Maharashtra Assembly Elections 2024: अपनी राह में नित नए कांटे बिछाती भाजपा!

By Amitabh Shrivastava | Updated: August 31, 2024 11:26 IST2024-08-31T11:25:26+5:302024-08-31T11:26:32+5:30

Maharashtra Assembly Elections 2024: लोकसभा चुनाव 2024 के बाद विधानसभा चुनाव 2024 में भी राह आसान नहीं है.

Maharashtra Assembly Elections 2024 BJP laying new thorns in its path every day blog Amitabh Srivastava | Maharashtra Assembly Elections 2024: अपनी राह में नित नए कांटे बिछाती भाजपा!

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Highlightsबीते दो विधानसभा चुनावों का प्रदर्शन भी दोहरा पाना संभव नहीं दिखाई दे रहा है. महाराष्ट्र में भाजपा ने अपना विकास शिवसेना के साथ मिलकर किया. वर्ष 1995 में गठबंधन सरकार के गठन के बाद उसे अच्छे परिणाम मिलना आरंभ हुए.

Maharashtra Assembly Elections 2024: बीते लोकसभा चुनाव में करारा झटका खाने के बाद भारतीय जनता पार्टी(भाजपा) चाहे जितने प्रकार से अपनी पराजय समझने और समझाने की कोशिश करे, मगर अब यह साफ होता जा रहा है कि महाराष्ट्र में नुकसान की वह स्वयं जिम्मेदार है. वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव में 23 सीटें और विधानसभा चुनाव में अकेले 122 सीटें जीतकर भाजपा ने अपनी मजबूत वापसी की थी. किंतु वर्ष 2019 के बाद लगातार किए जा रहे समझौतों ने इतनी समस्याएं पैदा कर दी हैं कि लोकसभा चुनाव के बाद विधानसभा चुनाव में भी राह आसान नहीं है.

राजनीतिक पंडितों को भाजपा के लिए बीते दो विधानसभा चुनावों का प्रदर्शन भी दोहरा पाना संभव नहीं दिखाई दे रहा है. इसमें कोई दो-राय नहीं है कि बीते अनेक सालों में महाराष्ट्र में भाजपा ने अपना विकास शिवसेना के साथ मिलकर किया. वर्ष 1995 में गठबंधन सरकार के गठन के बाद उसे अच्छे परिणाम मिलना आरंभ हुए.

वर्ष 1996 के लोकसभा चुनाव के बाद वर्ष 1998 और वर्ष 2009 के लोकसभा चुनावों को छोड़ दिया जाए तो पार्टी ने दो अंकों में सीटें जीतीं और मत भी 20 प्रतिशत के आस-पास रहे. वर्ष 2014 से स्थितियों में अधिक सुधार आया और 23 सीटों के साथ मतों का प्रतिशत 27.4 तक पहुंच गया. पार्टी को मिलने वाले मतों की संख्या तो 25 प्रतिशत से ऊपर पहुंची.

लेकिन वर्ष 2024 में सीटों की संख्या गिरकर नौ तक जा पहुंची. यह स्थिति पार्टी को 15 साल पुराने वर्ष 2009 के लोकसभा चुनाव के प्रदर्शन पर ले पहुंची, जिसमें उसे 18.2 प्रतिशत मतों के साथ नौ ही सीटें मिली थीं. हालांकि 44 साल पुरानी पार्टी का ग्राफ पांच साल में अचानक ही नीचे नहीं गिरा. इसकी पृष्ठभूमि पार्टी के नेताओं ने ही अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षा से तैयार की.

वर्ष 2019 के लोकसभा चुनाव में शिवसेना के साथ गठबंधन कर 23 और विधानसभा चुनाव में 105 सीटें जीतना एक अच्छा प्रदर्शन था. हालांकि वर्ष 2014 के विधानसभा चुनाव की तुलना में सीटें घटी थीं. किंतु सत्ता के लिए उम्मीदें बढ़ी थीं. इसी में पहले राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (राकांपा) के नेता अजित पवार को तोड़कर अलसुबह सरकार बनाने का प्रयास हुआ, जो कुछ ही दिन टिक पाया.

उसके बाद हालात इतने बिगड़े कि शिवसेना विपक्ष के पाले में जाकर कांग्रेस और राकांपा को लेकर सरकार बना बैठी. यहां तक कि अजित पवार को उपमुख्यमंत्री तक बना दिया गया. अब भाजपा के समक्ष प्रतिपक्ष की भूमिका का विकल्प था, जिसमें उसने जोरदार भूमिका निभाई. शिवसेना के नेतृत्व में बनी महाविकास आघाड़ी की सरकार को चैन से नहीं बैठने दिया.

