महाराष्ट्र विधानसभा चुनावों से पहले किया था संपर्क?, किसने की चुनाव ‘फिक्स’ करने की पेशकश?
By हरीश गुप्ता | Updated: August 13, 2025 05:17 IST2025-08-13T05:17:47+5:302025-08-13T05:17:47+5:30
कांग्रेस ने इस प्रलोभन को ठुकरा दिया और कहा जाता है राजनीतिक गलियारों में फुसफुसाते हुए कि इस जोड़ी ने फिर भाजपा का दरवाजा खटखटाया.

सांकेतिक फोटो
दिल्ली के राजनीतिक गलियारों में हलचल मचा देने वाले एक खुलासे में, एनसीपी सुप्रीमो शरद पवार ने दावा किया है कि दो अज्ञात लोगों ने महाराष्ट्र विधानसभा चुनावों से पहले उनसे संपर्क किया था और एक दुस्साहसिक पेशकश की थी - विपक्ष को 288 में से 160 सीटें जीतने की ‘गारंटी’ देने की. उनका दावा क्या था? वे इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीनों को ‘मैनेज’ कर सकते हैं. इस दावे ने तुरंत 2014 के लोकसभा चुनावों के दौरान की घटना की याद दिला दी, जब ऐसी ही एक जोड़ी ने कथित तौर पर ईवीएम में छेड़छाड़ की पेशकश के साथ कांग्रेस के एक वरिष्ठ मंत्री से संपर्क किया था.
कांग्रेस ने इस प्रलोभन को ठुकरा दिया और कहा जाता है राजनीतिक गलियारों में फुसफुसाते हुए कि इस जोड़ी ने फिर भाजपा का दरवाजा खटखटाया. लेकिन कुछ भी साबित नहीं हुआ क्योंकि तब कोई आरोप नहीं लगाए गए थे. फिर जनवरी 2019 आया, जब लंदन में कथित भारतीय साइबर विशेषज्ञ सैयद शुजा ने एक अजीबोगरीब प्रेस कॉन्फ्रेंस की,
जिसमें उन्होंने आरोप लगाया कि 2014 के चुनावों में ‘धांधली’ हुई थी और गोपीनाथ मुंडे व पत्रकार गौरी लंकेश की हत्याओं को ईवीएम की साजिश से जोड़ा. पूर्व कानून मंत्री कपिल सिब्बल की अचानक मौजूदगी ने कांग्रेस को शर्मिंदा कर दिया, जिसने तुरंत खुद को इससे अलग कर लिया, हालांकि उसने ईवीएम के खिलाफ अपना अभियान तेज कर दिया. लेकिन पवार चुप रहे.
अब पवार का कहना है कि उन्होंने इस रहस्यमयी जोड़ी का परिचय राहुल गांधी से कराया था, लेकिन दोनों नेताओं ने यह कहते हुए ‘प्रस्ताव’ ठुकरा दिया कि ‘यह हमारा तरीका नहीं है.’ दिलचस्प बात यह है कि पवार का दावा है कि उन्होंने कभी उनके संपर्क सूत्र नहीं रखे- ‘मैंने उनके दावों को महत्व नहीं दिया.’ उन्होंने कहा. फिर भी, उनका यह खुलासा राहुल के हालिया ‘वोट चोरी’ के आरोप से मेल खाता है.
चुनाव आयोग की जांच की मांग करता है. पवार द्वारा इस बात की पुष्टि के साथ कि वे लोग ‘उनके कहने पर’ राहुल से मिले थे, यह प्रकरण अब राजनीतिक गलियारे से बाहर निकलकर आपराधिक जांच के दायरे में आ सकता है. बस एक ही अड़चन है. सुराग वैसे ही गायब हैं, जैसे वे रहस्यमयी लोग, जो अंदर आए, अपनी बात रखी-और लापता हो गए.
भारत पर ट्रम्प के टैरिफ की पहेली
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अमेरिका के साथ संबंधों में तल्खी का सामना करने वाले पहले भारतीय नेता नहीं हैं. नेहरू की अमेरिका के साथ शुरुआती गर्मजोशी गुटनिरपेक्ष नीति के प्रति उनके झुकाव के कारण ठंडी पड़ गई और 1962 के चीन के साथ युद्ध के बाद बदल गई. इंदिरा गांधी ने 1971 में सबसे ठंडा दौर देखा था जब रिचर्ड निक्सन ने भारत के साथ रूखा व्यवहार किया था.
इससे वे सोवियत संघ के साथ मैत्री संधि पर हस्ताक्षर करने के लिए प्रेरित हुईं. प्रतिबंधों का सामना उन्हें 1974 के परमाणु परीक्षण के बाद करना पड़ा था, वही हश्र अटल बिहारी वाजपेयी को भी 1998 में पोखरण-2 के बाद झेलना पड़ा था. मनमोहन सिंह ने बाद में जॉर्ज डब्ल्यू बुश की नीति में बदलाव का फायदा उठाते हुए भारत को एक रणनीतिक साझेदार बनाने के लिए इस स्थिति को पलट दिया.
