Lok Sabha Elections 2024: मोदी सरकार के खिलाफ सत्ता-विरोधी लहर नहीं, 1977 में बनी जनता पार्टी की याद दिलाता INDIA Alliance

By अभय कुमार दुबे | Updated: September 5, 2023 10:56 IST2023-09-05T10:55:37+5:302023-09-05T10:56:58+5:30

Lok Sabha Elections 2024: नया मोर्चा नब्बे के दशक में अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण अडवाणी द्वारा बनाए गए राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठजोड़ (एनडीए या राजग) की भी याद दिलाता है.

Lok Sabha Elections 2024 Not anti-incumbency against Modi government INDIA Alliance reminds of Janata Party formed in 1977 blog Abhay Kumar Dubey | Lok Sabha Elections 2024: मोदी सरकार के खिलाफ सत्ता-विरोधी लहर नहीं, 1977 में बनी जनता पार्टी की याद दिलाता INDIA Alliance

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Highlightsशक्तिशाली पार्टी के केंद्र के इर्दगिर्द घूम रहे छुटभैये दलों का जमावड़ा भर है.चुनाव की दृष्टि से जनता पार्टी भी सफल थी, उस समय का राजग भी. इंदिरा गांधी के खिलाफ बगावत करके आई सीएफडी (जगजीवन राम और बहुगुणा की कांग्रेस फॉर डेमोक्रेसी) का बहुत बड़ा हाथ था.

Lok Sabha Elections 2024: आई.एन.डी.आई.ए. गठजोड़ 1977 में बनी जनता पार्टी की याद दिलाता है. पार्टी होने के बावजूद इसकी संरचना किसी चुनाव-पूर्व मोर्चे से भिन्न नहीं थी. इसी तरह यह नया मोर्चा नब्बे के दशक में अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण अडवाणी द्वारा बनाए गए राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठजोड़ (एनडीए या राजग) की भी याद दिलाता है.

हालांकि भाजपा आज भी इस नाम के एक मोर्चे का नेतृत्व कर रही है, लेकिन यह समानता केवल नाम की ही है. वस्तुत: कल का राजग शक्तिशाली क्षेत्रीय पार्टियों और केंद्र की राजनीति में अपनी स्थायी जगह बनाने के लिए संघर्षरत भाजपा के मेल-मिलाप का नतीजा था. आज का राजग तो केवल एक बहुत बड़ी और शक्तिशाली पार्टी के केंद्र के इर्दगिर्द घूम रहे छुटभैये दलों का जमावड़ा भर है.

कहना न होगा कि चुनाव की दृष्टि से जनता पार्टी भी सफल थी, उस समय का राजग भी. इसलिए भी यह तुलना अहम हो जाती है. जनता पार्टी को गति देने में इंदिरा गांधी के खिलाफ बगावत करके आई सीएफडी (जगजीवन राम और बहुगुणा की कांग्रेस फॉर डेमोक्रेसी) का बहुत बड़ा हाथ था.

लेकिन आई.एन.डी.आई.ए. के पास मोदी से बगावत करके आए किसी गुट का न सहयोग है, और न ही ऐसा होने की कोई संभावना दिखाई दे रही है. जनता पार्टी इंदिरा कांग्रेस के विरोध में इमरजेंसी की ज्यादतियों से निकली जबर्दस्त एंटीइनकम्बेंसी की लहर पर सवार थी. लेकिन वोटरों का यह गुस्सा दक्षिण भारत के मामले में बेअसर था.

आई.एन.डी.आई.ए. बनाम भाजपा की मौजूदा लड़ाई में इसका ठीक उल्टा है. मोटे तौर पर दक्षिण भारत विपक्ष के साथ है, और पिछले लोकसभा चुनाव के नतीजों के अनुसार भाजपा के प्रभाव-क्षेत्र में बाकी भारत के ज्यादातर हिस्से आते हैं. यानी, आई.एन.डी.आई.ए. दक्षिण भारत में आश्वस्त है, और बाकी भारत में उसे भाजपा को चुनौती देनी है.

जनता पार्टी के पास कोई चेहरा नहीं था. कांग्रेस के पास था, लेकिन वह उसे न बचा सका. इस बार भी सत्तारूढ़ दल के पास चेहरा है, और विपक्षी मोर्चा चेहरे से वंचित है. लेकिन 1977 के उलट सरकारी पार्टी और उसके नेता की लोकप्रियता उस समय की कांग्रेस और उसके नेता की तरह ढलान पर नहीं दिखाई देती.

