कपिल सिब्बल का ब्लॉग: भाजपा नहीं, गठबंधन सरकार के लिए जनादेश
By कपिल सिब्बल | Updated: June 26, 2024 09:36 IST2024-06-26T09:34:52+5:302024-06-26T09:36:00+5:30
लोकसभा चुनाव के 4 जून 2024 के नतीजों ने कुछ दिलचस्प रुझान सामने रखे हैं. हम यह विश्लेषण करने की कोशिश करेंगे कि कौन हारा और कौन जीता.

कपिल सिब्बल का ब्लॉग: भाजपा नहीं, गठबंधन सरकार के लिए जनादेश
लोकसभा चुनाव के 4 जून 2024 के नतीजों ने कुछ दिलचस्प रुझान सामने रखे हैं. हम यह विश्लेषण करने की कोशिश करेंगे कि कौन हारा और कौन जीता. सबसे पहले, भाजपा से शुरुआत करते हैं. भाजपा ने इस देश की लगभग सभी संस्थाओं पर कब्जा कर लिया था और मुख्यधारा का मीडिया मोदी को भारत के लिए सबसे अच्छी चीज के रूप में पेश कर रहा था.
इसके अल्पकालिक और दीर्घकालिक दोनों तरह के लाभकारी और हानिकारक प्रभाव थे. पिछले 10 वर्षों में राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर जिस भी कार्यक्रम में उन्होंने भाग लिया या नेतृत्व किया, हर कार्य को बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया गया. उनके भाषणों में उनके अपने योगदान की प्रशंसा की गई और विपक्ष, खासकर कांग्रेस की विफलताओं की तीखे शब्दों में निंदा की गई, जिसे सच माना गया.
ऐसा लग रहा था कि मोदी भारत को 21वीं सदी में एक वैश्विक शक्ति के रूप में स्थापित कर सकते हैं और अपनी पार्टी द्वारा किए गए वादों और दिखाए गए सपनों को पूरा कर सकते हैं. मोदी की मजबूत छवि वाली पार्टी के रूप में भाजपा को एक अभेद्य किला, लगभग अजेय माना जाता था. मोदी ने लोगों को यह विश्वास दिलाया कि वे उनके रक्षक हैं और आजादी के बाद से कांग्रेस की ऐतिहासिक गलतियों को दुरुस्त कर रहे हैं.
चौबीसों घंटे चलने वाले इस आख्यान का 2019 के लोकसभा चुनावों में उनकी पार्टी पर लाभकारी प्रभाव पड़ा. लेकिन 2024 के चुनाव आते-आते यह उबाऊ हो चुका था. मुख्यमंत्रियों सहित केवल विपक्षी नेताओं पर मुकदमा चलाने में जांच एजेंसियों के घोर और अन्यायपूर्ण दुरुपयोग तथा उन्हें चुनावी प्रक्रिया से दूर रखने की कोशिश ने एक गंभीर चुनावी लड़ाई के दौरान बहुत नकारात्मक संकेत दिया.
आम आदमी, खासकर मध्यम वर्ग को विरोधियों के खिलाफ मुकदमा चलाना और सत्ता प्रतिष्ठान का हिस्सा बनने वाले ऐसे लोगों के प्रति निष्क्रियता बरतना पसंद नहीं आया जिन्हें अत्यधिक भ्रष्ट माना जाता था.
वास्तव में, उनमें से कुछ को मुकदमे की धमकी के तहत दलबदल करने और भाजपा में शामिल होने के लिए मजबूर किया गया था. इस तरह की प्रेरित कार्रवाइयों ने दिल्ली और झारखंड सहित कुछ राज्यों में भाजपा को भले ही लाभ पहुंचाया हो, लेकिन मोदी की एकतरफा कार्रवाई प्रतिकूल साबित हुई.
भारतीय चुनाव आयोग (ईसीआई) की घोर पक्षपातपूर्ण कार्यप्रणाली भी जनता की नाराजगी का एक कारण थी. चुनाव के बीच में मोदी के दोषपूर्ण बयानों के बावजूद ईसीआई ने कोई कार्रवाई नहीं की. सोशल मीडिया की बदौलत देश के दूरदराज के इलाकों में आम मतदाताओं तक यह बात पहुंची और उन्हें यह पसंद नहीं आया. इसने भी नतीजों को प्रभावित किया.
राज्य विधानमंडलों के कामकाज में राज्यपालों द्वारा हस्तक्षेप, निर्वाचित सरकारों को उखाड़ फेंकने के लिए ऐसी राजनीति में लिप्त होना जो जनता की नजर में भ्रष्ट थी, ने पहले से ही सुलग रहे असंतोष को और बढ़ा दिया. पश्चिम बंगाल में राज्यपाल द्वारा किए गए युद्धघोष के बावजूद ममता की जीत नहीं रुकी. ममता की लोकप्रियता और चुनावी प्रबंधन ने उनके किले को अभेद्य बना दिया. उन्हें बधाई!