मोदी ने उस विरासत को आगे बढ़ाया और ट्रम्प 1.0 (2016-2020) के दौरान, तालमेल वास्तविक दिखाई दिया. ट्रम्प ने मोदी को ‘मेरा सबसे अच्छा दोस्त’ कहा और ‘हाउडी मोदी’ के तमाशे का आनंद लिया. यही वजह है कि ट्रम्प 2.0 का अचानक भारत पर 50% टैरिफ लगाने का फैसला हैरान करने वाला लगता है. कूटनीतिक हलकों में दो घटनाओं की चर्चा हो रही है.
पहली, 2024 के अमेरिकी चुनाव प्रचार के दौरान मोदी का ट्रम्प से योजनाबद्ध तरीके से हाथ मिलाने से चुपचाप पीछे हटना और पूरी तरह तटस्थ रहना. दूसरी, भारत द्वारा ट्रम्प के इस दावे को सार्वजनिक रूप से खारिज करना-जो दो दर्जन से ज्यादा बार दोहराया गया-कि उन्होंने भारत-पाक युद्धविराम में मध्यस्थता की थी.
नई दिल्ली ने जोर देकर कहा कि किसी बाहरी व्यक्ति की इसमें कोई भूमिका नहीं थी. ‘सबसे अच्छे दोस्त’ से टैरिफ लक्ष्य की ओर बदलाव क्यों? क्या यह सोची-समझी नीति थी, व्यक्तिगत नाराजगी थी, या कोई गहरा रणनीतिक संकेत था? इसका उत्तर अस्पष्ट है. रक्षा या व्यापार से जुड़े पिछले भारत-अमेरिका विवादों के विपरीत, इस दरार का कोई स्पष्ट आर्थिक तर्क नहीं है.फिलहाल, यह कूटनीति के इतिहास में एक अनसुलझी पहेली बनी हुई है-ऐसी पहेली जहां हर सिद्धांत तो सही लगता है, लेकिन असली वजह वाशिंगटन में बंद दरवाजों के पीछे छिपी रहती है.
मोदी का दांव सतर्क, उकसावे वाला नहीं
वैश्विक कूटनीति के क्षेत्र में, प्रधानमंत्री मोदी अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प के साथ एक तनी हुई रस्सी पर चल रहे हैं. ट्रम्प एक ऐसे व्यक्ति हैं जो अपनी तीखी प्रतिक्रिया और लेन-देन की राजनीति के लिए जाने जाते हैं. ट्रम्प के व्यापार संबंधी ‘अनुचित और अतार्किक’ बयानों के बावजूद, नई दिल्ली ने स्पष्ट रूप से जवाबी शुल्क लगाने से परहेज किया है.
यह संयम कोई कमजोरी नहीं है क्योंकि प्रधानमंत्री और उनके मंत्री सख्ती से बात कर रहे हैं. यह एक रणनीतिक मापदंड है. मोदी का हालिया बयान- ‘मैं व्यक्तिगत रूप से भारी कीमत चुकाने को तैयार हूं’ -एक गंभीर बयान है. यह दीर्घकालिक भू-राजनीतिक लाभ हासिल करने के लिए घरेलू आलोचना और अल्पकालिक कष्ट सहने की इच्छा का संकेत देता है.
ट्रम्प के मामले में, मोदी चुपचाप भारत को भविष्य की अस्थिरता से बचा रहे हैं. उनकी पहुंच सिर्फ सरकार तक ही सीमित नहीं है. यह जमीनी स्तर पर भी है. मोदी भारतीय-अमेरिकियों, टेक सीईओ, सांसदों और विचारकों के बीच सद्भावना का सावधानीपूर्वक निर्माण कर रहे हैं-अमेरिका के भीतर एक ऐसा जनसमुदाय बना रहे हैं जो दलीय सीमाओं और राष्ट्रपतियों से परे है.
इस बीच, आरबीआई ने भारत के बढ़ते कद को रेखांकित किया है, जिसका अमेरिका के 11% की तुलना में वैश्विक विकास में 18% का योगदान है. मोदी केवल भारत की आर्थिक भूमिका पर जोर नहीं दे रहे हैं- वे इसमें कूटनीतिक वजन भी डाल रहे हैं. रूस के राष्ट्रपति पुतिन को निमंत्रण, चीन और जापान की आगामी यात्राएं, ब्राजील के समकक्ष लूला दा सिल्वा का मोदी को फोन करना - ये सब अमेरिका के साथ संपर्क को बरकरार रखते हुए - एक ऐसे नेता को दिखाते हैं जो किसी एक धुरी पर नहीं बल्कि कई जगह संतुलन साध रहा है.
यह तुष्टिकरण नहीं है; यह उलझन से बचना है. उकसावे के बावजूद मोदी का ट्रम्प के प्रति संयम, शक्ति के चतुराईपूर्ण आकलन को प्रकट करता है. वे दिखा रहे हैं कि नई विश्व व्यवस्था में, परिपक्व राष्ट्र स्थिर रहकर जीतते हैं - मुट्ठियां भांजकर नहीं. और अगर इसका मतलब घर पर उन्हें राजनीतिक नुकसान होना है तो हो. यह एक ऐसी दुनिया है जहां ट्रम्प दहाड़ते हैं और मोदी धीरे-धीरे बोलते हैं - लेकिन हर शब्द सोच-समझकर.