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मराठी- हिंदी सगी बहनें, विवाद राजनीति की देन 

By लोकमत न्यूज़ डेस्क | Updated: July 1, 2025 15:22 IST

सभी महाराष्ट्रवासी हिंदी नहीं बोलते और ना बोलने की जरूरत ही है उनको, और इसको लेकर किसी को कोई शिकायत भी नहीं हो सकती। ऐसा खाटी हिंदी प्रदेश में भी नहीं होता कि 100 प्रतिशत लोग हिंदी ही बोले।

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ठळक मुद्देआधिकारिक भाषा के रूप में सभी राज्यों ने अपनी भाषाएं चुनी है।मराठी फिल्म इंडस्ट्री को भी समृद्ध बनाए नहीं रखते।

बिक्रम उपाध्याय

राजनीतिक विवाद को समाप्त करने के लिए महाराष्ट्र सरकार ने स्कूलों में हिंदी भाषा की अनिवार्यता को खत्म कर दिया है, लेकिन भाषा विवाद में बार बार हिंदी को घसीटने का सिलसिला शायद अब भी बंद ना हो। कारण जो विषय राजनीति के बन जाते हैं, वे कभी भी मरते नहीं हैं, उनमें जी उठने और फिर विवाद का बवंडर बनने की संभावना हमेशा बनी रहती है। यह सभी जानते और मानते हैं कि सभी भारतीय भाषाएं आपस में बहिन हैं, और साथ फलने फूलने की काबिलियत रखती हैं, फिर भी उनको लेकर कलह करवाना राजनीति के लिए आसान रहता है।

लगभग सभी मराठी कामकाजी हिंदी जानते हैं, फिर हिंदी पढ़ने और पढ़ाने में क्या बुराई हो सकती है। सभी महाराष्ट्रवासी हिंदी नहीं बोलते और ना बोलने की जरूरत ही है उनको, और इसको लेकर किसी को कोई शिकायत भी नहीं हो सकती। ऐसा खाटी हिंदी प्रदेश में भी नहीं होता कि 100 प्रतिशत लोग हिंदी ही बोले। सभी प्रदेश में स्थानीय भाषा में ही लोग बात करते हैं,

लेकिन आधिकारिक भाषा के रूप में सभी राज्यों ने अपनी भाषाएं चुनी है। इसलिए बोलचाल के आधार पर भी यदि महाराष्ट्र में हिंदी थोपे जाने का आरोप कोई लगाता है तो यह कहा जा सकता है कि यह विरोध केवल एक भाषा के लिए नहीं है। इसका हेतु कुछ और भी है। हिंदी का बोलचाल की भाषा के रूप में भी प्रतिकार आम मराठी की भावना नहीं हो सकता,

बल्कि स्वार्थी राजनेताओं का एक स्वांग है जो हिंदी को दूर रखने और हमारे राज्य में ना आने देने के नाम पर लोगों को उकसाने का कृत्य कर रहे हैं। सब ने देखा है कि महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री या मंत्री हिंदी में भाषण देते हैं, राष्ट्रीय राजनीति में आकर उत्तर भारत के राज्यों का प्रभार सम्हालते हैं, महाराष्ट्र में ही बड़े पैमाने पर छठ पूजा और हिंदी दिवस का आयोजन करते हैं।

मराठी संस्कृति के साथ साथ देश की संस्कृति को भी बढ़ावा देते हैं। जो यह कहते हैं कि हिंदी भाषा को स्कूल में लाने से हिंदी का प्रभुत्व स्थापित हो जाएगा, वह सरासर झूठ बोलते हैं। क्योंकि कोई भी भाषा किसी पर थोपी नहीं जा सकती। यदि ऐसा होता तो मराठी एक्टर सबसे ज्यादा हिंदी फिल्मों में काम नहीं करते और मराठी फिल्म इंडस्ट्री को भी समृद्ध बनाए नहीं रखते।

हिंदी फ़िल्म इंडस्ट्री जिस दादा साहब फाल्के को अपना पितामह मानती है वे एक मराठी व्यक्ति ही थे।  मराठी और हिन्दी का एक दूसरे पर हावी होने का कोई प्रश्न ही नहीं है। बात सिर्फ हमारी अन्य भाषाएं और संस्कृति के प्रति सम्मान की है। बोलचाल या पढ़ाई में हिंदी का प्रचार मराठी के अपमान के तौर पर लेना विशुद्ध रूप से राजनीति है।

शुद्ध हिंदी भाषी क्षेत्रों से महाराष्ट्र जा कर जीविका चलाने वाले कम पढे लिखे लोग भी आसानी से टूटी-फूटी मराठी बोलना सीख लेते हैं। भले ही धाराप्रवाह मराठी ना बोल पाए लेकिन काम चलाने लायक मराठी छह महीने में ही आ जाती है। भाषा विज्ञानी कहते हैं कि कोई भी हिंदी भाषी यदि लंबे समय तक किसी मराठी के संपर्क में रहे, तो वह जल्दी मराठी सीख लेता है।

कहते हैं कि मराठी और हिंदी दोनों ही इंडो-आर्यन भाषाएँ हैं और इनमें कई समानताएँ हैं। मराठी और हिंदी दोनों ही भाषाएं देवनागरी लिपि में लिखी जाती हैं। मराठी और हिंदी दोनों पर संस्कृत का बहुत प्रभाव है। तत्सम के कारण मराठी और हिंदी में सामान्य शब्दावली का एक बड़ा भंडार है। दोनों भाषाएँ अपने-अपने क्षेत्रों में बोली जाने वाली प्राकृत भाषा के किसी न किसी रूप से आई हैं।

दोनों भाषाओं के व्याकरण और वाक्य संरचना में भी कई समानताएं हैं। हिंदी की तरह मराठी में भी। संस्कृत, फ़ारसी, अरबी, उर्दू शब्दों का प्रयोग किया जाता है। इतिहास तो यह भी बताता है कि हिंदी और हिन्दू धर्म को इस्लाम से बचाने का बहुत कुछ श्रेय मराठा वीरों और राजाओं को ही जाता है।

यही नहीं हिंदू महासभा, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस), विश्व हिंदू परिषद (वीएचपी) जैसे संगठन को स्थापित करने और हिंदुत्व’ के सिद्धांतों पर काम करने का भी सौभाग्य महाराष्ट्र के लोगों को ही जाता है। हम सभी को अपनी मातृभाषा से बहुत प्यार है, और इस पर बहुत गर्व भी है, लेकिन हमारी ही संस्कृति से जुड़ी अन्य भाषा का सम्मान भी हमारी जिम्मेदारी है।

हमारे पूर्वजों ने भी अन्य भाषा और साहित्य को विकसित करने में पूरी भूमिका निभाई है। राष्ट्रीय एकता के लिए हिंदी को हमेशा महत्व दिया है। इसलिए यह कहना की हिंदी को थोपने की कोशिश की जा रही है, एक संकीर्ण सोच को उजागर करता है। राजा शिवाजी ने भी एक हिंदी भाषी कवि को अपने दरबार में नियुक्त किया था।

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