मोदी के बारे में बहुत ज्यादा और जमीन पर बहुत कम काम किए जाने की वजह से मोदी एक विवादित व्यक्तित्व बन गए. हर सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर उनकी कमियां दिखाई गईं और लगभग हर हाथ में मोबाइल फोन होने की वजह से मोदी के प्रति उत्साह धीरे-धीरे खत्म हो गया; मुख्यधारा के टीवी चैनल देखने की तुलना में सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर जाना ज्यादा आसान हो गया.
2019 में जिस चीज ने उन्हें फायदा पहुंचाया था, 2024 में उसी ने नुकसान पहुंचाया. यह महसूस करते हुए कि लोकसभा चुनाव के पहले दो चरण बहुत अच्छे नहीं रहे, उन्होंने ऐसे भाषण देने शुरू कर दिए जो उनके पद के अनुरूप नहीं थे.
उनका यह कथन कि अगर कांग्रेस सत्ता में आई तो वह अधिक बच्चे पैदा करने वालों को लाभ देगी, सामाजिक विभाजन पैदा करने की कोशिश थी, जिसके बारे में उन्हें लगा कि इससे उन्हें शेष चरणों के चुनाव में मदद मिलेगी. लेकिन हुआ इसका उल्टा.
पार्टी में दिग्गजों और वरिष्ठों को दरकिनार करते हुए उनके द्वारा मुख्यमंत्रियों का चयन किए जाने से असंतोष और बढ़ गया, जो अंततः मोहन भागवत के बयानों में परिलक्षित हुआ. दूसरे शब्दों में, आरएसएस भी चिंतित था कि मोदी आरएसएस की संस्कृति के साथ असंगत थे, जिसके वे स्वयं प्रचारक हैं. यह मोदी बनाम बाकी था; ऐसा लग रहा था कि भाजपा मोदी के व्यक्तित्व में समा गई थी.
‘400 पार’ का नारा भी प्रतिकूल साबित हुआ. देश ने बिना किसी संदेह के मोदी को नकार दिया है क्योंकि भारत के लोगों ने भाजपा को सत्ता में वापस लाने के लिए वोट नहीं दिया है. यह वोट स्पष्ट रूप से एक वैकल्पिक सरकार के लिए था. जहां तक कांग्रेस का सवाल है, लोगों की प्रतिक्रिया कुछ हद तक मिली-जुली है. कुछ अपवादों को छोड़कर कांग्रेस को लाभ हुआ.
उत्तर प्रदेश, तमिलनाडु और महाराष्ट्र में कांग्रेस को बहुत लाभ हुआ, लेकिन तभी जब उसने संबंधित राज्यों में अन्य प्रमुख दलों के साथ गठबंधन किया. जब बात मध्यप्रदेश, गुजरात और उत्तराखंड जैसे राज्यों की आई, तो कांग्रेस को नुकसान हुआ. राजस्थान में स्थानीय कारकों जैसे वसुंधरा द्वारा सभी निर्वाचन क्षेत्रों में प्रचार न करना, मुख्यमंत्री पद से उन्हें वंचित रखना, और कांग्रेस द्वारा एकजुट प्रयास ने शायद चुनाव परिणामों पर असर डाला.
पंजाब और केरल में लोगों के पास गठबंधन को वोट देने के अलावा कोई विकल्प नहीं था. कांग्रेस ने तेलंगाना में अच्छा प्रदर्शन किया, जहां वह पहले से ही सत्ता में थी. सबसे बढ़कर, राहुल की बदौलत ‘भारत जोड़ो यात्रा’ ने लोगों में जोश भरा. प्रियंका के भाषण केंद्रित और आक्रामक थे, जो मोदी के कांग्रेस विरोधी बयानों का माकूल जवाब थे. इसके अलावा तीन और कारक थे: पहला, महंगाई, जिससे आम लोगों को नुकसान हुआ.
दूसरा, बड़े पैमाने पर बेरोजगारी, जहां युवा मोदी से निराश थे. और तीसरा, यह धारणा कि मोदी ने अमीरों के लिए काम किया है-एक ऐसा नैरेटिव, जो सुप्रीम कोर्ट के चुनावी बॉन्ड के फैसले से भी पुष्ट हुआ. इससे लोगों को लगा कि यह योजना केवल भाजपा को लाभ पहुंचाने के लिए थी. इन्हीं कारणों के चलते मिश्रित परिणाम आए, जिसने कांग्रेस की संख्या को लगभग दोगुना कर दिया, हालांकि लोगों का ध्यान खींचने के लिए यह पर्याप्त नहीं था.
इसलिए, लोगों ने वास्तव में गठबंधन सरकार के लिए वोट दिया, न कि मोदी की एक और जीत के लिए. अब गठबंधन के सहयोगियों को ध्यान रखना होगा कि वे ओडिशा की तरह निगले जाने से बचें. अतीत में अनेक गठबंधन सहयोगियों ने भाजपा छोड़ी है जिनमें अकाली, एआईएडीएमके और बेशक शिवसेना शामिल हैं. मोदी के लिए आने वाला समय उथल-पुथल भरा होगा. अगर कांग्रेस एकजुट हो गई तो 2029 का चुनाव उनके लिए बहुत बड़ी चुनौती होगा.