महाराष्ट्र विजयादशमीः दशहरे की बात, अपनी डफली-अपना राग, समर्थकों और अनुयायियों को संदेश देने की पुरानी परंपरा
By Amitabh Shrivastava | Updated: October 4, 2025 05:19 IST2025-10-04T05:19:21+5:302025-10-04T05:19:21+5:30
Maharashtra Vijayadashami: बीड़ में ही नारायणगढ़ में मराठा आरक्षण आंदोलन के नेता मनोज जरांगे का सम्मेलन उनकी भविष्य की योजनाओं को जानने का जरिया बन चुका है.

सांकेतिक फोटो
Maharashtra Vijayadashami: महाराष्ट्र में विजयादशमी और दशहरे के अवसर पर अपने समर्थकों और अनुयायियों को एक सम्मेलन के माध्यम से संदेश देने की पुरानी परंपरा है. जिसके राज्य में करीब आधा दर्जन बड़े आयोजन होते हैं. किंतु राजनीतिक तड़का लगने के बाद से सम्मेलनों की शक्ल पूरी तरह से बदल गई है. बीते सालों में मुंबई में शिवसेना का सम्मेलन सबसे बड़ा माना जाता था, जिसे बालासाहब ठाकरे संबोधित करते थे. दूसरी ओर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ(आरएसएस) नागपुर में विजयादशमी उत्सव मनाता था. शिवसेना के टूटने के बाद मुंबई में दो सम्मेलन होने लगे हैं.
दूसरी ओर मराठवाड़ा के बीड़ जिले के भगवानगढ़ का सम्मेलन, जो अब सावरगांव में हो रहा है, मुंडे परिवार की राजनीति के कारण चर्चा में है. वहीं बीड़ में ही नारायणगढ़ में मराठा आरक्षण आंदोलन के नेता मनोज जरांगे का सम्मेलन उनकी भविष्य की योजनाओं को जानने का जरिया बन चुका है. इनके अलावा डॉ बाबासाहब आंबेडकर के अनुयायी नागपुर में धम्मचक्र प्रवर्तन दिवस का आयोजन करते हैं.
दो साल पहले तक महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना(मनसे)भी अपना दशहरा सम्मेलन आयोजित करती थी, लेकिन इन दिनों वह नहीं हो रहा है. यदि सभी को सम्मिलित रूप से देखा जाए तो आरएसएस और आंबेडकरवादी सम्मेलनों में अपनी चिंताओं, संभावनाओं और योजनाओं पर विचार होते हैं. बाकी सब सम्मेलन राजनीति को चमकाने का जरिया बन रहे हैं.
जिसमें आत्मसंतुष्टि के भाव के साथ दूसरों पर लांछन लगाते जाना है. उनमें राज्य की समस्याओं पर रचनात्मक चिंतन या सकारात्मक सोच के साथ प्रगतिशील विचार लुप्त हैं. अपने सम्मेलन से पहले शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे ने कहा था कि उनका भाषण सरकार द्वारा मुद्रास्फीति, बेरोजगारी और बाढ़ राहत जैसे मुद्दों से निपटने पर केंद्रित होगा.
आयोजन केवल सांस्कृतिक कार्यक्रम नहीं, बल्कि लोगों की आवाज होगा. दूसरी ओर टूटकर बनी शिवसेना के प्रमुख उपमुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे ने कहा था कि दशहरा सम्मेलन का उद्देश्य न केवल राजनीतिक शक्ति का प्रदर्शन है, बल्कि किसानों और बाढ़ पीड़ितों के लिए राहत राशि एकत्र करना है. मगर, प्रत्यक्ष में संबोधन में ठाकरे का निशाना भारतीय जनता पार्टी(भाजपा) पर अधिक था.
जिसमें उन्होंने समस्याओं के सहारे मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस को निशाने पर लिया. वह किसानों की सहायता का आह्वान करते हुए राज्य सरकार से पचास हजार रुपए हेक्टेयर की मांग कर पाए. महाराष्ट्र में किसानों की समस्याएं बरसात और सूखे दोनों रूप से हैं. उन्हें हर परिस्थिति में नुकसान उठाना पड़ रहा है. जिनसे कम जमीन या भंडारण की क्षमता नहीं रखने वाले किसान अधिक प्रभावित होते हैं.
उनके लिए राज्य सरकार दूरगामी योजना पर विचार नहीं करती है. राज्य में एक्सप्रेस हाईवे का निर्माण तेजी से हो रहा है. नागपुर-मुंबई के बाद पुणे-मुंबई और नागपुर-गोवा का काम गति पकड़ चुका है. आधारभूत सुविधाओं के लिए सरकार की इतनी अधिक गंभीरता है, लेकिन किसानों के लिए ठोस उपाय नहीं हैं.
