धार्मिक आस्थाओं से ऊपर झलकनी चाहिए भारतीयता

By विश्वनाथ सचदेव | Published: July 9, 2021 02:40 PM2021-07-09T14:40:12+5:302021-07-09T14:53:58+5:30

अमेरिका की विश्वसनीय मानी जाने वाली सर्वेक्षण संस्था है प्यू रिसर्च जो दुनिया के अलग-अलग मुल्कों में विभिन्न क्षेत्रों में चल रही गतिविधियों और सोच-विचार को लेकर सर्वेक्षण करती है।

Indianness should be reflected above religious beliefs | धार्मिक आस्थाओं से ऊपर झलकनी चाहिए भारतीयता

फाइल फोटो

Highlightsभारत में दस में से सात लोग यह मानते हैं कि देश की राजनीति पर धर्म का असर बढ़ा है।डीएनए की एकता का तकाजा है कि हमें अशोक और अकबर दोनों महान लगें।भारत का बहुमत मानता है कि हम सच्चे धार्मिक तभी हो सकते हैं जब दूसरे धर्मो का सम्मान करें।

अमेरिका की विश्वसनीय मानी जाने वाली सर्वेक्षण संस्था है प्यू रिसर्च जो दुनिया के अलग-अलग मुल्कों में विभिन्न क्षेत्रों में चल रही गतिविधियों और सोच-विचार को लेकर सर्वेक्षण करती है। हाल ही में प्रकाशित वर्ष 2019 के एक ऐसे ही सर्वेक्षण में यह बात सामने आई है कि भारत में दस में से सात लोग यह मानते हैं कि देश की राजनीति पर धर्म का असर बढ़ा है। तथ्य यह भी है कि दुनिया भर में ज्यादातर लोग यह समझते हैं कि धर्म की भूमिका प्रभावी होनी चाहिए। धर्म और राजनीति के रिश्तों को लेकर इस स्थिति का सामने आना यही बताता है कि राजनीति में धर्म के हस्तक्षेप के प्रभावों-परिणामों पर विचार-विमर्श होना जरूरी है।

बहुधर्मी भारत में स्वतंत्रता-प्राप्ति के बाद हमने अपने लिए जो संविधान बनाया उसमें जहां एक ओर सभी धर्मो को समान सम्मान देने की बात कही गई है, वहीं यह भी स्पष्ट कर दिया गया है कि राज्य का, यानी सत्ता का कोई धर्म नहीं होगा और तथ्य यह भी है कि कुछ अपवादों को छोड़ दें तो कुल मिलाकर देश की जनता ने राजनीति और धर्म के इस रिश्ते को स्वीकार कर लिया है। इस सबके बावजूद इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि हमारे देश में धर्म के सहारे राजनीतिक स्वार्थ साधने की कोशिशें भी लगातार होती रही हैं। प्यू रिसर्च में इस स्थिति का सामने आना कि भारत में राजनीति पर धर्म का प्रभाव बढ़ रहा है, यही संकेत देता है।?