भाजपा के विपक्षी तेवर पसंद भी किए जा रहे थे, लेकिन अचानक सत्ता सुख की आकांक्षा जागृत होने पर उसने आघाड़ी सरकार गिरा दी और शिवसेना को तोड़ सत्ता में भागीदारी पा ली. इस दौरान उसने ‘हिंदू कार्ड’ खेल कर तोड़-फोड़ की राजनीति को जायज ठहराया. नई सरकार बनने पर यह भी कहा गया कि पिछली सरकार के उपमुख्यमंत्री अजित पवार निधि आवंटन में भेदभाव बरत रहे थे.

इसलिए सरकार गिरानी पड़ी. मगर कुछ समय बाद अजित पवार भी सरकार में शामिल हो गए. यह घटनाक्रम पचा पाना आसान नहीं रहा. भाजपा विपक्ष में रहते हुए आघाड़ी सरकार के जिन मंत्रियों पर अंगुली उठाती थी, वे भी सत्ता में साथ आ गए, जिससे कथनी और करनी पर सवाल उठा. इसके बाद बीते साल अगस्त माह में मराठा आरक्षण आंदोलन के नेता मनोज जरांगे के आक्रामक होने के बाद एक बार फिर भाजपा ने मामला सुलझाने में अगुवाई की कोशिश की, किंतु नतीजे से अधिक आज आलोचनाएं सामने हैं.

यहां तक कि पिछली सरकार में उसकी आंदोलन की मांगों को पूरा करने की कोशिशों को भी झुठला दिया गया. उधर, लोकसभा चुनाव में 45 सीटें जीतने का इरादा और संविधान बदलने की आशंका ने सारी उम्मीदों पर पानी फेर दिया. अब विधानसभा चुनाव में भाजपा शासित राज्यों की ‘लाड़ली बहन’ योजना को लाकर नया वातावरण तैयार करने की कोशिश हुई, तो बदलापुर कांड ने नई परेशानियां खड़ी कर दीं.

इन सब के बीच ही एक अलग किस्म की कोशिश के तहत सिंधुदुर्ग जिले के मालवण में समुद्र किनारे पर स्थापित छत्रपति शिवाजी महाराज की प्रतिमा ढहने से आरोपों की झड़ी लग गई. यूं तो दो-ढाई वर्ष की सारी घटनाएं राज्य सरकार के खाते में दर्ज हुईं, लेकिन परेशानी केवल भाजपा की बढ़ी. इससे पहले वह विपक्ष में रहकर अपना ग्राफ अच्छी तरह बढ़ा रही थी.

बेहतर तो यह भी हो सकता था कि वह शिवसेना के साथ कुछ समझौते कर सरकार चलाकर बढ़ोत्तरी के क्रम में नई ऊंचाई हासिल कर लेती. अब स्थितियां यह हैं कि जहां कहीं सरकार के समक्ष अड़चन आती है तो उसके सहयोगी राकांपा(अजित पवार गुट) और शिवसेना (शिंदे गुट) किनारे हो जाते हैं.

मराठा आरक्षण आंदोलन हो या बदलापुर कांड या फिर प्रतिमा का ढहना, सभी में भाजपा निशाने पर है. उसके सहयोगी माफी मांग कर अपनी जान बचा रहे हैं. दरअसल पिछले पांच साल में पैदा हुईं परेशानियों के लिए जिम्मेदार भाजपा स्वयं है, जिसने राजनीतिक महत्वाकांक्षा को पूरा करने के लिए अपनी राह में खुद गड्‌ढे खोदे हैं.

अब वह जहां भी कदम आगे बढ़ा रही है, वहां फंसती जा रही है. लोकसभा चुनाव के बाद विधानसभा चुनाव बड़ी चुनौती हैं, लेकिन सहयोगी तक भाजपा की जीत का ग्राफ सिमटता हुआ मान रहे हैं. वे उसे प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से उसकी अपनी नीतियों में फंसता मान रहे हैं.

माना जा रहा है कि यदि मूल शिवसेना के साथ गठबंधन सरकार बनाई जाती तो विपक्ष में इतना चैतन्य पैदा नहीं होता, जितना आज दिख रहा है. वर्तमान में विपक्ष केवल हमलावर ही नहीं, बल्कि सत्ता का दावेदार बनकर तैयार है. इस स्थिति में भाजपा के पास रक्षात्मक खेल के अलावा विकल्प नहीं है, क्योंकि सफलता की राह में सत्ता की महत्वाकांक्षा मुश्किल बन कर डट गई है. 

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