Maharashtra Chunav 2024: चुनावी ‘नैरेटिव’ गढ़ने और निपटने की तैयारी
By Amitabh Shrivastava | Updated: November 9, 2024 13:49 IST2024-11-09T13:48:42+5:302024-11-09T13:49:59+5:30
Maharashtra Chunav 2024: बीते लोकसभा चुनाव में अपनी बड़ी उम्मीदों पर पानी फिरने के बाद महाराष्ट्र में सत्ताधारी महागठबंधन को हार मानते हुए यह कहना पड़ा कि विपक्ष की ओर से गढ़े गए ‘फेक नैरेटिव’(झूठी धारणाओं) ने उसका नुकसान किया.

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Maharashtra Chunav 2024: यूं तो ‘नैरेटिव’ अंग्रेजी का शब्द है, जिसका प्रयोग वर्षों से हो रहा है, किंतु पिछले लोकसभा चुनाव के बाद से यह राजनीतिक शब्दकोष में महत्वपूर्ण स्थान बना चुका है. स्थितियां यहां तक हो चली हैं कि राजनेता इसे आम बोलचाल में उपयोग में लाने लगे हैं. बीते लोकसभा चुनाव में अपनी बड़ी उम्मीदों पर पानी फिरने के बाद महाराष्ट्र में सत्ताधारी महागठबंधन को हार मानते हुए यह कहना पड़ा कि विपक्ष की ओर से गढ़े गए ‘फेक नैरेटिव’(झूठी धारणाओं) ने उसका नुकसान किया. वास्तविक रूप में जो था नहीं, उसे लोगों में फैलाया और विश्वास दिलाया गया.
अब विधानसभा चुनाव में सत्ताधारियों की स्थिति दूध का जला छाछ फूंक-फूंक कर पीने की है. इसलिए कांग्रेस, भारतीय जनता पार्टी (भाजपा), राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (शरद पवार गुट) और शिवसेना (ठाकरे गुट) ने अपने-अपने पासे फेंक दिए हैं. इस बार पहली चाल में यह समझ में आ चुका है कि कोई भी एकतरफा हार स्वीकार करने के लिए मजबूर नहीं होगा.
यदि आक्रमण होगा तो उसे उत्तर भी नए पैंतरे के साथ दिया जाएगा. राज्य की उपराजधानी नागपुर से कांग्रेस की ‘संविधान सम्मान सम्मेलन’ के माध्यम से चुनावी शुरुआत और उसी दौरान सातारा की सभा में उपमुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस का ‘लाल किताब’ को लेकर नए विवाद को जन्म देना अचानक या फिर त्वरित प्रतिक्रिया नहीं माना जा सकता है.
कांग्रेस ने संविधान बदलने का ‘नैरेटिव’ चलाकर लोकसभा चुनाव में एक बड़े वर्ग के बीच चिंता का वातावरण तैयार किया था. उसी प्रकार उसने हरियाणा में प्रयास किए. यद्यपि दोनों चुनावों के परिणामों में अंतर था, किंतु कांग्रेस की मतदाताओं के बीच धारणा बनाने की बात सीधी थी. उसने संविधान के ही फार्मूले को झारखंड में आजमाया और अब महाराष्ट्र की बारी है.
हालांकि आम चुनाव में चार सौ पार के नारे और एक उम्मीदवार के संविधान बदलने के बयान ने भाजपा की पांच साल की मेहनत पर पानी फेरा था. बाद में जब वह सीटों के कम होने की परिस्थिति से उबर रही थी कि तभी दो राज्यों के चुनाव आ गए, जहां वह संविधान विषय पर बनाई जा रही धारणा को लेकर अधिक गंभीर नहीं थी, लेकिन अब झारखंड से जब बात महाराष्ट्र पहुंची तो उसने पूरी तरह निपटने की ठान ली है. कांग्रेस जानती है कि संविधान का मुद्दा महाराष्ट्र के लिए अधिक संवेदनशील है, जिसके बहाने राज्य के महागठबंधन में विशेष रूप से भाजपा को दबाया जा सकता है.
मगर इस बार भाजपा ने सतर्कता दिखाते हुए पहले संविधान की किताब को कोरा बताया और उसके बाद उपमुख्यमंत्री फडणवीस ने लाल किताब के बहाने ‘अर्बन नक्सलवाद’ को हवा देने का प्रयास किया है. भाजपा का प्रयास है कि संविधान के ‘नैरेटिव’ का मुकाबला वामपंथी लाल रंग दिखा कर शहरी नक्सली की संकल्पना को ठोस आधार प्रदान कर किया जाए.
