इंदौर के एक सरकारी मेडिकल कॉलेज ने एमबीबीएस के फर्स्ट ईयर के छात्र के साथ रैगिंग का मामला सामने आने के बाद जांच शुरू कर दी है. दरअसल, खुद को एमबीबीएस का फर्स्ट ईयर का छात्र बताने वाले लड़के ने एक सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर आरोप लगाया कि शहर के शासकीय महात्मा गांधी मेमोरियल मेडिकल कॉलेज(एमजीएम) छात्रावास में उसके साथ रैगिंग की गई. उसने लिखा है कि पिछले तीन महीनों से उसे बुरी तरह प्रताड़ित किया जा रहा है. जबकि मेडिकल कॉलेज के लड़कों के हॉस्टल के चीफ वार्डन का कहना है कि हाल के दिनों में उन्हें हॉस्टल के किसी भी छात्र से रैगिंग की कोई शिकायत नहीं मिली है.
करीब तीन हफ्ते पहले रायपुर के अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) से भी रैगिंग की खबरें आई थीं. बताते चलें कि राष्ट्रीय आयुर्विज्ञान आयोग ने कुछ ही समय पहले चेतावनी दी है कि अगर मेडिकल कॉलेजों और संस्थानों में रैगिंग की रोकथाम और नियंत्रण विनियम 2021 के प्रावधानों का पालन नहीं किया गया तो सख्त कार्रवाई की जाएगी. स्नातक और स्नातकोत्तर छात्रों की रैगिंग पर अंकुश लगाने और रैगिंग का शिकार होने वाले छात्रों के लिए इसकी रिपोर्ट करना आसान बनाने के लिए राष्ट्रीय चिकित्सा आयोग ने एंटी-रैगिंग सेल और एंटी-रैगिंग हेल्पलाइन भी शुरू की है.
सजा के तौर पर दोषी छात्रों को तीन साल की जेल और जुर्माने का प्रावधान है. नियमों का पालन न करने वाले संस्थानों की मान्यता रद्द हो सकती है. इतना सबकुछ होने के बाद भी परिचय के नाम पर रैगिंग के दौरान प्रताड़ित करने का सिलसिला थम नहीं रहा है. तो, क्या इस कुप्रथा को रोकने के लिए बनाए गए नियम-कानून पर्याप्त नहीं हैं या उनका सख्ती से पालन नहीं हो रहा है?
आए-दिन होने वाली घटनाओं से तो ऐसा लगता है कि छात्रों को न तो कानून का डर है, न अपने भविष्य की चिंता. कुछ सीनियर छात्र या तो कुंठित मानसिकता से पीड़ित होते हैं या उनकी मंशा जूनियर छात्रों पर अपना दबदबा कायम करने की होती है. अपेक्षा की जाती है कि शिक्षण संस्थानों में छात्रों को सुरक्षित वातावरण मिलेगा. लेकिन इसके उलट, रैगिंग के बहाने छात्रों को अपमानित और प्रताड़ित करने का क्रम जारी है. रैगिंग के शिकार कई छात्र तो आत्महत्या करने को मजबूर हो जाते हैं.
ऐसे में सहज सवाल उठता है कि क्या एक समाज के रूप में हम अपने बच्चों को यह बताने-समझाने में विफल नहीं रहे कि जिंदगियां कितनी अनमोल होती हैं? जो छात्र सीनियर का तमगा पा लेते हैं, वे इतने संवेदनहीन कैसे हो जाते हैं? क्या अभिभावक के रूप में हमें अपने बच्चों को यह नहीं समझाना चाहिए कि सीनियर और सक्षम बनने के बाद जूनियर साथियों के मददगार बनें, जरूरतमंद को सहारा दें, कमजोरों के पक्षधर बनें, उनकी सुरक्षा सुनिश्चित करें? विडंबना है कि रैगिंग हमारे शिक्षा संस्थानों की कड़वी सच्चाई है.
कड़ाई बरते जाने के बावजूद यह खत्म नहीं हो रही है. बावजूद इसके काॅलेज प्रशासन का सारा प्रयास घटनाओं को छुपाने, ढकने और नकारने का होता है. काॅलेज प्रबंधन की यही मनोवृत्ति रैगिंग करने वालों का हौसला बढ़ाती है. काॅलेज स्तर पर परिचय के नाम पर होने वाली रैगिंग को रोकने के लिए स्नेह सम्मेलन आयोजित किए जाने चाहिए. स्वयं छात्रों को भी आगे आकर इस संबंध में ठोस व कारगर कदम उठाने होंगे.
यह बीमारी तभी समाप्त होगी जब रैगिंग संबंधी कायदे कानूनों का कड़ाई से पालन होगा. इसके अलावा तथाकथित परिचय के नाम पर होने वाली रैगिंग में छात्र खुद भाग लेना बंद करेंगे और रैगिंग लेने वाले छात्रों का सामाजिक बहिष्कार करेंगे.