विधान भवन की सीढ़ियों से आरंभ हुई छींटाकशी का हिंसा में बदलना आश्चर्यजनक नहीं है. पिछले कुछ सत्रों से जिस प्रकार विधानमंडल में प्रवेश के दौरान तरह-तरह की टिप्पणियों के माध्यम से हंगामा करने की नई परंपरा आरंभ हुई है, उससे एक दिन यह मारपीट की नौबत आना तय था. गुरुवार को विधायक गोपीचंद पडलकर और जितेंद्र आव्हाड़ के समर्थकों के बीच मुख्य द्वार के समक्ष हॉल में जिस तरह मारपीट हुई और कपड़े फाड़े गए, उससे राजनीति के नए दौर की शुरुआत का नजारा देखने को मिलता है. शिष्टाचार और गरिमा के विपरीत गाली-गलौज तथा एक-दूसरे पर हमला जनप्रतिनिधियों के भविष्य के परिदृश्य की झलक है. सवाल यही है कि क्या यह अचानक ही हुआ? या फिर सुनियोजित तैयारी के साथ हुआ. विधानसभा के अध्यक्ष राहुल नार्वेकर रिपोर्ट तलब कर कार्रवाई करेंगे.
मगर एक महत्वपूर्ण और पवित्र स्थान पर हिंसा के पहुंचने से जुड़ा प्रश्न अपनी जगह रह जाएगा. एक हिस्ट्रीशीटर का विधान भवन तक पहुंचना कई सवालों को जन्म देता रहेगा. प्रदेश की जनता के सबसे बड़े आशा केंद्र को अखाड़ा समझने के प्रति कोई अलग विचार शेष नहीं रह जाएगा. राज्य का सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों अपने-अपने कार्यकर्ताओं के पैरोकार बन जाएंगे,
लेकिन राजनीति के पतन के जिम्मेदार का नाम शायद ही कोई बता पाएगा. महाराष्ट्र में नब्बे दशक से आरंभ हुए राजनीति के नाम पर व्यक्तिगत स्तर पर कटाक्ष से शायद ही राज्य का कोई नेता बच पाया हो. राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के प्रमुख शरद पवार से लेकर वर्तमान मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस तक, हर नेता को किसी न किसी मंच से भली-बुरी बातें सुनने को मिली हैं.
ये टिप्पणियां निजी और कुछ सीमा तक आहत करने वाली भी थीं. किंतु पवार समेत अनेक नेताओं ने राजनीतिक परिपक्वता का परिचय देते हुए उन्हें नजरअंदाज कर दिया. हालांकि इसमें कोई दो राय नहीं है कि जिस स्तर तक भगवा दलों और उनके समर्थकों ने सीमाएं लांघी, वहां तक दूसरे दल नहीं पहुंच पाए. पहले टिप्पणियां कहीं कुंठा और कहीं नीचा दिखाने की दृष्टि से की जाती थीं,
लेकिन अब बात चरित्र हनन से लेकर धमकियों तक पहुंच गई है. सोशल मीडिया से लेकर पोस्टरों तक निजी हमले किए जाने लगे हैं. इनके बीच यह मानने में कोई हिचकिचाहट नहीं होनी चाहिए कि जिस दल के कार्यकर्ता अथवा नेता हमले करते हैं, उनसे वरिष्ठ नेता या पार्टी प्रमुख अनभिज्ञ नहीं रहते हैं. वे उन मामलों पर उठते सवालों के जवाब से बचते हुए उनके प्रति अपना मौन समर्थन दर्ज करते हैं.
यह बात लंबे समय से विधानभवन के बाहर तक सीमित थी, लेकिन अब वहां पहुंचने से चिंता दिखाई जा रही है. हालांकि हर घटना के सूत्रधार से कोई अपरिचित नहीं है. सवाल कार्रवाई का है, जो केवल सत्र के दिनों तक ही चर्चा में रहती है और उसके बाद बात आई-गई हो जाती है. इसी से राजनेताओं के हौसले बुलंद रहते हैं.
