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Maharashtra Chunav 2024: किसी भी तरह से सत्ता पाने का मोह देता है बगावत को जन्म?

By लोकमत समाचार सम्पादकीय | Updated: November 6, 2024 12:47 IST

Maharashtra Chunav 2024: महाराष्ट्र में सत्तारूढ़ महायुति जिसमें भाजपा, शिवसेना (शिंदे) तथा राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (अजित पवार) शामिल हैं, का मुकाबला कांग्रेस, राष्ट्रवादी पार्टी (शरद पवार) तथा उद्धव ठाकरे के नेतृत्व वाली शिवसेना को मिलाकर बनी महाविकास आघाड़ी से है.

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ठळक मुद्देअक्तूबर में खत्म हुए लोकसभा चुनाव में आघाड़ी ने बाजी मार ली थी.निर्दलीयों तथा बागी उम्मीदवारों के पास बाजी पलटने की क्षमता आ जाती है.पार्टी में चुनाव के वक्त बगावत होती है.

Maharashtra Chunav 2024: महाराष्ट्र में 288 सीटों वाली विधानसभा के चुनाव में नामांकन वापसी की समय सीमा खत्म हो जाने के बाद 4140 उम्मीदवार मैदान में डटे हुए हैं. इनमें बड़ी संख्या में निर्दलीय, छोटे दलों के प्रत्याशी और टिकट न मिलने की वजह से अपनी पार्टी से बगावत कर मैदान में उतरे असंतुष्ट नेता हैं. नामांकन वापसी की अंतिम तिथि निकल जाने के बाद भी कुछ प्रत्याशी मैदान से हटने की घोषणा कर देते हैं लेकिन ऐसे लोगों की तादाद ज्यादा नहीं होती. इस वक्त राज्य की एक सीट के लिए औसतन 14 दावेदार डटे हुए हैं. महाराष्ट्र में सत्तारूढ़ महायुति जिसमें भाजपा, शिवसेना (शिंदे) तथा राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (अजित पवार) शामिल हैं, का मुकाबला कांग्रेस, राष्ट्रवादी पार्टी (शरद पवार) तथा उद्धव ठाकरे के नेतृत्व वाली शिवसेना को मिलाकर बनी महाविकास आघाड़ी से है.

अक्तूबर में खत्म हुए लोकसभा चुनाव में आघाड़ी ने बाजी मार ली थी लेकिन उसके बाद से राज्य में राजनीतिक माहौल बदला है और संभावना इस बात की है कि आघाड़ी तथा महायुति के बीच कांटे की टक्कर होगी. चुनावी मुकाबला जब बेहद नजदीकी हो जाता है तब अपने-अपने क्षेत्रों में कुछ जनाधार रखने वाले निर्दलीयों तथा बागी उम्मीदवारों के पास बाजी पलटने की क्षमता आ जाती है.

हर पार्टी में चुनाव के वक्त बगावत होती है. पार्टी से बगावत करने वाले नेताओं का आमतौर पर तर्क यही रहता है कि पार्टी ने उनकी सेवा तथा निष्ठा को नजरअंदाज किया एवं दूसरे दलों से आए नेताओं या जनाधार विहीन नेताओं को तरजीह दी. राजनीति के वर्तमान दौर में हम किसी भी नेता या कार्यकर्ता से यह उम्मीद नहीं रख सकते कि वह पार्टी के हितों को सर्वोच्च महत्व देगा, उसके प्रति निष्ठावान रहेगा तथा एक अनुशासित सिपाही के तौर पर पार्टी का काम करता रहेगा. छोटे से छोटे कार्यकर्ता की यह अपेक्षा रहती है कि उसकी निष्ठा तथा सेवा का फल एक न एक दिन पार्टी उसे अवश्य देगी.

कार्यकर्ताओं को पुरस्कृत करने के लिए भारतीय लोकतंत्र में राजनीतिक दलों को कई मंच मिले हुए हैं. ग्राम पंचायत, जिला परिषद, नगर पंचायत, नगर परिषद, महानगरपालिका के चुनाव में मौका देने के अलावा सत्ता में आने पर विभिन्न सरकारी निगमों एवं महामंडलों का सदस्य व अध्यक्ष बनाकर सदस्यों को उनकी सेवा के बदले पुरस्कृत किया जाता है.

