राजेश बादल का ब्लॉग: युद्ध उन्माद, मीडिया पर भी गंभीर सवाल

By राजेश बादल | Published: March 5, 2019 12:48 PM2019-03-05T12:48:57+5:302019-03-05T12:48:57+5:30

पुलवामा संहार के बाद किसी अन्य भारतीय की तरह आम मीडियाकर्मियों में भी देशभक्ति की लहर दौड़ने लगी थी। इसे यूं भी कह सकते हैं कि आक्रोश यह था कि पाकिस्तान समर्थित इस आतंकवाद का आखिर कब और किस तरह अंत होगा?

iaf strike wing commander abhinandan pulwama reporting Serious question on media | राजेश बादल का ब्लॉग: युद्ध उन्माद, मीडिया पर भी गंभीर सवाल

राजेश बादल का ब्लॉग: युद्ध उन्माद, मीडिया पर भी गंभीर सवाल

मामला गंभीर है। हमारे जांबाज पायलट अभिनंदन भी ऐसा ही सोचते हैं। पाकिस्तान में रहते हुए दो दिन उन्हें भारतीय चैनल दिखाए गए होंगे। फिर उनका वीडियो आया। इसमें भारतीय मीडिया की आलोचना की गई थी। यह आलोचना भारत में भी अनेक स्तरों पर हो रही थी। पुलवामा में सैनिकों की शहादत के बाद मीडिया के तमाम रूपों में गुस्सा अपने रौद्र रूप में था। गुस्सा स्वाभाविक था क्योंकि यह अवाम के दिल की आवाज थी। मीडिया की भूमिका से एक बड़े वर्ग में नाराजगी है। लेकिन अगर अखबारों, टेलीविजन, डिजिटल और सोशल मीडिया ने वही प्रकाशित और प्रसारित किया, जो अवाम के मन में है तो गड़बड़ कहां है? यकीनन कहीं न कहीं तो है।
 
एक कहावत बचपन से सुनते आए हैं - गोली का घाव भर जाता है,पर बोली का नहीं। यानी आप जिस ढंग से खुद को अभिव्यक्त करते हैं, वह अभिव्यक्ति से कहीं अधिक महत्वपूर्ण है। आप अपने विचारों को प्रकट करने के अंदाज से पहचाने जाते हैं। संसद से लेकर चुनावी सभाओं में हमारे राजनेता जिस तरह बोलते हैं, वही उनकी छवि बनाता है। जरूरत से ज्यादा बोलना, नाटकीय हो जाना, जो पूरे न कर सकें  ऐसे वादे करना, एक दूसरे पर घृणित, निजी और चारित्रिक टिप्पणियां करना-इन सबसे नेताओं के बारे में ही नहीं, समूची राजनीति के बारे में नकारात्मक धारणा बनती है। आज इस कारण ही सियासत दिलों से उतर रही है। यह बात आप मीडिया के संदर्भ में भी कह सकते हैं। जब स्क्रीन पर एंकर उन्मादी हो जाएं , मेहमान चर्चा में मारपीट या गाली गलौज पर उतर आएं, इतिहास का समग्र अध्ययन किए बिना अपनी अपनी बात ब्रrासत्य मान लें। फिर गाज किसी न किसी पर तो गिरनी ही है। जब इस बात पर सरकार या सिस्टम की आलोचना होती है कि उसमें असहमति की गुंजाइश सिकुड़ती जा रही है तो मीडिया को भी किसी किस्म का लाभ क्यों कर मिलना चाहिए ?