कुल मिला कर भाजपा और मोदी के खिलाफ पिछले दस साल में जमा कुछ नाराजगियां अवश्य हैं, पर 1977 जैसी जबर्दस्त सरकार विरोधी भावना नहीं दिखाई पड़ती. अगर कल के राजग से तुलना करें तो कुछ और दिखता है. उस राजग के साथ भाजपा की मदद में कांग्रेस से नाराज क्षेत्रीय शक्तियां थीं, जो आज के आई.एन.डी.आई.ए. और उसकी एंकर-पार्टी कांग्रेस के साथ हैं.

भाजपा का विरोध कर रही हैं. इस गठजोड़ से बाहर खड़ी दो बड़ी क्षेत्रीय शक्तियां (वाईएसआर कांग्रेस और बीजू जनता दल) भी अंतत: भाजपा के खिलाफ ही चुनाव लड़ेंगी. यानी, उस समय देश की संघात्मकता भाजपा के साथ थी, आज वही संघात्मकता उससे जूझ रही है.

एक लोकप्रिय चेहरा होना और कोई खास एंटीइनकम्बेंसी न होना आज की सत्तारूढ़ पार्टी की बड़ी शक्ति समझी जा रही है. सही भी है. नेता के रूप में व्यक्ति की उपस्थिति होने पर वोटरों को उसे समझने, स्वीकार करने या खारिज करने का फैसला लेने में आसानी होती है. अगर व्यक्ति सामने न हो तो वोटर को मोर्चा या गठजोड़ कुछ-कुछ अमूर्त जैसा लगता है.

आई.एन.डी.आई.ए. इस समस्या का समाधान तभी कर सकता है जब वह आने वाले चार-पांच महीनों में धुआंधार प्रचार मुहिम चलाए, वोटरों के बीच अपने अस्तित्व को प्रमाणित करके दिखाए, और भाजपा को वोट न देने वाले मतदाताओं को लगने लगे कि वे गैरभाजपा उम्मीदवार को सरकार बनाने के लिए समर्थन दे रहे हैं.

लेकिन इन प्रकट कमजोरियों के बावजूद आई.एन.डी.आई.ए. में सत्तारूढ़ दल के मन में कुछ गंभीर अंदेशे और बेचैनियां पैदा करने की क्षमता है. इसका कारण है भाजपा और मोदी के बहुमत की प्रकृति. भाजपा प्रवक्ताओं द्वारा इसे एक सपाटे के साथ ‘प्रचंड बहुमत’ या ‘पूर्ण बहुमत’ की संज्ञा दी जाती है.

लेकिन इस तथ्य से इंकार नहीं किया जा सकता कि यह बहुमत से केवल 31 सीटें अधिक और कुल जमा 37 प्रतिशत से कुछ ही ज्यादा वोटों का बहुमत है. दूसरे, भाजपा की 303 सीटें और वोट का प्रतिशत उसके प्रभाव-क्षेत्र में तकरीबन सौ प्रतिशत नतीजे निकालने पर आधारित है.

यानी, भाजपा ने 2019 में उ.प्र., म.प्र., गुजरात, कर्नाटक, राजस्थान, छत्तीसगढ़, हरियाणा, दिल्ली, उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश जैसे दस राज्यों की 225 सीटों में से 190 पर जीत हासिल की थी. उ.प्र. को छोड़ कर बाकी सभी जगह उसका स्ट्राइक रेट करीब सौ फीसदी था.

अगर विपक्षी एकता के कारण भाजपा ने इन प्रदेशों में तीन-तीन, चार-चार सीटें भी खोईं तो वह सबसे बड़ा दल होने के बावजूद बहुमत से नीचे आ जाएगी. उसे दोबारा सौ फीसदी प्रदर्शन की गारंटी करनी होगी जो एक बहुत मुश्किल काम है. पिछली बार भाजपा के पास बिहार और महाराष्ट्र में मजबूत क्षेत्रीय शक्तियां थीं, जो इस बार उसके खिलाफ खड़ी हैं.

इन अंदेशों के बावजूद भाजपा सरकार बना सकती है, लेकिन अगर वह 2019 न दोहरा पाई तो उसके बहुमत की प्रकृति तो बदलेगी ही, उसकी सरकार की प्रकृति भी बदल जाएगी. कहना न होगा कि भाजपा नई परिस्थितियों में 2019 को दोहराने से भी परे जा सकती है. उस सूरत में 2024 से 2029 के बीच विपक्ष की उपस्थिति केवल औपचारिक रह जाएगी.

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