सुनील सोनी
20वीं सदी के आरंभ में वर्जीनिया वुल्फ की यह धारणा थी कि कोई भी महिला रचनात्मक या साहित्यिक अवदान करती है, तो उसके पास वित्तीय संसाधन होने चाहिए, ताकि वह खुद की अदद जगह बना सके, जहां कोई हस्तक्षेप न हो. ‘ए रूम ऑफ वंस ओन’ में इस धारणा को पुष्ट करने के लिए उन्होंने शेक्सपीयर की बहन जूडिथ की कल्पना की, जिससे तत्कालीन नारीवादी आंदोलन को ताकत मिली. कोई अचरज नहीं कि क्रिकेट की दुनिया में ‘हरमन की टीम’ को वह कमरा ढूंढ़ने में सौ साल लगे. एआई और इंटरनेट के आने से बहुत पहले, पिछले चार दशकों पर दार्शनिक-संपादक दिवाकर मोहनी ने ‘आजचा सुधारक’ के मार्फत नागपुर में बैठकर ‘धनहीन समाज’ की दिशा में सार्वभौम बुनियादी आय को लेकर दुनियाभर में बहुआयामी बहस चलाई, जो उनके देहांत के बावजूद जारी है.
‘सेपियंस’ लिखकर युवाल नूह हरारी इसी विचार से ‘धन सिर्फ परीकथा है’ जैसी घोषणा करते हैं और ‘नेक्सस’ में बताते हैं कि अगले दशक में एआई दुनिया को नई जद्दोजहद में धकेल देगा. अब सवाल तो उठेंगे ही कि इनसानों के नए रास्ते क्या होंगे? पिछले दशकभर से एलन मस्क बहस चला रहे हैं कि बुनियादी आय अनिवार्य है,
क्योंकि तकनीक से विस्थापन के चलते निरर्थक होने पर लोगों के जीवन को अर्थ देना ऐसे ही संभव है. यह समझ मौजूदा अर्थशास्त्र से ही निकलती है, जहां धन जीवन की अनिवार्यता है, जबकि इसके पक्षधरों की साझा समझ रही है कि तब धन निरर्थक हो जाएगा और मानवीय जीवन की रचनात्मकता अर्थपूर्ण.
गैलीलियो समेत कई नामों की दलील रखनेवाली गाय स्टैंडिंग की किताब ‘बेसिक इनकम एंड हाऊ वी कैन मेक इट हैपन’ का नारा है कि यही एक रास्ता है, जो हमें बचाएगा. दुनिया के तमाम इनसानों को बुनियादी आय का अधिकार. इससे न केवल रचनात्मकता बढ़ेगी, बल्कि मानव जाति की इकलौती रिहाइश को बचाने की नई कोशिशें और समानता का नया दौर भी शुरू होगा.
यह अर्थावकाश रिश्तों का पुनरारंभ भी करेगा, जो अंतत: लोकतंत्र जैसी सामाजिक-राजनीतिक व्यवस्था की समझ को महज संसदीय नारे के बजाय जीवन के हर मतलब में शामिल हकीकत बनाएगा. फिनलैंड का अमल देखकर यूरोप-अमेरिका इसके प्रायोगिक क्षण में हैं. भारत में भी यह चुनिंदा शर्तों के ‘नासमझ ढब’ पर लागू है.
जर्मनी, पुर्तगाल समेत कई यूरोपीय देशों ने हर किसी की न्यूनतम आय तय की है. उम्दा शिक्षा व स्वास्थ्य सेवाएं मुफ्त की हैं और आलीशान वृद्धाश्रमों में बेहतरीन समय व सम्मानपूर्ण जीवन भी. ‘इट्स बेसिक’ और ‘फ्री मनी’ जैसी डाॅक्युमेंटरी बुनियादी आय के सामाजिक असर की गहराई नापती हैं, वहीं ‘बूट स्ट्रैप्स’ जैसी सीरीज उन परिवारों के बदले हालात कहती है, जो इस प्रयोग में शामिल रहे हैं.
‘व्हाट्स नेक्स्ट विथ बिल गेट्स’ में यह अलग ही अंदाज में पेश है, जो गरीबी हटाने की गारंटी का तर्क है. ‘फ्री लंच ऑन फिल्म’ यूट्यूब सीरीज 2013 में स्विट्जरलैंड की रायशुमारी पर बहस चलाती है कि कैसे मौजूदा लाभों में कटौती की आशंका के चलते लोगों ने भविष्यवादी कल्पना को ठुकरा दिया.
यूं पारंपरिक राजनीतिज्ञ और अर्थशास्त्री इसे खारिज करते रहे हैं और यूट्यूब सीरीज स्टोसेल टीवी जैसे तर्कों की आड़ में छिपते रहे हैं. राजनीतिज्ञों की दुविधा यह है कि अगर धन के लालच को विदा कर दिया गया, तो उनका मायाजाल टूट जाएगा और अर्थशास्त्रियों की यह कि अर्थ ही आत्मा है, जिसके बिना जीवन संभव नहीं.
कोई शक नहीं कि बुनियादी आय दिवास्वप्न है, जिसे हकीकत बनाने के लिए ‘टाइम बैंक’ जैसी धरातल पर काम करने लगी कल्पनाओं के पंख लगेंगे. दुनियाभर के कई देशों में ‘टाइम बैंक’ फिलहाल काम कर रहे हैं, पर गैब्रिएल डोनाटी और करीम वारिनी ने 2012 में ‘टाइम रिपब्लिक’ का स्विस संस्करण बनाया और अब वैश्वीकरण कर दिया.
‘टाइम बैंकिंग यूके’ ने कई देशों में इस कल्पना को आगे बढ़ाने के लिए सॉफ्टवेयर बना दिया है और भारत, रूस, चीन, द. कोरिया, थाईलैंड में इसे ऑनलाइन सामुदायिक सेवा समाज के तौर पर पहचाने जाने में मदद कर रही है. कनाडा की ‘टैम्पो टाइम’ का कुछ अलग ढंग है.
लेकिन, इसे अब तक किसी ने बुनियादी आय के साथ जोड़ा नहीं है, क्योंकि टाइम बैंक अब तक सरकारी तंत्र से अलग काम करते रहे हैं, वे इनसानी सरोकारों व सामुदायिक रिश्तों के नए बंध के तौर पर इसे उभारने के हामी हैं. बुद्धिमता को कृत्रिम रूप से पैदा करने की होड़ अगर लोगों को सृजन का अवकाश दे पाई, तो कितना बेहतर!