कर रहे हैं- लेकिन उनकी राजनीतिक पटकथा स्पष्ट रूप से अधूरी है, और दार्जिलिंग उनका लॉन्चपैड है.

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