वेदप्रताप वैदिक का ब्लॉग: भारतीय भाषाओं में बनने चाहिए कानून
By वेद प्रताप वैदिक | Published: December 30, 2021 04:12 PM2021-12-30T16:12:48+5:302021-12-30T16:15:57+5:30
हमारे जज और वकील अपने तर्कों को सिद्ध करने के लिए ब्रिटिश और अमेरिकी नजीरों को पेश करते हैं, जबकि दुनिया की सबसे प्राचीन और विशद न्याय-व्यवस्था भारत की ही थी। भारत के न्यायशास्त्रियों- मनु, कौटिल्य, कात्यायन, बृहस्पति, नारद, पाराशर, याज्ञवल्क्य आदि को हमारे कानून की कक्षाओं में क्यों नहीं पढ़ाया जाता?
भारत को आजाद हुए 75 साल होने को हैं लेकिन जरा हम सोचें कि हमारे जीवन के कौन-कौन से ऐसे क्षेत्र हैं, जिनमें हम पूरी तरह से आजाद हो गए हैं? हमारे न्याय, शासन, प्रशासन, शिक्षा, चिकित्सा, भाषा आदि सभी क्षेत्नों में हमने कुछ प्रगति जरूर की है लेकिन इन सभी क्षेत्रों में अंग्रेजी की गुलामी बरकरार है। विदेशों से कोई भी उत्तम और आधुनिक साधन व ज्ञान को स्वीकार करने में हमें कोई संकोच नहीं करना चाहिए लेकिन उसकी चकाचौंध में फंसकर अपने पूर्वजों की महान उपलब्धियों को ताक पर रख देना कहां तक ठीक है?
न्याय के क्षेत्र में अंग्रेजी कानून-पद्धति को आज तक किसी भी सरकार ने चुनौती नहीं दी है। भारत में ऐसी सरकारें भी बनी हैं, जिनके नेता भारतीय गौरव और वैभव को लौटा लाने के सपने दिखाते रहे लेकिन सत्तारूढ़ होते ही वे उन नौकरशाहों के इशारों पर चलने लगे, जो अंग्रेजी टकसाल में ढले हैं। यह थोड़ी प्रसन्नता की बात है कि आजकल हमारे सर्वोच्च न्यायालय के कुछ न्यायाधीश भारतीय न्याय-व्यवस्था को अंग्रेजों की टेढ़ी-मेढ़ी न्यायप्रणाली से मुक्त करने की आवाज उठाने लगे हैं।
भारत के प्रधान न्यायाधीश एन.वी. रमना तो इस बारे में अपने दो-टूक विचार पेश कर ही चुके हैं, पिछले हफ्ते इसी अदालत के जज एस. अब्दुल नजीर ने भी जोरदार तर्क और तथ्य पेश करते हुए कहा है कि भारत की न्याय-व्यवस्था से उपनिवेशवादी मानसिकता को यथाशीघ्र विदा किया जाना चाहिए। उसका भारतीयकरण नितांत आवश्यक है।
यह ठीक है कि वर्तमान सरकार ने अंग्रेजों के बनाए हुए कई छोटे-मोटे कानूनों को रद्द करने का अभियान चलाया है लेकिन भारत की मूल कानूनी व्यवस्था में आज भी करोड़ों मुकदमे बरसों तक अदालतों में लटके रहते हैं। वकीलों की फीस बेहिसाब होती है। अंग्रेजी की बहस और फैसले मुवक्किलों के सिर के ऊपर से निकल जाते हैं।
हमारे जज और वकील अपने तर्कों को सिद्ध करने के लिए ब्रिटिश और अमेरिकी नजीरों को पेश करते हैं, जबकि दुनिया की सबसे प्राचीन और विशद न्याय-व्यवस्था भारत की ही थी। भारत के न्यायशास्त्रियों- मनु, कौटिल्य, कात्यायन, बृहस्पति, नारद, पाराशर, याज्ञवल्क्य आदि को हमारे कानून की कक्षाओं में क्यों नहीं पढ़ाया जाता?
यह जरूरी नहीं है कि उनके हर कथन को मान ही लिया जाए। देश और काल के अनुसार उनका ताल-मेल भी जरूरी है लेकिन इसमें क्या शक हो सकता है कि उनके द्वारा प्रतिपादित न्याय-पद्धति भारतीय मानस, संस्कृति और परंपरा के ज्यादा अनुकूल होगी। हमारी न्याय-व्यवस्था के भारतीयकरण के लिए यह जरूरी है कि कानून भारतीय भाषाओं में बने और अदालत की बहस व फैसले भी स्वभाषा में हों।