पिछले कुछ सालों में राजनीति पर धर्म के बढ़ते प्रभाव और इसके परिणाम को देश के बौद्धिक तबके में चिंता की दृष्टि से देखा गया है- चिंता इस बात की कि राजनीति में धर्म की यह भूमिका देश के सामाजिक ताने-बाने को कमजोर बना रही है। देश के अलग-अलग हिस्सों में जब-तब हो जाने वाले सांप्रदायिक दंगे राजनीतिक स्वार्थ साधने का साधन भले ही बनते हों पर समता, स्वतंत्रता, न्याय और बंधुता के आधार वाले हमारे भारत को यह कमजोर ही बनाते हैं। यह सही है कि धर्म के नाम पर देश का बंटवारा हुआ था, पर बंटवारे के बाद भारत ने पंथ-निरपेक्षता को अपनाया और पिछले 74 साल इस बात के साक्षी हैं कि इस दौरान भले ही धर्म राजनीति का हथियार भी बना हो, पर कुल मिलाकर हमने ऐसी राजनीति को नकारा ही है। धर्म के नाम पर देश को बांटने की कोशिश वाली यह राजनीति किसी अभिशाप से कम नहीं है, इसलिए जब भी कोई ऐसी कोशिश दिखती है जो इस अभिशाप को नकारती लगे तो अनायास इसका स्वागत करने का मन करता है।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के मुखिया मोहन भागवत के हाल ही के एक बयान में ऐसी ही एक कोशिश दिखती है। उन्होंने सारे भारत के लोगों का डीएनए एक होने की बात कही है। इसका सीधा-सा मतलब है कि देश के हिंदू, मुसलमान, सिख, ईसाई, बौद्ध आदि को धर्म के नाम पर बांटना गलत है। हम सबके पुरखे एक थे। हम सब में उनका खून है। भागवत ने कोई नई बात नहीं कही है, हम सदियों से भाई-भाई का नारा लगाते आ रहे हैं। फिर भी आरएसएस के मुखिया का यह कहना बहुत मायने रखता है। कुछ ही अरसा पहले भागवत ने भारत में जन्म लेने वाले हर नागरिक को हिंदू बताया था। तब भी शायद वे कहना यही चाहते थे कि आसेतु-हिमालय बसने वाले हम सब एक हैं, लेकिन ऐसी बातों का असर तभी होता है, जब कथनी और करनी में अंतर न दिखे और दुर्भाग्य से यह अंतर दिख रहा है।

इसमें कोई संदेह नहीं कि हम सबका डीएनए एक है पर एक तरफ नेता इस एकता की बात करें और दूसरी ओर हम स्कूलों में इतिहास की किताबों से मुस्लिम शासकों के अध्याय हटा दें, इसे किसी भी दृष्टि से सही और उचित नहीं कहा जा सकता। डीएनए की एकता का तकाजा है कि हमें अशोक और अकबर दोनों महान लगें। मैंने ‘लगें’ शब्द काम में लिया है, दोनों को महान मानने की बात नहीं कही। लगने और मानने में अंतर होता है। लगने का रिश्ता दिल से है, मानने का मस्तिष्क से। आवश्यकता दिल और मस्तिष्क को मिलाने की है।

मैंने बात प्यू रिसर्च के एक सर्वेक्षण से शुरू की थी। उसी सर्वेक्षण में यह भी कहा गया कि ज्यादातर भारतीय मानते हैं कि दूसरे धर्मो का आदर किया जाए, सर्वेक्षण में यह बात भी सामने आई है कि भारत का बहुमत यह भी मानता है कि हम सच्चे धार्मिक तभी हो सकते हैं जब दूसरे धर्मो का सम्मान करें। पारस्परिक सम्मान की यह बात बहुत महत्वपूर्ण है। जनता का बहुमत ऐसा मानता है, पर हमारे राजनेता, राजनीतिक दल धार्मिक विद्वेष की फसल से अपनी राजनीति संवारना चाहते हैं। जरूरत इस खतरनाक प्रवृत्ति को समाप्त करने की है। भागवत की एक डीएनए वाली बात भी तभी सार्थक होगी, जब उन्हें मानने वाले यह मानने लगेंगे कि हम सब हिंदू या मुसलमान या सिख-ईसाई तो हैं ही, पर उससे पहले हम सब भारतीय हैं। आखिर स्वयं को भारतीय मानने-कहने में किसी को संकोच क्यों हो। हर धर्म के मानने वाले को कुछ अधिक भारतीय बनना होगा। यदि हम स्वयं को भारतीय मानते हैं तो यह भारतीयता हमारी धार्मिक आस्थाओं से ऊपर झलकनी चाहिए। इसी में हमारे एक डीएनए की सार्थकता है।

Web Title: Indianness should be reflected above religious beliefs

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