कभी सूखती और कभी अचानक बहती नदियां, छोटे बांधों से पानी निकालने की समस्या जैसे अनेक मुद्दे अधिक बरसात में ही सामने आते हैं. जिसके बाद समूची चिंता किसानों को तात्कालिक लाभ पहुंचाकर भविष्य के लिए बेसहारा छोड़कर समाप्त हो जाती है. शिवसेना ठाकरे गुट के सम्मेलन के मुकाबले शिवसेना के शिंदे गुट के आयोजन में किसानों की चिंता अधिक की गई.
पार्टी ने अपने कार्यकर्ताओं से किसानों के साथ खड़े रह कर राहत कार्यों में सहयोग का आह्वान किया. किंतु सत्ताधारी होने के साथ समस्या के जड़ से निवारण पर कोई विचार नहीं रखा. यह तय है कि सहायता राज्य और केंद्र सरकार दोनों से मिल जाएगी, लेकिन असली समस्या बनी रहेगी. शिवसेना ठाकरे गुट के सम्मेलन में मनसे प्रमुख राज ठाकरे के शामिल होने की चर्चा हुई, मगर वह नहीं आए.
उनके अपने दल ने भी कुछ साल तक दशहरा सम्मेलन किया. दो शिवसेनाओं के सम्मेलन आरंभ होने के बाद से उनका सम्मेलन नहीं हो रहा है. राज ठाकरे ने भाषा विवाद में उद्धव ठाकरे के साथ मंच साझा करने के बाद मुलाकातें जारी रखी हैं, लेकिन किसी कार्यक्रम में साथ नहीं आए. महानगर पालिका चुनावों को देखते हुए सम्मेलन में राज ठाकरे की उपस्थिति भविष्य के गठबंधन की संभावनाओं के लिए आवश्यक समझी जा रही थी, लेकिन उनके नहीं आने से शिवसैनिकों को थोड़ी निराशा हुई, जिस पर उद्धव ठाकरे ने जवाब भी दिया.
किंतु मुख्य रूप से सम्मेलन की बात ठाकरे विरुद्ध शिंदे पर ही केंद्रित रही. जिसमें एक-दूसरे पर लांछन लगाकर अपनी श्रेष्ठता साबित करने का प्रयास किया गया. पूर्व में होने वाले दशहरा सम्मेलनों में विपक्ष में होने के कारण आम तौर पर शिवसेना की भूमिका पर सभी का ध्यान लगा रहता था, लेकिन सत्ता सुख में आलोचना की सीमा तय हो जाती है.
लगातार टूट-फूट, पराजय से लक्ष्य केवल आलोचना ही रह जाता है. हाल के वर्षों में यही सुना जा रहा है. उधर, बीड़ जिले के दो सम्मेलनों का सुर भी अपनी-अपनी डफली अपना-अपना राग ही रहा. भाजपा के वरिष्ठ नेता स्व. गोपीनाथ मुंडे के कारण चर्चा में भगवानगढ़ सम्मेलन में उनकी अपनी दिशा जो समाजोन्मुखी होती थी, अब स्थान बदल गया है.
दूसरी ओर नारायणगढ़ में जरांगे का सम्मेलन हुआ. इन दोनों में जातीय समीकरणों में आरक्षण के बहाने सरकार को घेरना ही लक्ष्य सुना गया. इसमें भी आरक्षण के पक्ष-विपक्ष तैयार हैं, जो इन्हीं मंचों से बात रख रहे हैं. दरअसल सामाजिक चेतना को विकसित करने के प्रयासों में महाराष्ट्र में दशहरा सम्मेलन की पुरानी परंपरा है.
नए परिवेश में सम्मेलन में राजनीतिक स्वार्थ अहम भूमिका निभाने लगा है. उससे परे रहकर सम्मेलन के आयोजनों की धार कमजोर पड़ रही है. उसका बिगड़ा रूप भाषणों में आरोप-प्रत्यारोप की झड़ी होती है, जो समर्थकों के बीच नेताओं की छवि को मजबूत बनाती है.
इस परिदृश्य के बावजूद आरएसएस और आंबेडकरवादी संगठन अपने विचारों एवं दृष्टि को अपने समर्थकों तथा अनुयायियों तक पहुंचाने की निरंतरता बनाए रखे हुए हैं. उनका न भटकना ही वर्तमान में राजनीतिक दलों के लिए सकारात्मकता के साथ आगे बढ़ने का संदेश है, जो आत्म संतुष्टि से काफी आगे जनभावना की संतुष्टि के लिए आवश्यक है.