ब्लॉग: लालबहादुर शास्त्री अब नेताओं के रोल मॉडल क्यों नहीं?

By कृष्ण प्रताप सिंह | Published: January 11, 2022 03:18 PM2022-01-11T15:18:36+5:302022-01-11T15:18:55+5:30

लालबहादुर शास्त्री आज की राजनीति में वे शायद ही किसी नेता के रोल मॉडल हों. आज के नेता लालबहादुर शास्त्री की राह चलने का जोखिम उठाना कतई गवारा नहीं करते.

Lal Bahadur Shastri life story, why he is not role model for todays political leaders | ब्लॉग: लालबहादुर शास्त्री अब नेताओं के रोल मॉडल क्यों नहीं?

लालबहादुर शास्त्री अब नेताओं के रोल मॉडल क्यों नहीं?

वर्ष 1966 में 11 जनवरी यानी आज की ही रात तत्कालीन सोवियत संघ के ताशकंद में पाकिस्तान से युद्धविराम समझौते पर हस्ताक्षर के कुछ ही घंटों बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री का बेहद रहस्यमय परिस्थितियों में निधन हो गया तो देश में भीषण शोक की तहर फैल गई और उसका विजय का उल्लास फीका पड़ गया था. 

वह दिन है और आज का दिन, उनके असमय बिछोह से संतप्त देशवासी मानने को तैयार ही नहीं होते कि उस रात मौत अपने स्वाभाविक रूप में उनके पास आई. उन्हें लगता है कि जरूर उसके पीछे कोई साजिश थी और वे उसके खुलासे की मांग करते रहते हैं.

निस्संदेह, इस संबंधी देशवासियों की भावनाओं का सम्मान होना चाहिए. लेकिन आज की तारीख में कहीं ज्यादा बड़ी त्रासदी यह है कि देश की राजनीति में गांधीवादी मूल्यों से समृद्ध नैतिकता, ईमानदारी और सादगी की वह परंपरा पूरी तरह तिरोहित होकर रह गई है, शास्त्रीजी जिसके मूर्तिमंत प्रतीक थे. 

आज की राजनीति में वे शायद ही किसी नेता के रोल मॉडल हों.
ये नेता तो बहुत होता है तो उनके सादा जीवन और उच्च विचारों के वाकये सुनाकर छुट्टी कर देते हैं. उनकी राह चलने का जोखिम उठाना कतई गवारा नहीं करते. इन वाकयों में भी ज्यादातर शास्त्रीजी के प्रधानमंत्री बनने के बाद के होते हैं, जबकि वे सिर्फ 18 महीने इस पद पर रहे. 

इससे पहले जब देश आजादी की लड़ाई लड़ रहा था, उन्होंने खुद को उसमें पूरी तरह झोंके रखा था. आजादी के बाद वे उत्तर प्रदेश में संसदीय सचिव और पुलिस व परिवहन मंत्री, फिर केंद्र में रेल व गृह मंत्री भी रहे थे. प्रधानमंत्री बनने के बाद कुछ दिनों तक उन्होंने महत्वपूर्ण विदेश मंत्राल भी अपने पास रखा था और जीवन के इनमें से किसी भी मोड़ पर उन्होंने अपने नैतिक मूल्यों को कतई मलिन नहीं होने दिया था-भयानक गरीबी के बावजूद.

चालीस के दशक में वे स्वतंत्रता संघर्ष के सिलसिले में जेल में बंद थे तो ‘सर्वेट्स ऑफ इंडिया सोसायटी’ नामक एक संगठन जेलों में बंद स्वतंत्रता सेनानियों के परिवारों की आर्थिक सहायता किया करता था. खासकर उन परिवारों की, जिनके पास गुजर-बसर का कोई और जरिया नहीं होता था. इनमें शास्त्रीजी का परिवार भी था. 

एक दिन जेल में परिवार की चिंता से उद्विग्न शास्त्री ने जीवनसंगिनी ललिता शास्त्री को पत्र लिखकर पूछा कि उन्हें यथासमय उक्त सोसायटी की मदद मिल रही है या नहीं? ललिताजी का जवाब आया, ‘पचास रु पए महीने मिल रहे हैं, जबकि घर का काम चालीस रुपए में चल जाता है. बाकी दस रुपए किसी आकस्मिक वक्त की जरूरत के लिए रख लेती हूं.’

शास्त्रीजी ने फौरन उक्त सोसायटी को लिखा, ‘मेरे परिवार का काम चालीस रुपए में चल जाता है. इसलिए अगले महीने से आप उसे चालीस रुपए ही भेजा करें. दस रुपयों से किसी और सेनानी के परिवार की मदद करें.’

मंत्री या प्रधानमंत्री के तौर पर सार्वजनिक धन की किसी भी तरह की बर्बादी उन्हें कतई मंजूर नहीं थी. एक बार उनके बेटे सुनील शास्त्री ने उनकी सरकारी कार से चौदह किलोमीटर की यात्री कर ली तो उन्होंने उसकी एवज में उन दिनों की सात पैसे प्रति किलोमीटर की दर से सरकारी कोष में उसका खर्च जमा कराया. 

उन पर निजी कार खरीदने के लिए बहुत दबाव डाला गया तो पता करने पर उनके बैंक खाते में सिर्फ सात हजार रुपए निकले, जबकि फिएट कार 12000 रुपए में आती थी. तब उन्होंने पंजाब नेशनल बैंक से 5000 रुपए कर्ज लिए. यह कर्ज चुकाने से पहले ही उनका निधन हो गया तो ललिताजी चार साल बाद तक उसे चुकाती रहीं.

1963 में उन्हें कामराज योजना के तहत गृह मंत्री पद से इस्तीफा दे देना पड़ा तो वरिष्ठ पत्रका कुलदीप नैयर के शब्दों में : एक शाम मैं शास्त्रीजी के घर पर गया. ड्राइंगरूम को छोड़कर हर जगह अंधेरा छाया हुआ था. शास्त्री वहां अकेले बैठे अखबार पढ़ रहे थे. मैंने उनसे पूछा कि बाहर बत्ती क्यों नहीं जल रही है? शास्त्री बोले- मैं हर जगह बत्ती जलाना अफोर्ड नहीं कर सकता.

ताशकंद में उन्हें खादी का साधारण-सा ऊनी कोट पहने देख सोवियत रूस के प्रधानमंत्री एलेक्सी कोसिगिन ने एक ओवरकोट भेंट किया था ताकि वे उसे पहनकर वहां की भीषण सर्दी का मुकाबला कर सकें. लेकिन अगले दिन उन्होंने देखा कि शास्त्रीजी अपना वही पुराना खादी का कोट पहने हुए हैं, तो ङिाझकते हुए पूछा, ‘क्या आपको वह ओवरकोट पसंद नहीं आया?’ 

शास्त्रीजी का जवाब था, ‘वह कोट वाकई बहुत गर्म है लेकिन मैंने उसे अपने दल के एक सदस्य को दे दिया है क्योंकि वह अपने साथ कोट नहीं ला पाया है.’ इसके बाद कोसिगिन ने कहा था कि हम लोग तो कम्युनिस्ट हैं लेकिन प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री ‘सुपर कम्युनिस्ट’ हैं. उन दिनों यह बहुत बड़ा ‘काम्प्लीमेंट’ था. शांतिदूत भी उन्हें उन्हीं दिनों कहा गया.

Web Title: Lal Bahadur Shastri life story, why he is not role model for todays political leaders

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