‘अर्बन नक्सलवाद’ को पूरी तरह भाजपा ने प्रचारित किया है और वह उसे सीमापार के आतंकवाद से जोड़कर देखती है. इसका संदर्भ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के संबोधनों में भी आ चुका है. अर्थात् कांग्रेस और भाजपा की ‘नैरेटिव लाइन’ तैयार है. अन्य दलों में राकांपा (शरद पवार गुट) के मुखिया शरद पवार ने अपनी उम्र का हवाला देकर एक बार फिर सहानुभूति का वातावरण तैयार करने का प्रयास किया है.
इस बार भी वह स्वयं की चुनावी राजनीति को विश्राम देकर नई पीढ़ी को तैयार करना चाहते हैं. साफ है कि जो समर्थक उनकी बढ़ती उम्र की जिजीविषा को सलाम करते हैं वे उन्हें आगे भी नेतृत्व करते देखना चाहेंगे, जिससे उनके नाम के प्रति सहानुभूति का पोषक वातावरण तैयार होने में कोई समस्या नहीं है.
चुनाव में शिवसेना (ठाकरे गुट) का सारा दारोमदार पार्टी छोड़ने वालों, जिन्हें वह ‘गद्दार’ कहती है, और निष्ठावानों के बीच है. इसमें भ्रष्टाचार को भी जोड़ा गया है. किंतु पार्टी छोड़ने वाले और भ्रष्टाचार का कोई भी मामला सीधे तौर पर सामने नहीं आने से निष्ठा और ईमानदारी का ‘नैरेटिव’ आसानी से गढ़ा नहीं जा सकता है.
उसके पास यदि बताने के लिए ढाई साल महागठबंधन सरकार की नाकामियां हैं तो पिछले ढाई साल का शासन उसका भी दर्ज है. इन चार दलों के अलावा शिवसेना(शिंदे गुट) और राकांपा(अजित पवार गुट) हैं, जो किसी सोच और धारणा को खुद बनाने में विश्वास नहीं दिखाते हैं. फिलहाल दोनों ही रक्षात्मक खेल में विश्वास रख रहे हैं.
वह सभी आरोपों को खारिज करने और अपने निर्णयों को सही ठहराने में जुटे हैं. उन्हें इस बात का अनुमान है कि उन पर अलग-अलग कोणों से हमले किए जाएंगे, जिनमें उनके सहयोगी भी साथ नहीं देंगे. ताजा प्रकरण पत्रकार राजदीप सरदेसाई की किताब में मंत्री छगन भुजबल के प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) से बचने के लिए महागठबंधन में जाने का है.
इससे पहले पूर्व मंत्री नवाब मलिक को भी टिकट दिए जाने का मामला आ चुका है. राजनीतिक दलों के अलावा सामाजिक आंदोलनों के ‘नैरेटिव’ तैयार करने के प्रयास अपनी जगह जारी हैं. अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी), धनगर समाज और मराठा समाज अपनी-अपनी तरह से संदेशों को देकर अपने मतदाताओं के मन-मस्तिष्क पर प्रभाव डाल रहे हैं.
कुछ इसी तरह की कोशिशें मुस्लिम संप्रदाय में भी जारी हैं, जो अपने हितों की रक्षा करने वालों को चुनाव में सफल बनाना चाहते हैं. आम तौर पर यह माना जाता है कि चुनाव निष्पक्ष और बिना किसी राग-द्वेष के होना चाहिए. किंतु वर्तमान समय में यह संभव नहीं दिखाई दे रहा है. पहले इन बातों को गली-मोहल्लों के बीच ही सुना जाता था, लेकिन अब राजनीतिक दलों की प्रतिद्वंद्विता ने उन्हें सड़कों से सार्वजनिक मंचों पर ला दिया है. इस कार्य में आग में घी डालने का काम सोशल मीडिया ने किया है, जिस पर चुनाव के दौरान नियंत्रण लाने की अनेक कोशिशों के बावजूद भी स्थिति अनियंत्रित ही है.
वैसे अब तक किसी धारणा को बनाने की कोशिश एकपक्षीय ही होती आई है. किंतु वर्तमान चुनाव में ‘नैरेटिव’ से ‘नैरेटिव’ के मुकाबले की जमीन तैयार हो रही है. देखना यह होगा कि किसकी सोच, किसकी समझ मतदाता के दिमाग पर चढ़ती और मत परिवर्तन करती है. आमने-सामने की लड़ाई में सतर्कता दोनों तरफ है.