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ब्लॉग: कनाडा से अमेरिका, ईरान और भारत तक, क्या क्रूरता और हिंसा के बर्बर युग में लौट रही दुनिया?

By राजेश बादल | Updated: September 6, 2022 08:09 IST

विश्व बिरादरी समाज की देह में धीमे-धीमे फैल रहे इस जहर को लेकर बहुत चिंतित नहीं दिखाई दे रही है. इस बात पर गौर करना होगा कि सूख रही सहिष्णुता और सामाजिक रिश्तों में उदार भाव की कमी के क्या कारण हो सकते हैं?

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कनाडा के साक्षर संसार पर एक तमाचा लगा है. दो समूहों के गैंगवार में दस लोगों की जान चली गई और अनेक घायल हुए. सभी की जान चाकूबाजी में गई. एक दो नहीं, तेरह स्थानों पर ये मुठभेड़ें होती रहीं. दूसरी वारदात पोलैंड में हुई. वहां भारतीयों पर सप्ताह में तीन बार नस्ली आक्रमण हुआ. सभी में कहा गया कि भारतीयों अपने देश लौट जाओ. चंद रोज पहले ही अमेरिका के टेक्सास प्रांत में वहां की एक महिला ने भारतीय महिलाओं पर रंगभेदी टिप्पणी की और थप्पड़ लगाए. 

महिला चिल्ला रही थी कि तुम्हारी वजह से यह देश बर्बाद हो गया है. तुम यहां ऐश कर रहे हो. हम तुम्हारे कारण परेशान हैं. अमेरिका में इस साल अब तक बेवजह फायरिंग की 302 वारदातें हो चुकी हैं. वहां गन कंट्रोल कानून बेअसर रहा है. इस बंदूक संस्कृति का निशाना कई भारतीय भी बने हैं. अमेरिका के स्वतंत्रता दिवस पर शिकागो में एक नौजवान ने अंधाधुंध गोलीबारी में 6 लोगों को मार डाला था. हमलावर कह रहा था कि मुझे अब यही करना है. वह क्षुब्ध था कि इंटरनेट पर उससे ज्यादा वक़्त दूसरों को क्यों मिलता है. 

इसी कड़ी में ईरान की एक महिला को उसकी बेटी ने बर्बर ढंग से फांसी दे दी. सऊदी अरब की ताजा वारदात में भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज उठाने पर पुलिस ने अनाथ लड़कियों पर अनाथालय में जानलेवा हमला किया. लड़कियों में कई की हालत बेहद गंभीर है. भारत भी इस चरित्र की घटनाओं से अछूता नहीं है. बीते दिनों मध्यप्रदेश के सागर तथा आसपास के इलाके में चौकीदारों की सिर फोड़कर हत्या करने वाले एक हत्यारे को पकड़ा गया तो अजीब सी कहानी पता चली. आरोपी सिर्फ मजे के लिए हत्याएं करता था. वह चाहता था कि इस तरह लोगों को मारकर वह नाम कमाए.

अपराधों की यह संख्या यहां थमती नहीं दिखाई देती. तमाम देशों से मिले ये तो कुछ उदाहरण हैं, जो हाल ही में सामने आए हैं, मगर हमने देखा है कि कुछ वर्षों से विश्व भर में इस तरह की अमानवीय, क्रूर और हिंसक घटनाएं बढ़ रही हैं. उन मुल्कों में भी यह प्रवृत्ति बढ़ रही है, जहां लोग अपेक्षाकृत अधिक जागरूक, पढ़े लिखे और जिम्मेदार माने जाते हैं. जहां मानव अधिकारों की रक्षा और दैहिक स्वतंत्रता की बात कही जाती है, उन देशों में इस तरह की घटनाओं का बढ़ना किसी भी शासन प्रणाली के लिए शुभ संकेत नहीं है. 

