Hindi Diwas 2024: सशक्त भाषा हमें कई स्तरों पर बनाती है मजबूत
By गिरीश्वर मिश्र | Updated: September 14, 2024 08:20 IST2024-09-14T08:19:52+5:302024-09-14T08:20:44+5:30
देश 1947 में अंग्रेजों से राजनीतिक रूप से मुक्त तो जरूर हो गया परंतु बहुत सारे प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष बंधनों के बीच यह लोकतांत्रिक यात्रा शुरू हुई. इसमें स्वतंत्र देश के लिए जो (शासन) तंत्र अपनाया गया वह अपने ढांचे में अंग्रेजों के तर्ज पर पहले जैसा बना रहा.

Hindi Diwas 2024: सशक्त भाषा हमें कई स्तरों पर बनाती है मजबूत
यद्यपि लोकतंत्र की अवधारणा के मूल भारत में प्राचीन काल में मौजूद थे परंतु विदेशी आक्रांताओं और अंग्रेजों के उपनिवेश के चलते भारत लंबी गुलामी के दौर से गुजरा और प्रजातांत्रिक अभ्यास दुर्बल हो गए.
स्वतंत्रता के लंबे संघर्ष के बाद आधुनिक भारत में लोकतंत्र का एक नया अध्याय अंग्रेजों की परतंत्रता समाप्त होने के साथ खुला. देश 1947 में अंग्रेजों से राजनीतिक रूप से मुक्त तो जरूर हो गया परंतु बहुत सारे प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष बंधनों के बीच यह लोकतांत्रिक यात्रा शुरू हुई. इसमें स्वतंत्र देश के लिए जो (शासन) तंत्र अपनाया गया वह अपने ढांचे में अंग्रेजों के तर्ज पर पहले जैसा बना रहा.
अंग्रेजी से हिंदी की ओर बदलाव का प्रतिरोध (या बदलाव न होने ) का एक प्रमुख कारण आलस्य तो था, पर अंग्रेजों द्वारा स्थापित तंत्र में आस्था और विश्वास भी एक प्रमुख कारण था. इसका परिणाम यह हुआ कि अंग्रेजों ने अपने राज में जिस तरह के सोच-विचार, कायदे-कानून, वेश-भूषा, और शिक्षा-दीक्षा के तौर-तरीके का अभ्यास कराया था वे सब प्रायः यथावत चलते रहे. उनके चलाए प्रतीक, नीति और प्रथाएं भी अपनी जगह काबिज रहे.
यह सब कुछ उस 'हिंद स्वराज' के अनुरूप न रह सका जिसका सपना 1909 में महात्मा गांधी ने देखा था और गुजराती में लिपिबद्ध किया था. सन् 1938 में 'हिंद स्वराज' के नए संस्करण के छपते समय पूछने पर उन्होंने कहा कि मुझे इसमें कोई बदलाव करने की जरूरत नहीं दिख रही है.
उनकी आंखों के सामने भारत का लोक यानी जन साधारण उपस्थित था और हर नीति की परीक्षा करने लिए वे अंतिम जन के हित को ही कसौटी मानते थे. अपने भारत भ्रमण का हवाला देते हुए वे कहते हैं कि पूरे भारत में हिंदुस्तानी बोलने वाले मिले और उन्हें हिंदी के प्रयोग में कोई कठिनाई नहीं हुई. भाषा सिर्फ प्रतिनिधित्व और अभिव्यक्ति ही नहीं करती बल्कि मनुष्य की रचना भी करती है क्योंकि हमारा सोचना भाषा में होता है.
हम वही होते हैं जो सोचते हैं. एक लोकतांत्रिक देश की जीवन यात्रा में स्वभाषा की विशेष महत्ता होती है क्योंकि जन भागीदारी उसका आधार है. औपनिवेशिक दौर में भारतीय भाषाओं की दुर्गति हुई. जनता को जानने, समझने और संवाद करने के लिए उनकी ही भाषा शिक्षा, सरकार और नागरिक जीवन में प्रयुक्त होनी चाहिए.
आज वैचारिक दृष्टि से परोपजीविता इतनी बढ़ चुकी है कि भाषा को लेकर बातचीत के मुद्दे भी बाहर से उधार आ रहे हैं. भाषाई उपनिवेशवाद से मुक्ति स्वतंत्र भारत में स्वराज लाने के लिए प्रमुख आवश्यकता है.
भाषाओं की बिरादरी में फैला ऊंच-नीच का क्रम बदलना होगा और हिंदी तथा अन्य भारतीय भाषाओं को सशक्त बनाना होगा. इस हेतु इन भाषाओं में ज्ञान-निर्माण की बहुत आवश्यकता है. उसे तकनीकी सहायता के साथ समृद्ध, समर्थ बना कर ही इस चुनौती से निपटा जा सकेगा.