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केरल का वैचारिक भविष्य तय करेगा अगला विधानसभा चुनाव, अब सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का गढ़ बन रहा!

By लोकमत न्यूज़ डेस्क | Updated: October 24, 2025 05:27 IST

आधी सदी तक दो गठबंधनों- एलडीएफ (लेफ्ट डेमोक्रेटिक फ्रंट) और कांग्रेस के नेतृत्व वाले यूडीएफ (यूनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट) द्वारा बारी-बारी से शासित होता रहा. पर ये दोनों वैकल्पिक गठबंधन अब कमजोर पड़ते जा रहे हैं.

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ठळक मुद्देसंघ परिवार के लिए वहां पैर जमाने की कल्पना तक असंभव थी.वैचारिकताओं, पहचानों और सत्ता की रणभूमि में बदल दिया है.राजनीति में राष्ट्रवाद व सांस्कृतिक गौरव की भावना भर रहे हैं.

प्रभु चावला

जिस केरल की पहचान उसके शानदार सामाजिक सुधार और प्रगतिशील राजनीति के लिए थी, आज वह बड़े राजनीतिक बदलाव का सामना कर रहा है. जो राज्य कभी देश में वामपंथ और सेक्युलर तर्क के वैचारिक केंद्र बिंदु के रूप में जाना जाता था, वह अब सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का गढ़ बनता जा रहा है. सत्ता राजनीति की दृष्टि से यह राज्य लगभग आधी सदी तक दो गठबंधनों- एलडीएफ (लेफ्ट डेमोक्रेटिक फ्रंट) और कांग्रेस के नेतृत्व वाले यूडीएफ (यूनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट) द्वारा बारी-बारी से शासित होता रहा. पर ये दोनों वैकल्पिक गठबंधन अब कमजोर पड़ते जा रहे हैं.

इनकी जगह भाजपा के रूप में एक तीसरा ध्रुव उभर रहा है, और जिस संघ परिवार के लिए वहां पैर जमाने की कल्पना तक असंभव थी, उसकी उपस्थिति राज्य के सामाजिक-राजनीतिक परिदृश्य में दिखाई देने लगी है. अगले वर्ष केरल में होने जा रहे विधानसभा चुनाव ने इस राज्य को वैचारिकताओं, पहचानों और सत्ता की रणभूमि में बदल दिया है.

मुख्यमंत्री पिनराई विजयन के नेतृत्व वाले एलडीएफ और राज्य कांग्रेस के प्रमुख सनी जोसेफ के नेतृत्व में यूडीएफ राज्य के जनाधार को पकड़े रखने की कोशिश कर रहे हैं, जो तेजी से उनके पैरों के नीचे से खिसक रहा है. जबकि भाजपा और संघ मिल कर राज्य की राजनीति में राष्ट्रवाद व सांस्कृतिक गौरव की भावना भर रहे हैं.

स्थिति यह है कि राज्य में हर विवाद, हर नैतिक बहस तथा हर सामुदायिक गतिविधि को आगामी चुनाव के नजरिये से देखा जा रहा है. जाहिर है कि केरल में होने वाला चुनाव सिर्फ मतदान तक सीमित नहीं है, इसे भविष्य की वैचारिक पहचान का जनमत संग्रह भी समझा जाना चाहिए. वर्ष 2024 के लोकसभा चुनाव के परिणाम का असर भी विधानसभा चुनाव पर होना है.

पिछले लोकसभा चुनाव में भाजपा ने पहली बार केरल में एक सीट जीती, जब सुरेश गोपी ने त्रिशूर सीट जीती. राज्य में भाजपा का वोट प्रतिशत भी बढ़ कर 16 प्रतिशत के करीब हो गया, जबकि तिरुवनंतपुरम, पलक्कड और त्रिशूर में पार्टी को करीब 25 प्रतिशत वोट मिले. अलबत्ता केरल की जनसांख्यिकी भाजपा की महत्वाकांक्षा में बाधक है.

वर्ष 2011 की जनगणना के मुताबिक, राज्य की आबादी में हिंदू 54.73 फीसदी, मुस्लिम 26.56 और ईसाई 18.48 प्रतिशत हैं. यानी मुस्लिम और ईसाई मिल कर आबादी का 45 प्रतिशत हैं. ये दोनों समुदाय संगठित हैं. राज्य में भाजपा का वोट शेयर भले बढ़ रहा है, पर निर्णायक बढ़त से बहुत पीछे है.

आरएसएस राज्य के एकतरफा विमर्श को बदल सकता है, पर दीर्घावधि में भी भाजपा को राज्य की सत्ता में लाने में वह शायद ही सफल हो पाए. बावजूद इसके सामाजिक बदलाव दिख रहे हैं. दरअसल वाम मोर्चे के पास अब जनता को प्रभावित करने के लिए कुछ नहीं है. विजयन और उनके मंत्रियों ने अपनी नीतियों को आकार देने के बजाय विवादों पर खुद को सही ठहराने में ही ज्यादा ऊर्जा खर्च की.

बढ़ती मुद्रास्फीति, युवा बेरोजगारी और खाड़ी देशों से प्रवासियों द्वारा भेजे जाने वाले धन में कमी से वाम मोर्चे की नैतिक आभा कमजोर हो रही है. ऐसे में, केरल का राजनीतिक वातावरण जटिल बना हुआ है. शानदार साक्षरता दर, सिविल सोसाइटी की सक्रियता और राजनीतिक रूप से जागरूक मतदाताओं के कारण इस राज्य में ध्रुवीकरण का विरोध होता है.

राज्य के अल्पसंख्यक मुस्लिम और ईसाई समुदायों को देखते हुए वहां बहुसंख्यक सोच के आधार पर कोई विचारधारा मजबूत हो ही नहीं सकती. फिर भी संघ परिवार के विस्तार और भाजपा के रणनीतिक कार्यक्रमों के कारण वामपंथ और कांग्रेस को चुनौती देने वाला एक विश्वसनीय विपक्ष तो बन ही गया है.

टॅग्स :Kerala Assemblyपिनाराई विजयनआरएसएसमोहन भागवतmohan bhagwat
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