ब्लॉग: सत्ता के खेल में विचारधारा का कोई काम नहीं...कर्नाटक में होने वाला चुनाव फिर यही साबित कर रहा है

By राजकुमार सिंह | Updated: April 19, 2023 15:22 IST2023-04-19T15:18:40+5:302023-04-19T15:22:28+5:30

राजनेता अक्सर विचारधारा की बात करते और उसकी कसमें खाते नजर आते हैं. हालांकि, चुनाव आते-आते ही तस्वीर इतनी बदली हुई नजर आने लगती है कि कोई भी हैरत मेें पड़ जाए. कर्नाटक के राजनीति की कहानी भी कम हैरान करने वाली नहीं है.

Karnataka Assembly Election there is no meaning of ideology in game of politics | ब्लॉग: सत्ता के खेल में विचारधारा का कोई काम नहीं...कर्नाटक में होने वाला चुनाव फिर यही साबित कर रहा है

सत्ता के खेल में विचारधारा का कोई काम नहीं! (प्रतिकात्मक तस्वीर)

जिस विचारधारा की राजनेता कसमें खाते नहीं थकते, सत्ता के खेल में उसे धता बताते उन्हें देर नहीं लगती. कर्नाटक विधानसभा चुनाव का परिदृश्य फिर एक बार इसी सच को रेखांकित करता है कि सत्ता के खेल में विचारधारा कहीं गुम होकर रह गई है. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भाजपा से दशकों पुराने रिश्तों को दरकिनार कर पूर्व मुख्यमंत्री जगदीश शेट्टारकांग्रेसी हो गए. 

पूर्व उपमुख्यमंत्री लक्ष्मण सावदी पहले ही यह राह चुन चुके हैं. चुनाव से पहले टिकट से वंचित नेताओं द्वारा भी बगावत या विरोधी दल का दामन थाम लेना तो राष्ट्रव्यापी राजनीतिक रिवाज बन गया है, पर कर्नाटक विधानसभा चुनाव में सत्ता के तीनों दावेदार दलों के सेनापतियों की विचारधारा मूलत: एक ही होना तो और भी गंभीर वैचारिक सवाल खड़े करता है. विघटन की प्रक्रिया से गुजरते हुए जनता दल राज्य-दर-राज्य व्यक्तिकेंद्रित पारिवारिक दल बनता गया. 

कर्नाटक की राजनीति में किंगमेकर माना जा रहा जनता दल सेक्युलर भी उसी का प्रतीक है. वर्तमान जनता दल सेक्युलर का अर्थ पूर्व प्रधानमंत्री एच. डी. देवगौड़ा के परिवार की राजनीति तक सिमट कर रह गया है, जिसका प्रतिनिधि चेहरा फिलहाल पूर्व मुख्यमंत्री एच. डी. कुमारस्वामी हैं, पर मूल जनता दल की बात करें, जो बोफोर्स बवंडर के जरिये 1989 में केंद्र में सत्ता परिवर्तन का वाहक बना था, तो पूर्व कांग्रेसी मुख्यमंत्री सिद्धारमैया और मौजूदा भाजपाई मुख्यमंत्री बसवराज बोम्मई ने भी अपना राजनीतिक सफर उसी से शुरू किया था. 

बसवराज बोम्मई के पिता एस. आर. बोम्मई कर्नाटक के मुख्यमंत्री ही नहीं, जनता दल के राष्ट्रीय नेता भी रहे. सिद्धारमैया की गिनती भी तब कर्नाटक जनता दल के बड़े नेताओं में होती थी. जाहिर है एक ही राजनीतिक विचारधारा से निकले तीन नेता आज अलग-अलग ही नहीं, प्रतिद्वंद्वी दलों के प्रतिनिधि के रूप में अगली सरकार के गठन के लिए जनादेश मांग रहे हैं.

