Man vs Dog: बेकाबू कुत्तों का आतंक शहरी भारत के सबसे बड़े अभिशापों में से एक है, ऐसा मैं मानता हूं. संभवत: वायु प्रदूषण, सड़क दुर्घटना में होने वाली मौतों और बलात्कारों के बाद इसी का स्थान है. पिछले साल जब वाघ बकरी चाय समूह के मालिक पराग देसाई की अहमदाबाद में आवारा कुत्तों के हमले के बाद दुःखद मौत हुई तब कॉर्पोरेट जगत सहित कई अन्य लोग सदमे में थे, भले ही उनमें मेनका गांधी शामिल न रही हों. अब पूर्व मुख्यमंत्री उमा भारती, जो कभी तेजतर्रार राष्ट्रीय नेता थीं, ने मध्यप्रदेश के नए मुख्यमंत्री डॉ. मोहन यादव का ध्यान कुत्तों के काटने की बढ़ती घटनाओं और युवाओं, मुख्य रूप से सड़क किनारे गुजर-बसर करने वाले गरीब बच्चों पर हमलों की ओर आकर्षित किया है. भूखे कुत्ते - टीकाकरण किए हुए या बिना टीकाकरण वाले-मध्य प्रदेश की सड़कों पर राज कर रहे हैं, जैसे वे राष्ट्रीय राजधानी या गुजरात की राजधानी अथवा किसी अन्य भारतीय शहर में हैं. दरअसल, कुत्तों के खुले झुंड सौ स्मार्ट शहरों वाले शहरी भारत के नए लेकिन खतरनाक प्रतीक बन गए हैं.
स्मार्ट सिटी से नागरिकों को उम्मीद थी कि उनका शहर पहले की तुलना में कहीं बेहतर और रहने योग्य होगा. हालांकि इसका मतलब यह नहीं था कि यह आवारा कुत्तों के बिना होगा, लेकिन इसका मतलब निश्चित रूप से एक सुरक्षित, बेहतर शहर था जिसे सरकार ‘स्मार्ट’ कहना पसंद करती है.
संयोग से, दुनिया के अधिकांश स्मार्ट शहरों में वह समस्या नहीं है जिसका हम भारत में लगभग हर दिन सामना करते हैं और जिसका कोई समाधान नजर नहीं आता. ‘स्मार्ट सिटी’ विस्तार से लिखने के लिए एक अलग और व्यापक विषय है. उस पर कभी और! इसलिए उमा भारती ने जो मुख्यमंत्री यादव को पत्र लिखा उसका बड़ा महत्व है. यादव, जो अब एक बड़े राज्य के शक्तिशाली पद पर दो महीने से विराजमान हैं, इस पर कब ध्यान देंगे? उमा भारती शायद पहली बड़ी राजनेता हैं, जिन्होंने इस ‘छोटे’ मुद्दे को उठाया है और पुनः एक नई बहस शुरू हो गई है.
मुख्यमंत्री डॉ. यादव के पास ऐसे ‘साधारण’ मुद्दों के लिए समय है या नहीं, यह अभी तक ज्ञात नहीं है क्योंकि अब तक उनके शासन करने का ज्ञात तरीका केवल अधिकारियों को एक स्थान से दूसरे स्थान पर स्थानांतरित करने तक ही सीमित दिख रहा है. वह लगातार दिल्ली और अपने गृहनगर उज्जैन के बीच आवागमन में भी शायद अतिव्यस्त हैं.
डाॅ यादव आसन्न लोकसभा चुनावों के बाद शायद अपना शासन कौशल दिखाएं, जो उनके और उनकी पार्टी के लिए निश्चित ही ज्यादा महत्वपूर्ण है. बेकाबू कुत्तों का आतंक शहरी भारत के सबसे बड़े अभिशापों में से एक है, ऐसा मैं मानता हूं. संभवत: वायु प्रदूषण, सड़क दुर्घटना में होने वाली मौतों और बलात्कारों के बाद इसी का स्थान है.
