विचारः आदमी को इंसान बनाने का साधन है शिक्षा, शिक्षक मनुष्य बनाता...
By प्रो. रजनीश कुमार शुक्ल | Published: September 5, 2021 01:21 PM2021-09-05T13:21:21+5:302021-09-05T13:48:43+5:30
75 वर्षों से यह देश एक विशेष प्रकार की मानसिक दासता से गुजर रहा था. हमने ‘आधुनिक शिक्षा’ का जो नारा दिया उसी का परिणाम हुआ कि शत प्रतिशत साक्षरता वाला देश लगभग निरक्षर घोषित हो गया.
शिक्षा मनुष्य निर्मिति का एकमात्र साधन है. ऐसे में उन कारकों पर विचार किया जाना जरूरी है, जिनके कारण सभी प्रकार की श्रेष्ठ आकांक्षाओं और अपेक्षाओं के होते हुए भी भारतीय शिक्षा उन उद्देश्यों को प्राप्त नहीं कर सकी जो इस देश के लिए अपेक्षित था. एक ज्ञान दूसरे ज्ञान को जन्म देता है.
नया ज्ञान हमेशा प्राचीन ज्ञान की समीक्षापूर्वक ही सृजित होता है. नि:संदेह शिक्षकों का दायित्व श्रेष्ठ मनुष्यों का निर्माण करना है. इसका मापन अकादमिक उपलब्धि या शिक्षोपरांत आय से नहीं हो सकता है. हमें अपने विद्यार्थियों को सृजनात्मक कल्पना की क्षमता से युक्त एवं स्वावलंबी बनाना है. यही मनुष्य के निर्माण की प्रक्रिया है, यही मनुष्य को मुक्त करने की प्रक्रिया है.
75 वर्षों से यह देश एक विशेष प्रकार की मानसिक दासता से गुजर रहा था. हमने ‘आधुनिक शिक्षा’ का जो नारा दिया उसी का परिणाम हुआ कि शत प्रतिशत साक्षरता वाला देश लगभग निरक्षर घोषित हो गया. हजारों वर्षों से चल रही शिक्षा परंपरा जो समस्त समाज को शिक्षित, योग्य, श्रेष्ठ, स्वावलंबी और सद्गुणी बनाने का कार्य कर रही थी, वह ठप कर दी गई और संसाधन निर्माण की प्रक्रिया आरंभ हो गई.
ये संसाधन केवल ब्रिटिश राज को चलाने में उपयोगी थे. यदि हमें शिक्षा का उद्धार करना है, शिक्षा के द्वारा प्रत्येक मनुष्य का उद्धार करना है तो शिक्षक को पुन: शिक्षा के केंद्र में प्रतिष्ठित करना होगा. यही नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 का ध्येय है. शिक्षा का उद्देश्य सदा एक समान नहीं रहता. देश-काल के अनुसार बदलता रहता है. इन्हीं के अनुरूप शिक्षा तंत्र और व्यवस्थाएं भी बदली हैं.
कुछ दशकों पूर्व जो विषय सामग्री स्नातक स्तर पर पढ़ाई जाती थी अब वह उच्चतर माध्यमिक कक्षाओं का अंग है. ऐसे ही उपाधियों का महत्व भी बदला है. पिछले 75 वर्षो में हमने उच्च शिक्षा में अकादमिक नेतृत्व की भूमिका को सीमित कर दिया. इसका अर्थ संस्थान का संचालन बनकर रह गया. हम मौलिक ज्ञान सृजन के क्षेत्र में पिछड़ते गए. शिक्षक अपनी कक्षा में किए गए प्रयोगों एवं नवाचारों द्वारा बदलाव के अगुआ बन सकते हैं. पिछले सौ वर्षो में शिक्षा का लक्ष्य मनुष्य निर्माण के बजाय कुशल संसाधन निर्माण रहा है.
यूरोपीय पुनर्जागरण से आरंभ करके हम ‘नॉलेज पावर’ के स्तर तक पहुंच चुके हैं. ‘ज्ञान सद्गुण है’ को भूलकर आज यह माना जाने लगा है कि ‘ज्ञान ताकत है’. वर्तमान में इन दृष्टियों का उन्मूलन करने वाली शिक्षा की आवश्यकता है.
हमें बिना मानवीय मूल्यों के यंत्र बना देने वाली संस्थाओं को नहीं खड़ा करना है. हमें भारतीय समाज की आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए समग्र मनुष्य का निर्माण करना है. शिक्षा में परिवर्तन का अभियान प्रारंभ हुआ है पर यह परिणामवान तभी होगा जब शिक्षक अपनी केंद्रीय भूमिका का निर्वहन करेंगे.