ब्लॉग: लो आया मौसम ‘दलबदल’ का

By Amitabh Shrivastava | Published: February 10, 2024 10:27 AM2024-02-10T10:27:54+5:302024-02-10T10:28:34+5:30

इसे भ्रष्टाचार के आरोपों से बचने का भी रास्ता बताया जा रहा है। कुछ हद तक इधर-उधर जाने वाले नेताओं में आरोपित नेताओं की संख्या अधिक है।

Lok Sabha Elections 2024 Here comes the season of 'defection' | ब्लॉग: लो आया मौसम ‘दलबदल’ का

ब्लॉग: लो आया मौसम ‘दलबदल’ का

आगामी लोकसभा-विधानसभा चुनाव के पहले महाराष्ट्र की राजनीति में इतने दल और इतने गुट तैयार हो गए हैं कि कौन-सा नेता कहां है और कब किस तरफ जाएगा, कहा नहीं जा सकता है। राज्य में हर नए-पुराने संगठन को मजबूत करने के लिए ऐसे नेताओं की जरूरत है, जो जनता के पैमाने यानी चुनाव मैदान में भी खरे उतरें। इसी कारण हर दल की दूसरे दल में ताक-झांक आरंभ हो गई है और दूसरी ओर नेताओं को भी बेहतर संभावनाओं के विकल्प के तौर पर अनेक दल मिल गए हैं।

पहले वरिष्ठ कांग्रेस नेता स्वर्गीय मुरली देवड़ा के पुत्र पूर्व सांसद मिलिंद देवड़ा मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे नीत शिवसेना में शामिल हो गए, तो दूसरी ओर राज्य के एक और पुराने कांग्रेस नेता बाबा सिद्दीकी ने कांग्रेस छोड़ने की घोषणा कर दी है। माना जा रहा है कि वह अजित पवार नीत राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी में शामिल होंगे। इसी बीच, विधायक रवींद्र वायकर के शिवसेना (शिंदे गुट) में शामिल होने की खबर आ रही है।

इसके अलावा कांग्रेस नेता पूर्व मुख्यमंत्री सुशील कुमार शिंदे से लेकर अशोक चव्हाण तक के भारतीय जनता पार्टी में शामिल होने की चर्चा हवाओं में रह चुकी है। हालांकि दोनों नेताओं ने बार-बार उसे अफवाह ही बताया है। इन बड़े नामों के बीच अनेक क्षेत्रीय और स्थानीय स्तर पर प्रभाव रखने वाले नेता भी हैं, जो पाला बदल रहे हैं।

एक तरफ देखा जाए तो चुनाव के पहले दल-बदल एक सामान्य शक्ति प्रदर्शन की प्रक्रिया है, लेकिन राज्य में दो बड़ी पार्टियों के टूटने के बाद से इसे सहज ही नहीं देखा जा रहा है। इसे कमजोरी और मजबूती की नजर से भी देखा जा रहा है। इसे भ्रष्टाचार के आरोपों से बचने का भी रास्ता बताया जा रहा है। कुछ हद तक इधर-उधर जाने वाले नेताओं में आरोपित नेताओं की संख्या अधिक है। आगे यह भी साबित हुआ है कि उन पर चलने वाले मामले भी ठंडे बस्ते में गए हैं।

इसलिए नेताओं का सहज ही हृदय परिवर्तन होना नहीं माना जा सकता है। दूसरी वजह यह भी है कि कुछ नेता अपनी पार्टी के विभाजन के बाद मूल पार्टी में इस आशा से रह गए थे कि उन्हें महत्व अधिक मिलेगा। कालांतर में उन्हें वह नहीं मिला। इसी प्रकार कुछ नेता पार्टी में विभाजन के बाद एक जोश में दूसरे दल में चले गए थे, जो बाद में महंगा साबित हुआ। इसलिए उन्हें मूल पार्टी में जाना उचित लग रहा है।

इस सब के बीच चुनावी संभावना है, जिसको लेकर नेताओं का असली वजन तौला जा रहा है। कुछ वजनदार नेता इसी वजह से पार्टियों की ‘डिमांड’ में हैं। उनसे कुछ चुनावी सीटों का भाग्य आसानी से तय हो जाएगा।