इसका क्या अर्थ लगाया जाए? आदमी के हिंसक पशु में तब्दील होने से वहां की सामाजिक सभ्यता और संस्कार का कोई लेना-देना नहीं है. वह सामुदायिक भावना विलुप्त हो रही है, जो सदियों से इंसान को साथ रहने के लिए प्रेरित करती थी. साथ-साथ रहने की यह संस्कृति हजारों साल के बाद पनपी थी. उससे पहले बेशक मनुष्य कंदराओं में रहता रहा होगा और केवल अपने जीने की चिंता करता रहा होगा. उसकी इस चिंता में जो भी आड़े आता होगा, उसे वह जिंदा नहीं देखना चाहता होगा. 

मध्य युग में भी संसार के अनेक राष्ट्रों में आदिम बर्बरता के नमूने बिखरे पड़े हैं, लेकिन जब एक बार हमने सभ्य  समाज की शक्ल ले ली तो फिर उसका हिस्सा बनने के लिए कुछ कायदे कानून बनाए. क्या अब इन कायदे कानूनों का पालन वही बिरादरी नहीं करना चाहती, जिसने उन्हें तैयार किया था? यदि ऐसा है तो हालात विकट हैं और आने वाले दिनों के लिए गंभीर चेतावनी देते हैं.

अफसोस यह है कि विश्व बिरादरी समाज की देह में धीमे-धीमे फैल रहे इस जहर को लेकर बहुत चिंतित नहीं दिखाई दे रही है. सूख रही सहिष्णुता और सामाजिक रिश्तों में उदार भाव की कमी के क्या कारण हो सकते हैं? आज से पचास बरस पहले तमाम देश बंधुत्व के साथ-साथ एक वैचारिक आधार पर निकट आते थे. चौधराहट के लिए संघर्ष और जंगें तो तब भी होती थीं, लेकिन तब वे राष्ट्रहित में या फिर समृद्ध होने के लिए ताकतवर होने की होड़ के चलते होती थीं. पर आज जो स्थितियां बन रही हैं, वे समाज के अस्तित्व को नकारते हुए वैयक्तिक आधार ले रही हैं. 

पहले संयुक्त परिवार यूरोप और पश्चिमी देशों के साथ-साथ एशियाई राष्ट्रों में भी होते थे. ये परिवार आपसी रिश्तों में सद्भाव और एक दूसरे के काम आने वाले चरित्र की रचना करते थे. जब संयुक्त परिवार बिखर गए तो एकल परिवारों ने स्थान ले लिया. उस स्थिति में भी माता-पिता से मिलने वाले संस्कार बच्चे, किशोर, नौजवान और वयस्कों में पहुंचते रहे. मगर बीते दो या तीन दशकों में वैश्विक स्तर पर समाज की सोच में बड़ा बदलाव आया है. अब तो एकल परिवार भी टूट कर स्त्री, पुरुष और बच्चों को आत्मकेंद्रित बनाते जा रहे हैं. 

इन हालात में इंसान अब अपने माता-पिता या पत्नी-पति के बारे में भी नहीं सोचता. उसे सिर्फ अपना नफा-नुकसान नजर आता है. जो पारिवारिक और सामाजिक ढांचा एक इंसान को मानसिक तौर पर भावनात्मक संरक्षण देकर सहज बनाता था, वह समाप्त हो चुका है. इसी कारण मौजूदा तंत्र में कमोबेश हर नौजवान अपने को असुरक्षित और अवसाद में पाता है. 

कहीं पति-पत्नी के अलगाव के कारण बच्चों को बचपन के संस्कार नहीं मिलते और कहीं भरपूर धन भी कुटेवों के रास्ते पर ले जाता है. हिंसा और क्रूरता की अधिकतर घटनाओं में आरोपी किशोर या युवा वर्ग के होते हैं. उन्हें समाज या देश कोई परिपक्व नैतिक धरातल नहीं देता. यह उनके व्यवहार में परिवर्तन का बड़ा कारण है. इस गंभीर चिंता पर समूचे संसार को ध्यान देना ही होगा. 

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