देश-प्रदेश की भलाई के लिए अमुक विचारधारा की जीत और दूसरी विचारधाराओं की हार जरूरी बताई जा रही है, पर क्या यह वैचारिक राजनीतिक जंग है भी? कटु सत्य यही है कि सिद्धारमैया और बसवराज बोम्मई, दोनों का ही जनता दल से अलगाव राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं के टकराव के चलते हुआ. सबसे बड़े दल भाजपा को सत्ता से बाहर करने के लिए 1996 में किए गए कांग्रेस समर्थित संयुक्त मोर्चा सरकारों के प्रयोग में चंद महीने प्रधानमंत्री रहने के बाद एच. डी. देवगौड़ा का कद इतना बड़ा हो गया कि कर्नाटक में जनता दल उनके परिवार के दायरे में सिमटता चला गया. 

किसी भी अन्य नेता के लिए देवगौड़ा के पुत्र एच. डी. कुमारस्वामी के नेतृत्व में राजनीति करने से आगे कोई संभावना बची ही नहीं. ध्यान रहे कि जनता दल सरकारों में दो बार उपमुख्यमंत्री रह चुके सिद्धारमैया को 2013 में मुख्यमंत्री बनने के लिए 2006 में कांग्रेस का हाथ थामना पड़ा. 

यह भी विचारधारा के राजनीतिक संकट का ही प्रमाण रहा कि दशकों तक देश-प्रदेश पर एकछत्र राज करने वाली कांग्रेस को कर्नाटक में सत्ता में वापसी के लिए एक पूर्व जनता दली की ताजपोशी करनी पड़ी. निश्चय ही जनता दल अरसे तक कर्नाटक में एक बड़ी राजनीतिक ताकत रहा है. दरअसल उसने ही कांग्रेस से सत्ता छीनी थी.

भाजपा के उभार के बाद जनता दल तीसरे स्थान पर खिसक गया, पर लिंगायत, वोक्कालिंगा और कुरुबा सरीखे प्रभावशाली समुदायों और उनके मठों के प्रभाव वाली कर्नाटक की जमीनी राजनीतिक वास्तविकता आज भी यही है कि वह तीन ध्रुवों में बंटी है. जनता दल सेक्युलर तीसरा छोटा ध्रुव है, पर सत्ता संतुलन की चाबी उसी के पास मानी जाती है. यही कारण है कि पिछले विधानसभा चुनाव में भाजपा के बहुमत के आंकड़े से पिछड़ जाने पर कांग्रेस ने अपने से आधे विधायकों वाले जनता दल सेक्युलर के नेता कुमारस्वामी को मुख्यमंत्री बना दिया. 

यह अलग बात है कि बहुमत जुटाने में नाकामी के चलते मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देने को मजबूर हुए येदियुरप्पा ने साल बीतते-बीतते गठबंधन में सेंध लगाते हुए सत्ता में अपनी वापसी का मार्ग प्रशस्त कर लिया. वर्ष 2008 में कर्नाटक को दक्षिण भारत में भाजपा का प्रथम (और अभी तक एकमात्र भी) प्रवेश द्वार बनानेवाले लिंगायत नेता येदियुरप्पा को अपने दूसरे मुख्यमंत्रित्वकाल के दो वर्ष पूरे होने पर जुलाई, 2021 में जब बढ़ती उम्र के चलते सत्ता छोड़नी पड़ी तो भाजपा को भी उनका विकल्प एक पूर्व जनता दली बसवराज बोम्मई में ही नजर आया. बेशक मैकेनिकल इंजीनियरिंग की पढ़ाई करनेवाले बोम्मई पूर्व में मंत्री भी रह चुके हैं, पर उनकी सबसे बड़ी राजनीतिक योग्यता-उपयोगिता राज्य के सबसे प्रभावशाली लिंगायत समुदाय के बड़े नेता रहे एस. आर. बोम्मई का पुत्र होना ही है.

अब चुनाव प्रचार में ये नेता अपने-अपने दल की कथित विचारधारा का ही गुणगान करते हुए वोट मांग रहे हैं, पर क्या राजनीतिक विचारधारा किसी आईपीएल फ्रेंचाइजी टीम के ड्रेस की तरह है कि जो मालिक और सत्र के साथ आसानी से बदली जा सकती हो? राजनीतिक दलों और नेताओं से यह सवाल तो पूछा ही जाना चाहिए कि यह आपकी कैसी विचारधारा है, जो सत्ता की धारा में इतनी सहजता से गुम होती नजर आ रही है?

Web Title: Karnataka Assembly Election there is no meaning of ideology in game of politics

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