युद्ध की तरह मीडिया के मैदान में भी खतरों का सामना जरूरी
By आलोक मेहता | Updated: July 21, 2025 05:21 IST2025-07-21T05:21:03+5:302025-07-21T05:21:03+5:30
राज्यों में मीडिया से जुड़े कुछ पत्रकारों, कार्टूनिस्टों, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के आधार पर सक्रिय स्वतंत्र लेखकों या आंदोलनकारियों पर स्थानीय प्रशासन और पुलिस द्वारा कानूनी कार्रवाई को लेकर विवाद उठ रहे हैं.

सांकेतिक फोटो
पुरानी फिल्म ‘मुगल-ए-आजम’ का प्रसिद्ध गीत है- ‘प्यार किया तो डरना क्या.’ इसलिए समाज में यही कहा जाता है कि मुहब्बत हो या जंग का मैदान, भय की कोई गुंजाइश नहीं है. यही बात मेडिकल प्रोफेशन के डॉक्टर हों या मीडिया के पत्रकार, किसी भी सही ऑपरेशन या सही समाचारों और विचारों के लिए डरकर काम नहीं कर सकते. सेना का सिपाही कारगिल की ऊंचाई हो या राजस्थान का रेगिस्तान, जब अपना कर्तव्य निभाता है तो खुद की सुरक्षा के लिए किसी इंतजाम की मांग नहीं करता है. मेरी राय में मीडिया से जुड़े व्यक्तियों के लिए भी भयमुक्त रहने और खतरा मोल लेने की स्थिति आदर्श होती है.
हाल ही में कुछ राज्यों में मीडिया से जुड़े कुछ पत्रकारों, कार्टूनिस्टों, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के आधार पर सक्रिय स्वतंत्र लेखकों या आंदोलनकारियों पर स्थानीय प्रशासन और पुलिस द्वारा कानूनी कार्रवाई को लेकर विवाद उठ रहे हैं. इसके लिए प्रादेशिक अथवा केंद्र की सरकार के प्रमुख नेताओं पर आरोप लगाए जा रहे हैं.
विदेश में बैठे कुछ संगठन इस मुद्दे पर अतिरंजित रिपोर्ट जारी करते रहते हैं. ऐसा वातावरण बनाया जा रहा है जैसे भारत में इस तरह के दबाव पहली बार हो रहे हैं. जबकि सच्चाई यह है कि पिछले दशकों में भी प्रिंट या इलेक्ट्रॉनिक मीडिया पर कानूनी कार्रवाई के अलावा राजनीतिक संगठनों और नेताओं द्वारा आतंकित करने के प्रयास किए जाते रहे हैं.
भारतीय प्रेस परिषद, एडिटर्स गिल्ड, पत्रकारों की यूनियन और अदालतों के रिकार्ड में ऐसे अनेक मामले देखे-पढ़े जा सकते हैं. इसमें कोई शक नहीं कि पहले या अब पत्रकारों पर दबाव बनाना या अनुचित ढंग से उन पर कानूनी प्रकरण दर्ज करना या मीडिया संस्थानों पर हमला न केवल निंदनीय है, बल्कि ऐसे तत्वों पर अंकुश भी आवश्यक है.
दूसरी तरफ अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के दुरुपयोग को सुप्रीम कोर्ट तक अनुचित मानती है. हाल में सुप्रीम कोर्ट ने कुछ मामलों में पुलिस की कार्रवाई को गलत भी ठहराया. इसलिए यह धारणा गलत है कि देश में असहमतियों, आलोचनाओं और प्रामाणिक तथ्यों के आधार पर काम नहीं किया जा सकता है.
बिहार में रहते हुए तीन वर्षों के दौरान अपनी पत्रकारिता में मैं कांग्रेस के तीन मुख्यमंत्रियों और फिर जनता दल (बाद में राष्ट्रीय जनता दल) के मुख्यमंत्री के कार्यकाल में मीडिया पर दबाव और हमलों की घटनाओं का साक्षी ही नहीं भुक्तभोगी भी रहा हूं. इस तरह के अनेक मामले बिहार के अलावा उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और हरियाणा जैसे विभिन्न राज्यों में आते रहे हैं.
उत्तर प्रदेश का बहुचर्चित हल्लाबोल आंदोलन भी मीडिया के विरुद्ध ही था. पत्रकारिता का यही मानदंड है कि राजनैतिक पूर्वाग्रह और निजी स्वार्थ से हटकर प्रमाणों और तथ्यों पर काम किया जाए. इसके बाद कानूनी संरक्षण तो मिल ही जाता है. लेकिन यह सच है कि मीडिया को हर युग में चुनौतियों और खतरों का सामना करना ही पड़ता है.