पुलवामा संहार के बाद किसी अन्य भारतीय की तरह आम मीडियाकर्मियों में भी देशभक्ति की लहर दौड़ने लगी थी। इसे यूं भी कह सकते हैं कि आक्रोश यह था कि पाकिस्तान समर्थित इस आतंकवाद का आखिर कब और किस तरह अंत होगा? होगा भी या इसी तरह चलता रहेगा। हर मीडिया कर्मी पहले देशवासी है, उसके बाद पत्रकार। इस तथ्य से कोई बच नहीं सकता। सूचनाओं की जानकारी देने के अलावा अपनी संपादकीय भावना का प्रकटीकरण उनका पूर्णकालिक पेशेवर काम है इसलिए मान सकते हैं कि आम नागरिक का अभिव्यक्ति अंदाज अलग होगा और एक पेशेवर अभिव्यक्ति कर्ता का ढंग एकदम अलग। अगर औसत देशवासी और पेशेवर दक्ष पत्रकार समान ढंग से अपने आप को संप्रेषित करेंगे तो उनमें अंतर ही क्या रह जाएगा?
एक जमाने में अखबार के संपादकीय आम पाठक सबसे पहले क्यों पढ़ता था? इसलिए कि संपादक की टिप्पणी में किसी भी विषय पर जानकारी  सारे पहलुओं पर विचार करते हुए परिष्कृत और तार्किक विेषण के साथ दी जाती थी। पाठक को यह नहीं लगता था कि अरे ! इससे अधिक तो मैं जानता था अथवा यह संपादकीय स्तरहीन है या अखबार के संपादक से यह अपेक्षा तो नहीं थी। बौद्धिक भूख शांत कर शीतल अहसास से भर देने वाली पत्रकारिता ही असल है। 

मानसिक भोजन को अम्ल और जहरीली वायु से तीखा - बेस्वाद बना कर स्क्रीन पर प्ररस्तुत करना किसी भी सभ्य समाज में जायज नहीं ठहराया जा सकता। पुलवामा हादसे के बाद आम हिंदुस्तानी एक संतुलित, संयमित, मर्यादित और तार्किक कवरेज की अपेक्षा करता था। वह उसे नहीं मिली। इस दौरान हमारे अनेक फौजी जानकारों ने भी छोटे पर्दे पर अपनी जानकारियों तथा विेषण से कम, क्रोध और जबानी कटार से जो भी पेश किया, उसने आग में घी डालने का काम किया। दर्शक यह देखकर भड़का कि उसके पसंदीदा संपादक, एंकर और वीर सेनानायक पर्दे पर उसके ज्ञान में वृद्धि करने का काम नहीं कर रहे हैं ,बल्कि जंग के लिए उन्मादी, उतावले और अंधे हो रहे हैं। 

जिंदगी का हर मोर्चा हथियार से नहीं जीता जाता। कूटनीति और अक्ल से जो कामयाबी मिलती है, वो हजार जंगों से भी नहीं मिलती। पाकिस्तान इसी कारण अपने मोर्चे हारता है क्योंकि उसकी देह में फौजी हरारत के सिवा कुछ है ही नहीं। नहीं भूलना चाहिए कि कभी जापान जैसे सूक्ष्म देश ने विराट चीन को अपने आक्रमण से पराजय की कोठरी में बंद कर दिया था। छोटे से ब्रिटेन ने अरसे तक दुनिया के तमाम देशों पर सिर्फ हथियारों और फौज के दम पर ही राज नहीं किया था। फौज की ताकत के बल पर न अफगानिस्तान में सोवियत रूस टिक सका और न अमेरिका वहां चैन की नींद से सो पा रहा है। वह किसी तरह अपनी सेना की सम्मानजनक वापसी का मौका तलाश रहा है। फौजी ताकत के दम पर पाकिस्तान में न मोहम्मद अयूब अपना परचम लहरा पाए न जनरल जिया उल हक और न परवेज मुशर्रफ। हमारे मीडिया के धुरंधरों को विषय का गहराई से ज्ञान नहीं होने से भी पर्दे पर उन्मादी पत्रकारिता को बढ़ावा मिलता है। यह बात समझने की जरूरत है।

Web Title: iaf strike wing commander abhinandan pulwama reporting Serious question on media

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