इन सबके बावजूद निचले स्तर से लेकर लोकसभा तक जब भी कोई चुनाव आते हैं, तब बगावत सिर उठाने लगती है. जिस किसी भी पार्टी का अपने क्षेत्र में राजनीतिक प्रभाव रहता है, उसका टिकट पाने के लिए कार्यकर्ताओं में होड़ लग जाती है. यही नहीं, अपनी पार्टी में टिकट से वंचित नेता अपने क्षेत्र की दूसरी प्रभावशाली पार्टी का दामन थाम लेते हैं.

दलबदल करने वाले नेता कुछ सौदेबाजी के बाद ही नई पार्टी में जाते हैं. जब टिकट वितरण होता है तब राजनीतिक लाभ की दृष्टि से आयातित नेताओं को राजनीतिक दल पुरस्कृत करते हैं. इसके अलावा हर पार्टी में प्रभावशाली नेता अपना गुट बनाने की कोशिश करता है और इस प्रयास में उसकी कोशिश रहती है कि उसके भरोसेमंद साथियों को टिकट मिल जाए.

इसके कारण जमीनी स्तर के कार्यकर्ता उपेक्षित रह जाते हैं. आजकल राजनीतिक पार्टियां चुनाव के पूर्व अपने स्तर पर निर्वाचन क्षेत्र में सर्वेक्षण  करवाती हैं और उसके आधार पर भी कुछ हद तक टिकटों का बंटवारा होता है. इससे भी टिकट की आस लगाए बैठे नेता और कार्यकर्ता नाराज होकर बगावत करते हैं. जो लोग कई बार जनप्रतिनिधि रह चुके हैं, वे अपने निर्वाचन क्षेत्र पर अपना एकाधिकार समझने लगते हैं.

जब उनका टिकट काटकर किसी नए चेहरे को मौका दिया जाता है तो बगावत पर उतारू हो जाते हैं. राजनीति सेवा के माध्यम से सत्ता तक पहुंचने की सीढ़ी है लेकिन समय के साथ-साथ राजनीति का चाल, चरित्र और चेहरा बदला है. अब हर कार्यकर्ता आम आदमी की सेवा को नहीं, सत्ता तक पहुंचने के लिए शॉर्टकट अपनाने पर ज्यादा जोर लगा देता है, इसके लिए चाटुकारिता से लेकर धनबल तथा बाहुबल का प्रदर्शन तक करने से वह नहीं हिचकिचाता. सत्ता का लक्ष्य रखना कोई बुरी बात नहीं है.

राजनीतिक दल में वर्षों  जीवन खपाने के बाद टिकट की अपेक्षा करना भी बुरा नहीं है लेकिन जनता की सेवा के राजनीति के मूल उद्देश्य को तिलांजलि देकर साम-दाम-दंड-भेद से टिकट के लिए ही पूरी ताकत लगा देना लोकतंत्र के स्वास्थ्य के लिए अच्छी बात नहीं है. बागी उम्मीदवारों की सफलता का प्रतिशत दो-चार प्रतिशत या उससे भी कम रहता है. वे किसी न किसी पार्टी का वोट काटने का ही काम करते हैं.

निश्चित रूप से अपना हित साधने के लिए राजनीतिक दल कुछ असरदार बागियों की अप्रत्यक्ष रूप से मदद करते हैं लेकिन इन सब हथकंडों से वे मतदाता तथा लोकतंत्र के साथ छलावा करते हैं. चुनाव के वक्त बगावत की प्रवृत्ति को पूरी तरह खत्म करना लगभग असंभव है. हर आदमी जनप्रतिनिधि बनकर सत्ता का उपयोग करना चाहता है. राजनीति के केंद्र में जब तक जनता की सेवा की भावना फिर से नहीं आती, तब तक राजनीतिक महत्वाकांक्षा लोकतंत्र के मूल्यों को चोट पहुंचाती रहेगी. 

टॅग्स :महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव 2024कांग्रेसBJP
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