दुर्भाग्य से, ये सभी मुद्दे किसी भी राज्य सरकार की प्राथमिकता सूची में कहीं भी नहीं हैं. कुछ राज्य सरकारें एक के बाद एक मंदिर बनाने में व्यस्त हैं और उनके पास लोगों की जान बचाने के लिए कम ही समय है. हां, कुछ शहर प्रबंधक, नगर निगम आयुक्त - जो गंभीरता और ईमानदारी से शहर के मामलों के प्रबंधन में रुचि लेते हैं - इस चुनौती पर काबू पाने पर काम कर रहे हैं, जो स्कूल जाने वाले बच्चों, झुग्गी-झोपड़ियों में रहने वाली महिलाओं और सुबह-शाम सैर पर जाने वाले बुजुर्गों को बुरी तरह प्रभावित कर रही है. वे प्रभावी कानूनी उपायों के बारे में सोच रहे हैं.
आवारा कुत्तों की समस्या से समय-समय पर निपटना पशु जन्म नियंत्रण (एबीसी) कार्यक्रम या पशु जन्म नियंत्रण (श्वान) नियम 2001 के अनुसार होना चाहिए, जो पशु क्रूरता निवारण अधिनियम 1960 के प्रावधानों का एक हिस्सा है और सुप्रीम कोर्ट के आदेशों के अनुसार है. वास्तविक चुनौती यह है कि प्रचलित कानून ने नगर निगम अधिकारियों के हाथ बांध रखे हैं जो सड़क के कुत्तों को किसी भी तरह मार नहीं सकते या उन्हें विस्थापित भी नहीं कर सकते. सहानुभूति दिखाने के लिए आवारा कुत्तों को खाना खिलाना शहरी लोगों के बीच अब एक बढ़ता हुआ फैशन है और यही विवाद की जड़ है.
तथाकथित श्वान-प्रेमियों ने कई शहरों में उन लोगों पर हमला किया है जिन्होंने अपनी या अपने रिश्तेदारों की रक्षा के लिए आवारा कुत्तों को भगाने की कोशिश की थी. माना जाता है कि भारतीय पशु कल्याण बोर्ड (एडब्ल्यूबीआई), जिसे इस समस्या को देखना है, सरकारी ढांचे में कई अन्य संस्थाओं की तरह ही एक अदृश्य संस्था है.
इस प्रकार आवारा कुत्तों की आबादी पर अंकुश लगाने के लिए उनका बधियाकरण कागजों पर ही रह गया है और पीड़ितों की संख्या लगातार बढ़ रही है. बजट की कमी या बड़े पैमाने पर नसबंदी कराने में मदद के लिए वास्तविक और प्रशिक्षित संस्थाओं को ढूंढ़ना एक और टेढ़ा मुद्दा है. नगरीय निकायों को इस पर सोचना होगा.
पीपल फॉर एनिमल्स की अध्यक्ष और पूर्व केंद्रीय मंत्री मेनका गांधी के नेतृत्व में कुत्तों से सहानुभूति रखने वाले लोग शहरी भारत में बढ़ रहे हैं और आवारा कुत्तों की बढ़ती आबादी के आंकड़ों से मुकाबला करते दिख रहे हैं. वे सिर्फ हल्ला करते है, समस्या के समाधान में उनकी रुचि कम ही दिखाई पड़ती है.
हाल ही में एक राष्ट्रीय वन्यजीव सम्मेलन में कई विशेषज्ञों ने नदियों के पास पाए जाने वाले दुर्लभ ब्लैक बेलीड टर्न (बीबीटी) जैसे पक्षियों के घोंसलों पर हमला करने वाले जंगली कुत्तों की आबादी पर गंभीर चिंता व्यक्त की. कई लोगों ने वहां कहा कि कुत्ते बड़ी संख्या में जंगलों में भी प्रवेश कर रहे हैं.
जिससे भारतीय भेड़ियों से लेकर बाघों तक के लिए बड़ा खतरा पैदा हो रहा है. पर इसकी फिक्र किसे है जब मनुष्य जीवन की चिंता ही किसी को न हो.मोदी सरकार, जिसने कई पुराने कानूनों को रद्द कर दिया है, इस मुद्दे के समाधान के लिए ऐसे समय में कुछ कानून ला सकती है जब शहरी भारत तेजी से बढ़ रहा है और सरकार शहरों को विकास के इंजन के रूप में दिखा रही है!