वर्ष 2009 में विधानसभा के भीतर समाजवादी पार्टी के विधायक अबू आजमी पर हमला करने वाले महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के विधायकों पर कोई ऐसी कार्रवाई नहीं हुई थी, जो दूसरों के लिए सबक बने. इसलिए वर्तमान में होने वाले हमलों को लेकर क्या कोई उम्मीद लगाई जा सकती है. ताजा घटनाक्रमों पर नजर दौड़ाई जाए तो विधायक आव्हाड़ क्या इस बात से इंकार कर सकते हैं कि उन्होंने विधानभवन की सीढ़ी पर बैठकर विधायक पडलकर के निकलते समय ‘मंगलसूत्र चोर’ नहीं कहा था. इसी प्रकार की टिप्पणी क्या विपक्ष ने मंत्री नीतेश राणे के ऊपर उन्हीं सीढ़ी पर बैठकर नहीं की थी.
दूसरी ओर मंत्री राणे ने भी शिवसेना विधायक आदित्य ठाकरे को लेकर छींटाकशी नहीं की थी? इसके साथ ही विपक्ष शिवसेना शिंदे गुट के मंत्रियों को देखकर क्या टिप्पणियां नहीं करता रहा है? दरअसल ताली दोनों हाथ से बजती है. विपक्ष में बैठे अनेक नेता और सत्ता पक्ष में आसीन कुछ नेता अपनी बयानबाजी से बाज नहीं आते हैं. उन्हें जहां-जैसा अवसर मिलता है, वे हमला कर जाते हैं.
यहां तक कि हंगामे की स्थिति में वे बचाव की बजाय और आक्रामक रूप अपनाते हैं. कुछ हद तक यह सोशल मीडिया पर अपनी उपस्थिति बढ़ाने के लिए भी होता है. किंतु सब कुछ होने के बावजूद सभी दलों के नेताओं का इन विषयों में हस्तक्षेप न किया जाना, ऐसी हरकतों के लिए अप्रत्यक्ष समर्थन साबित होता है. अंत में जब बात बातों से नहीं बनेगी तो हाथ-पांव तो चलेंगे ही.
नेताओं की बयानबाजी पर आम तौर पर किसी के विचारों को दलीय विचारधारा से अलग कह देना, संयम बरतने की सलाह देना, अधिक संवेदनशील होने पर पार्टी की सदस्यता से निलंबित कर देना आदि प्रचलन में है. बावजूद इसके अनियंत्रित जुबान, अपशब्दों से लेकर मारपीट की स्थितियों के पैदा होने के कारणों पर सख्त रुख अपनाने से दल और उनके नेता बचते हैं.
वे कुछ नेताओं की कथित रूप से आक्रामक शैली को तर्कसंगत बताने की कोशिश करते हैं. राजनीति में कहासुनी, सवाल-जवाब, तर्क-कुतर्क, टांग खिंचाई, दावे-प्रतिदावे आदि चलते रहते हैं. उन्हें लोकतंत्र की स्वतंत्रता का तब तक भाग माना जाता है, जब तक वे मर्यादा में दर्ज किए जाते हैं. एक सीमा के उल्लंघन के बाद कार्रवाई अनिवार्य हो जाती है.
दुर्भाग्य से अभी तक किसी दल की ओर से कोई कार्रवाई तब तक सामने नहीं आई, जब तक वह कानूनी दायरे या जनाक्रोश पर न बन आई हो. हर दल और नेता मामले के ठंडा होने का इंतजार करते हैं. किंतु अब बयानों से आगे मारपीट की स्थितियां बन चुकी हैं.
गाली-गलौज और मारपीट सड़क-चौराहे से विधान भवन तक पहुंच गई है. सुरक्षित इलाकों में जुबान पर नियंत्रण पहले भी नहीं था, लेकिन हिंसा को अंजाम दिया जाना चिंताजनक है. शायद भविष्य के अंजाम को देखते हुए इन घटनाओं के प्रति सभी दल और नेता थोड़े गंभीर होंगे.