आम तौर पर बेहतर संभावनाओं या मुश्किल परिस्थितियों में ही दलबदल देखा जाता है। यदि किसी ज्यादा ताकतवर दल में जाने से भविष्य सुरक्षित हो जाता है तो बदलाव उचित ठहराया जा जाता है, या फिर किसी दल में अत्यधिक उपेक्षित किए जाने पर किसी दल में सम्मानजनक प्रवेश का मिलना सही माना जाता है।

इस बात के राज्य में नारायण राणे, छगन भुजबल, धनंजय मुंडे, राधाकिशन विखे, नाना पाटोले, प्रवीण दरेकर जैसे अनेक उदाहरण हैं। इनके अलावा जयसिंहराव गायकवाड़, हर्षवर्धन पाटिल, चित्रा वाघ जैसे भी उदाहरण हैं, जो दलबदल के बाद अपने पुनर्वास के इंतजार में बैठे हैं। किंतु इस बार स्थितियां पुराने तरह के दलबदल से अलग हैं। पहले तो राज्य के दोनों गठबंधनों को अपनी सीटों का बंटवारा तय करना है और उसके बाद अपने उम्मीदवार तय करना है।

इस चुनाव में कार्यकर्ता तक की निष्ठा की परीक्षा का परिणाम मतदाता देंगे। उनका पाला बदलना सही था या फिर गलत था, वह चुनाव तय करेंगे। इसलिए भी उम्मीदवारों को लेकर चिंता का वातावरण सभी तरफ है। केवल नाम के उम्मीदवार खड़े करने से अलग पार्टी बनाने या मूल पार्टी बचाने का मकसद साफ नहीं होगा। उसके लिए चुनावी ताकत का भी प्रदर्शन करना होगा। पार्टियों के विभाजन के बाद मतदाताओं के मन का हाल किसी को पता नहीं है।

मूल दलों में बड़े और पुराने नेताओं की उपस्थिति का मतदाताओं पर पड़ने वाले मनोवैज्ञानिक असर का भी अनुमान नहीं लगाया जा पा रहा है। कार्यकर्ताओं की निष्ठा पर प्रभाव पड़ने का कोई अंदाज नहीं लगा पा रहा है। चुनाव में अनेक इलाकों में त्रिकोणीय से लेकर चतुष्कोणीय मुकाबलों की संभावना है।

संभावना यह भी है कि अनेक सीटों पर बहुत कम अंतर से भी फैसला हो सकता है। यदि अंदाज किसी भी तरह से गलत साबित हुआ तो राज्य की राजनीति के सारे समीकरण बदल जाएंगे। इसी चिंता में नेताओं की आवाजाही पर अधिक जोर लगाया जा रहा है। यदि मजबूती से काम नहीं चल सकता तो कम से कम सामने वाले दल को कमजोर करने की कोशिश तो जारी रखी जाए।

कुल जमा चुनाव के पहले ‘दलबदल’ का मौसम परवान चढ़ रहा है। यह कहीं खुशी और कहीं गम की स्थितियां पैदा कर रहा है। हालांकि आना-जाना किसी के लिए कोई आश्चर्य का विषय नहीं है, लेकिन दलों में विभाजन और नए दलों को मूल दल साबित करने की कोशिश चिंता का बड़ा कारण है। वर्तमान परिस्थितियों में संगठन को मजबूत करने के लिए विस्तारपूर्वक कोई योजना बनाने का समय नहीं है। इसलिए कहीं से किसी को लेना और किसी को कहीं जोड़ना सभी दलों की समय की आवश्यकता है।

यद्यपि इससे कहीं न कहीं विश्वसनीयता और निष्ठा पर सवाल उठ रहे हैं। कुछ दलों को नेताओं-कार्यकर्ताओं की निष्ठा के लिए जाना जाता था। आज उन पर भी सवालिया निशान है। अब सारी कसरत के परिणाम तो चुनाव के नतीजे ही तय करेंगे। उन्हीं से सही-गलत का पता लगेगा। फिलहाल मतदाता ने अपने पत्ते नहीं खोले हैं। लोकसभा में कुछ खुलेंगे और विधानसभा तक तो पूरे खुल कर दिख जाएंगे। 

Web Title: Lok Sabha Elections 2024 Here comes the season of 'defection'

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